अंतिम अवस, फिर भी बेखबर:प्रो. नवीन मिश्रा
सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में स् पष्ट क दिया है कि संविधान सभा की अवधि बढÞाने का यह अंतिम मौका है औ अग तब भी संविधान नहीं बन सका तो पुनः चुनाव में जाना होगा। इस दृष्टिकोण से संविधान सभा के पास संविधान निर्माण के लिए यह अन्तिम अवस है। लेकिन अभी भी संविधान सभा के अध्येता प्रमुख ाज्य पर्ुनर्संचना जैसे मुद्दों के भंव में फँसे हैं। सभी प्रमुख ाजनीतिक दल अपने अन्तकलह से ग्रसित हैं। बहुत ही स् सा कस् सी के बाद ाज्य पुनर्संचना आयोग तो गठित हो गया है – लेकिन अब भी इसके अस् ितत्व प खता मंडÞा हा है क्योंकि अभी तक मोल तोल की ाजनीति चल ही है। आयोग का गठन प्रमुख तीन दल एकीकृत माओवादी, नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले तथा संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा के बीच हुए सहमति का पणिाम है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि पर्ूव में हुए चा सूत्रीय तथा सात सूत्रीय सहमति के आधा प इसका गठन क्यों नहीं हो सका। आयोग बनाने के लिए फि से नयाँ दो सूत्रीय सहमति क्यों कना पडÞा। यह भी बात खुल क सामने आयी कि माओवादी के वैद्य समूह तथा ज नजाति सभासद समूह विज्ञ समहू निर्माण के विोधी थे। इस आयोग को दो महीने के अन्द अपना सुझाव प्रस् तुत कना है। कांग्रेस तथा एमाले वास् तव में पहले से ही आयोग गठन के पक्ष में थे। माओवादी ही उस समय विशेषज्ञ समिति के गठन प जो दे हे थे। ाज्य पुनर्संचना जैसी दर्ीघकालीन तथा संवेदनशील विषय से सम्बन्धित आयोग गठन की बात को ाजनीतिक दलों के द्वाा उपेक्षा किया जाना दर्ुभाग्यपर्ूण्ा है।
माओवादियों के द्वाा शुरु में आयोग गठन का विोध कना तथा फि उसी आयोग गठन का र्समर्थन जताने की बात समझ में नहीं आती है। जो भी हो, उम्मीद किया जाना चाहिए कि इस बा ाजनीतिक दल अपनी सहमति का कार्यान्वयन सफलता पर्ूवक क सकेंगे। लेकिन ाजनीतिक दलों के बीच विगत में हो हे उठा पटक को दखते हुए उनकी यह समझदाी कब तक कायम हेगी, कहना मुश्किल है। ऐसे में लगता है कि समय से संविधान निर्माण अभी भी संवेहास् पद ही लगता है औ अग इस बा में भी संविधान नहीं बन सका तो ऐसा न हो कि देश को पुनः चुनाव में झोंक दिया जाय, जैसा कि सर्वोच्च न्यायलय ने कहा है। विशेषज्ञ समिति का गठन नहीं होना जो वर्तमान सका गठन का एक मुख्य आधा था, सका के स् थायित्व प भी प्रश्न चिहृन लगता है क्योंकि विगत भाद्र महीने में माओवादी तथा मधेशी मोर्चा के बीच हुए चा सूत्रीय सहमति तथा कार्तिक १५ के दिन प्रमुख तीन दल तथा मधेशी मोर्चा के नेताओं के बीच हुए सात सूत्रीय समझौता का एक महत्वपर्ूण्ा आधा विशेषज्ञ समिति का गठन था। इतना ही नहीं आयोग के अध्यक्ष के चुनाव चुने गए सदस् यों प भी विवाद कायम है। दलितों को समावेश नहीं किया जाना एक प्रमुख मुद्दा बन गया हैं। आवश्यकता है कि अभी दलगत तथा स् वार्थगत ाजनीति से ऊप उठ क संविधान निर्माण जैसे महत्वपर्ूण्ा ाष्ट्रीय कार्य में लगा जाए। लेकिन लगता है, इन बातों से सभी बेखब हैं। सबों का ध्यान सिर्फअपासी संधि समझौतों प ही केन्द्रित है।
