पुस्तक समीक्षा: शीर्षक:‘मिथक और दिनकर’:
पुस्तक समीक्षा: समीक्षक आजय कुमार झा
“जयन्तिते सुकृतिनः रससिद्धाः कवीश्वराः । नास्ति येषां यशः काये जरा मरणजै भयम्॥”
अर्थात् उन रससिद्ध कवियों की जय हो जिन्होंने सङ्काव्य रचना करके इतना यशार्जित कर लिया है कि इन कवियों के यशरूपी शरीर को न मृत्यु का भय है और न ही वृद्धावस्था का।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिन्दी साहित्य और काव्य-जगत् के लिए आधुनिक युग में वाणी की एक रससिद्ध विभूति रहे हैं। ‘खड़ी बोली’ के काव्य-संसार में उनकी सशक्त, ओजस्विनी एवं राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत लेखनी का बड़ा प्रभाव रहा है और उन्हें हिन्दी संसार में बड़ा सम्मान और गौरव भी प्राप्त हुआ। आधुनिक हिन्दी-साहित्य के इतिहास में उनके काव्य-प्रवाह और वर्चस्वमयी कृतियों को भुलाया नहीं जा सकता। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में ऐसी शक्ति है कि वह जबसे हिन्दी-मंच पर अवतरित हुआ, उनका तेज बराबर विकसित और प्रसूत होता गया तथा बिहार की उर्वरा हिन्दी भूमि से उठकर उसका ओजस्वी स्वर निरन्तर तीव्रतर होता हुआ, समूचे राष्ट्र गगन पर छा गया। आधुनिक युग में वे हिन्दी भारतीय की ओजमयी वाणी का जीवन-भर प्रतिनिधित्व करते रहे। उनकी प्रतिभा अशिथिल भाव से अपना प्रकाश बिखेरती गई है।
भारतीय काव्य परंपरा में पौराणिक मिथकों का प्रयोग सदैव से एक सशक्त उपकरण रहा है। परंतु आधुनिक हिन्दी काव्य में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने मिथकों का प्रयोग केवल अलंकारिक उद्देश्य से नहीं, बल्कि उन्हें सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्शों का माध्यम बनाया। “मिथक और दिनकर”, डॉ. दिनेश कुमार शर्मा द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण आलोचना कृति है, जिसमें दिनकर के मिथकीय प्रयोगों की गहन और बहुआयामी व्याख्या की गई है। इस समीक्षा में उसी कृति को आधार बनाकर दिनकर की मिथकीय चेतना का समालोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है।
यह पुस्तक हिन्दी साहित्य के आलोचना क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है, जिसमें उन्होंने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रचनाओं में प्रयुक्त मिथकीय तत्वों का गहन अध्ययन और विश्लेषण प्रस्तुत किया है। यह कृति साहित्य, संस्कृति, मनोविज्ञान और दार्शनिक दृष्टिकोणों के समन्वय से समृद्ध है।
इस पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य यह है कि रामधारी सिंह दिनकर की काव्यकृतियों में प्रयुक्त “मिथकीय संकेतों” और “पौराणिक पात्रों” को केवल प्रतीक या ऐतिहासिक आख्यान न मानकर उन्हें सामाजिक और वैचारिक संदर्भों में पढ़ा जाए। डॉ. शर्मा दिनकर को एक ऐसे कवि के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो मिथकों के माध्यम से आधुनिकता, नैतिकता और अन्याय जैसे गहन विषयों को उठाते हैं। पुस्तक में ‘मिथक’ को केवल धर्म या कल्पना से जुड़ा हुआ नहीं माना गया है, बल्कि उसे सांस्कृतिक स्मृति, सामूहिक चेतना और प्रतीकात्मक विमर्श के रूप में देखा गया है। दिनकर ने पौराणिक पात्रों को मात्र धार्मिक पूज्य पात्र नहीं माना, बल्कि उन्हें *मानव स्वभाव के प्रतिनिधि* के रूप में चित्रित किया – जैसे कर्ण अन्याय और अस्मिता का प्रतीक बनते हैं, तो परशुराम वर्ग-संघर्ष और सत्ता की द्वंद्वात्मकता के प्रतीक।
वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में जब परंपरा और आधुनिकता के बीच गहन विमर्श चल रहा है, तब यह समझना अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि आधुनिक कवि किस प्रकार पारंपरिक मिथकों का उपयोग समकालीन सन्दर्भों में करते हैं। मिथक केवल धार्मिक आख्यान या प्राचीन गाथाएँ नहीं हैं, बल्कि वे सांस्कृतिक स्मृतियाँ, सामूहिक चेतना और प्रतीकात्मक चिंतन के वाहक हैं। इस पुस्तक में उल्लेखित यह दिव्य अनुच्छेद पठनीय है,” वासुदेव की वासना, ईश्वर का ऐश्वर्य, पिता का पालन, ब्रह्मकी नैतिकसत्ता, विश्वम्भर का भर्ता रूप, जगदीश की ईशता चिन्तन के भले ही विभिन्न आयाम हो सकते हैं किन्तु मिथक हमारी आस्तिकता है, जिसने हमें आत्मा और परमात्मा का ज्ञान कराते हुए अस्मिता का बोध कराया है। विद्वानों की मान्यता में मिथक की अवस्थिति भी बीज रूप में यही प्रसुप्त है। ब्रह्म, ईश्वर है और वही आज जीवन का नियमन करती है। यही विष्णु, शिव या शक्ति की श्रद्धा-भक्ति वाले सम्प्रदायों में पल्लवित हुई। इसी ने कवियों के गीतों में रस घोल दिया। मन्दिरों और प्रासादों की मूर्तियाँ उकेरीं। यही हमसे उन मूर्तियों और चित्रों के माध्यम से सम्वाद करती हैं जो दैवीय, अर्ध दैवीय, वीरों, मानवों, पशु-पक्षियों की आकृतियों से हमारी भित्तियों, स्तम्भों, आवासों को अलंकृत करते हैं जो नटराज शिवलिंग और नन्दी के प्रेरणात्मक प्रतीकों में दृष्टिगोचर होते हैं और जो आज हमारे चलचित्रों और कथाओं पर छाए हुए हैं। ये सब मिथक के ही अवयव हैं।”
“दिनकर की काव्य कृतियों में मिथकीय प्रयोग।” इस पुस्तक के अध्याय तीन से डॉ. शर्मा ने दिनकर की प्रमुख रचनाओं में मिथकीय संचेतना को उजागर किया है।
*रश्मिरथी*
कर्ण को केवल एक पौराणिक योद्धा के रूप में नहीं, बल्कि वह आत्मसम्मान, सामाजिक उपेक्षा और अस्मिता हेतु संघर्ष का प्रतीक मानते हैं। डॉ. शर्मा इसे “वंचित वर्ग की आवाज़” के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
*कुरुक्षेत्र*
महाभारत के युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह रचना “अहिंसा बनाम धर्म युद्ध” के द्वंद्व को उकेरती है। दिनकर के कृष्ण यहाँ केवल नीति-पुरुष नहीं, “युगधर्म के वाहक” के रूप में चित्रित हैं।
*परशुराम की प्रतीक्षा*
यह कृति ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय संघर्ष के प्रतीक पर आधारित होते हुए भी “वर्गीय शोषण और सामाजिक न्याय” का आधुनिक विमर्श प्रस्तुत करती है। परशुराम प्रतीक्षा कर रहे हैं – न्याय के पुनरागमन की।
“डॉ. दिनेश कुमार शर्मा की आलोचना दृष्टि”