संविधान निर्माण के सम्बन्ध में दूसी सबसे बडÞी बाधा पार्टियों के भीत की गुठबन्दी है। यूँ तो एक जीवन्त औ गतिशील पार्टर्ीीे भीत भतभेद उत्पन्न होना अस् वाभाविक नहीं है। वास् तव में प्रत्येक वस् तु के भीत अन्तविोध की प्रक्रिया शाश्वसत वैज्ञानिक नियम का पचिायक है। नेपाली ाजनीति अभी गम्भी संक्रमणकाल से गुज ही है। सांस् कृतिक क्षेत्र, सका के विभिन्न अंग अछूता नहीं ह सकते। यहाँ तक की व्यक्तियों की सोंच प भी इसका अस पलिक्षित होने लगा है। नेपाली ाजनीति में दलों की उपयोगिता संविधान निर्माण तथा शान्ति प्रक्रिया प ही निर्भ है। कोई भी दल अग अपनी पार्टर्ीीभत के अन्तविोध को सकाात्मक दिशा में मोडÞने में सक्षम होगी, तभी वह मजबूत औ टिकाऊ ह सकती है। लेकिन दूसी ओ अग कोई दल अपने अन्तविोध को नकाात्मक रुप प्रदान कता है तो ऐसे में उस का विखाव अवश्यमभावी है। इस काण यह आवश्यक है कि सभी दल अपने अर्न्तविरा ेध का सही व्यवस् थापन कें, तभी संविधान निर्माण तथा शान्ति प्रक्रिया की ाह में अग्रस हो सकते हैं।
देश का नेतृत्व कने वाले ाजनीतिक दलों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने भीत के अन्तविोधों का सामाधान क एकतावद्ध रुप में आगे बढेंÞ। अन्यथा वे देश का नेतृत्व कने में सक्षम नहीं हो सकेंगे औ देश नई नई मुसीबतों में उलझता चला जाएगा। आज सभी दलों के बीच ाज नए नए गुटों का जन्म हो हा है जो अन्ततः अनिश्चितता की स् िथति उत्पन्न क देगा। आज का युग व्यक्ति नेतृत्व से सामूहिक नेतृत्व की ओ अग्रस हो हा है। सिद्धान्ततः सभी ाजनीतिक दल सामूहिक नेतृत्व की बात कते हैं लेकिन व्यवहा में अधिनायकवादी मानसिकता का पचिय देते हैं। अभी तक वे सही सिद्धान्त औ आचण को व्यवहा में उताने में असफल हे हैं। आज विश्व में पििस् थति इतनी तेजी से बदल ही है कि पूँजीवादी पार्टर्ीीे अन्द भी सामूहिक नेतृत्व की भावना विकसित हो ही है। पविर्तन विश्व के साथ पार्टर्ीीी पविर्तन हो ही है। नेपाल में लंबे समय तक ाजतन्त्रात्मक व्यवस् था होने के काण अभी भी हम व्यक्तिवादी चिन्तन से ग्रसित हैं। जिससे समूहगत भावना को उचित स् थान प्राप्त नहीं हो हा है। विभिन्न व्यक्तियों की सामूहिक संस् था ही पार्टर्ीीोती है। विभन्न विषयों प विभिन्न व्यक्तियों का अलग अलग विचा होना स् वभाविक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हैए कि हम इस के आधा मान क अपना अलग गूट बना लें। यह पार्टर्ीीौ देश दोनों ही के लिए घातक है। नेपाली ाजनीतिक दलों के भीत का बिवाद कभी कभी तो सामान्य होता है लेकिन कभी कभी यह इतना तीव्र हो जाता है कि पार्टर्ीीूट जाती है या फि टूटने के कगा प आ जाती है। किसी भी दल के शर्ीष्ास् थ नेतृत्व की जो सोंच होती है, वही बाँकी लोगों का भी हो, यह जरुी नहीं है। अतः नेतृत्व को यह बात समझनी चाहिए औ उनमें इतनी क्षमता होनी चाहिए की वे सबों को साथ लेक चल सकें। किसी भी पार्टर्ीीें एकबद्धता के लिए जरुी है कि विचा को व्यक्ति से उप माना जाए। पार्टर्ीीब एक या अनेक गुटों का शिका हो जाती है तो काल क्रम में उसका कमजो पडÞते जाना स् वभाविक है। गटबन्दी के काण पार्टर्ीीपने विधान औ सिद्धान्त से भी विचलित हो जाती है। सिद्धान्ततः सभी लोग कहते हैं कि पार्टर्ीीे भीत की गूटबन्दी अच्छी नहीं है लेकनि फि भी व्यवहा में देखा गया है कि सभी गुटबन्दी में लगे हते हैं। पार्टर्ीीे अन्द भी इस प्रका के गुटबन्दी के काण ही संविधान निर्माण तथा शान्ति प्रक्रिया के कायोर्ं में विलम्ब हो हा है।
संविधान निर्माण के मार्ग में एक प्रमुख बाधा यह भी है कि अभी तक मधेशी समुदाय को न तो विश्वास में लिया जा सका है औ नहीं उनके अधिकाों तथा हकों का निर्धाण हुआ है। हताश होक संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा ने सभी सकाी सेवा में मधेशियों के लिए ५० प्रतिशत आक्षण की माँग खी है, जबकि यह खुद भी सका में शामिल है। इनके दबाव के काण ही सका को संसद में पेश किए गए समावेशी विधेयक वापस लेना पडÞा है। अब उम्मीद है कि सका मोर्चा के आक्षण तथा अन्य मांगों को इसमें समावेश कने के बाद ही विधेयक को फि से पेश कने की मांसिकता बना ही है। मोर्चा की एक प्रमुख माँग यह भी है कि समावेशी सम्बन्धी कार्यों को नियमित तथा व्यवस् िथत कने के लिए एक स् वतन्त्र, समावेशी आयोग का गठन जरुी है। मोर्चा का यह भी मानना है कि मधेशी महिलाओं की तुलना में पहाडी महिलाओं को अधिक अक्षण का लाभ मिल हा है। अतः जल्द से जल्द इस अनियमितता के अंत के लिए भी ठोस कदम उठाए जाने के लिए आक्षण की व्यवस् था की जानी चाहिए। मोर्चा ने संवैधानिक आयोग, स् थानीय निकाय, ाजनीतिक नियुक्ति, अर्धसकाी संस् थान, विश्वविद्यालय तथा बैंको में भी मधेशियों के लिए उचित आक्षण की व्यवस् था की जानी चाहिए। मोर्चा के उठाए गए इन मांगों को शीघ्रतितशीघ्र स् वीका किया जाना चाहिए। तभी मधेशियों को अपना उचित हक प्राप्त हो सकेगा। जिससे वे अभी तक बंचित हे हैं। जब तक मधेशियों को उनका उचित हक प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक संविधान निर्माण के मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न होती हेंगी।
संविधान निर्माण में एक सबसे बडी बाधा संघीय संचना है। संघीय संचना के विषय में न तो केन्द्रीय नेता औ नहीं मधेशी नेताओं की सोंच औ समझदाी स् पष्ट है। सिद्धान्तः सभी ने संघीय संचना के स् वरुप को स् वीका तो क लिया है लेकिन इसका व्यवहाकि रुप क्या होगा – स् पष्ट नहीं है। केन्द्रीय नेताओं को लग हा है कि संघीय संचना होने से उनकी जागी छिन जाएगी। दूसी ओ मधेशी नेताओं को लगता है कि ‘संघीयता’ कोई जादू की छडÞी नहीं है, जो आते ही मधेश की सभी समस् याओं का सामाधान हो जाएगा। लेकिन वास् तविकता यही है कि दोनों ही सोंच गलत है। संघीयत संचना की स् थापना से कुछ हद तक ाजनीतिक स् वतन्त्रता प्राप्त हो भी जाएगी लेकिन आर्थिक पतन्त्रता कायम हेगी। स् थानीय स् त प ाज्य संचालन के लिए स्रोत साधन का पर्ूण्ा अभाव है। ऐसे में स् थानीय ाज्यों का संचालन कैसे होगा, यह महत्वपर्ूण्ा विचाणीय प्रश्न है। मधेशियों के कल्याण का सिर्फएक ही उपाय है, जिसके लिए हमें एकजुट होक संर्घष्ा कना चाहिए। सभी क्षेत्रों में मधेशियों के लिए ५० प्रतिशत आक्षण यूं तो संघीयता एक अच्छी प्रणाली है लेकिन यह सभी देशों के लिए उपयुक्त ही होगा, यह कोई जरुी नहीं है। अमेकिी या भातीय संघीयता की नकल हम नहीं क सकते क्योंकि हमो पास न तो उतना भूभाग हैं औ न ही प्रचु मात्रा में स्रोत-साधन। हमाी जनता सत्ता सञ्चालकों से कहीं बेहत है, यह कई अवसों प पलिक्षित हो चुकी है। संविधान सभा में नेताओं के व्यवहा से भी यह बात प्रभावित हो चुकी है। इतनो बा संविधान सभा की अवधि बढÞाए जाने के बावजूद भी मूल संविधान की तो बात ही छोडिÞए, उसकी रुपेखा तक भी न तो तैया हर्ुइ है औ न ही प्रस् तुत। आशा कनी चाहिए कि इस अन्तिम अवधि में संविधान का निर्माण हो जाए, जिससे देश को चुनाव का बोझ न उठाना पडÞे। ±±±
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