डॉ शर्मा का विश्लेषण बहुस्तरीय है – वे दिनकर की रचनाओं को केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि मनोविश्लेषणात्मक, दार्शनिक और समाजशास्त्रीय दृष्टियों से भी पढ़ते हैं। वे मिथकों को ‘नवबोध के उपकरण’ की तरह देखते हैं। उनका मत है कि दिनकर “संघर्ष, न्याय, नारी-विमर्श”, और “राजनीतिक चेतना” जैसे विषयों को मिथकीय आवरण में प्रस्तुत कर एक गहन बौद्धिक विमर्श का सृजना करते हैं।
“मिथक और आधुनिकता के मध्य संवाद”
दिनकर का योगदान इस दृष्टि से भी विशेष है कि उन्होंने परंपरागत मिथकों को “स्थिर प्रतीकों” के रूप में न रखकर “प्रगतिशील विमर्शों” में बदला। यह प्रक्रिया उन्हें एक आधुनिक संवेदनशील कवि बनाती है। डॉ. शर्मा के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि दिनकर के मिथक आज भी समकालीन हैं, क्योंकि वे समय की सीमाओं से परे जाकर मूलभूत मानवीय प्रश्नों को स्पर्श करते हैं।
*तुलनात्मक और मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण*
पुस्तक में फ्रायड, जुंग, जोसेफ कैम्पबेल जैसे मनोविश्लेषकों और पाश्चात्य मिथक-चिंतकों की अवधारणाओं का सटीक संदर्भ देकर दिनकर के मिथकीय पात्रों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की गई है। यह प्रयास हिन्दी आलोचना को वैश्विक विमर्शों से जोड़ते हुए इसकी गरिमा को चारचंद लगा दिया है।
* भाषा, शिल्प और आलोचनात्मक क्षमता*
डॉ. शर्मा की भाषा विद्वतापूर्ण, परिष्कृत और तार्किक है। उनके तर्क पुष्ट प्रमाणों और उद्धरणों से युक्त हैं। शिल्प की दृष्टि से पुस्तक का विन्यास सुसंगठित एवं आकर्षक है। सिद्धांत, विश्लेषण, उदाहरण और निष्कर्ष की क्रमिक प्रस्तुति इसे एक श्रेष्ठ आलोचना ग्रंथ के रूप में स्थापित करती है। पुस्तक के भौतिक रूप श्याम पीत वर्ण में सुसज्जित अति आकर्षक और लुभावनी है। जिससे पाठक गण इस पुस्तक को हृदयंगम करना चाहेंगे। टंकनीय शुद्धता और सुंदरता अवर्णनीय है। इसके लिए “नमन प्रकाशन” को धन्यवाद दिए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। डॉ नरेशचंद्र बंसल जी के पुरोवाक् एक ओर पुस्तक के गरिमा को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर पाठकगण के सुविधा हेतु गागर में सागर को समेटने का काम किया है
*निष्कर्ष: समेकित मूल्यांकन*
“मिथक और दिनकर” केवल दिनकर के काव्य का अध्ययन नहीं है, बल्कि यह हिन्दी साहित्य में “मिथक की पुनराविष्कार यात्रा” है। डॉ. दिनेश कुमार शर्मा ने यह सिद्ध किया है कि दिनकर की कविताएँ सिर्फ राष्ट्रवाद या वीर रस तक सीमित नहीं, बल्कि वे गहरे सांस्कृतिक विमर्शों और मिथकीय संवेदनाओं से ओतप्रोत भी हैं। इस पुस्तक के माध्यम से दिनकर को एक *संवादधर्मी आधुनिक ऋषि* के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो परंपरा और आधुनिकता के बीच सेतु का निर्माण करते हैं।
“यह कृति शोधार्थियों, विद्यार्थियों, आलोचकों और गंभीर पाठकों के लिए अति महत्वपूर्ण और प्रेरक है।”
समीक्षक: विद्यावाचसपति अजय कुमार झा। जनकपुरधाम, नेपाल
