Fri. Apr 19th, 2024

कुमार सच्चिदानन्द:राजनीति का जितना विद्रूप रूप हो सकता है, उसी की तस्वीर नेपाल के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है । नौ साल बाद नेपाल की तराई एक बार फिर अस्थिर और असन्तुष्ट है तथा अपनी असन्तुष्टि विभिन्न रूपों में सड़कों पर उगल रही है । तराई के विभिन्न जिले तनावग्रस्त हैं । कहीं कफ्र्यू है कहीं निषेधाज्ञा । शहर और सड़कें सुरक्षाबलों के स्थायी शिविर से दिखलाई दे रहे हैं । इसके बावजूद लाखों लोग सड़कों पर हैं और विभिन्न तरीकों से अपना विरोध–प्रदर्शन कर रहे हैं । शांति तो भंग हो चुकी है, हिंसा का भी विष–वपन हो चुका है । मधेश के कई जिलों में खूनी झड़पें हो रही हैं । लोग अपने खून से सड़कों को रंग रहे हैं औंर अपने प्राणों की आहूति भी दे रहे हैं । कहीं–कहीं तो हिंसा मानवता की सीमा को भी पार कर गई है । पूरा तराई–मधेश का क्षेत्र ही कुरुक्षेत्र बन गया है । एक तरह से कहा जाए तो नेपाल की तराई में पारम्परिक रूप से रहने वालों के लिए यह समर कुरुक्षेत्र की तरह ही है जो राजनैतिक संघर्ष से ऊपर उठकर धर्मयुद्ध का रूप धारण कर लिया है क्योंकि सही–गलत की सीमा यहाँ निराकार हो गई है । पूरा देश मनोवैज्ञानिक रूप में दो पाटों में विभाजित है । एक के लिए जो सही है, दूसरा उसे गलत कहता है । वस्तुतः धर्मयुद्ध का भी यही मनोविज्ञान होता है जहाँ पाप–पुण्य की सीमा समाप्त हो जाती है, हर व्यक्ति अपनी ओर से इसमें अपना योगदान देता और विजेता की दृष्टि से इतिहास के पन्ने रंगे जाते हैं । पाप–पुण्य की व्याख्या भी उसी के दृष्टिकोण के आधार पर किया जाता है ।
आज तराई–मधेश समग्र रूप से आन्दोलित है और आर–पार के युद्ध के मनोविज्ञान में है । एक बात तो सच है कि आन्दोलन यह रूप धारण करेगा, आमलोग इस तरह सड़कों पर आकर अपनी आहुतियाँ देंगे, इस बात का विश्वास तो सामान्य रूप में नहीं किया जा रहा था । लेकिन जिस तरह संघीयता के मुद्दे को दरकिनार कर आगामी संविधान का मसौदा प्रस्तुत किया गया, फिर आनन–फानन में राज्यों की सीमाएँ निर्धारित की गई जिसमें तराई–मधेश की वह संरचना गुम थी जिसकी परिकल्पना विगत की तराई आन्दोलनों में की गई थी । पूरब–पश्चिम के जिलों को काट दिया गया, मध्य के कुछ जिलों को भी मानचित्र में अलग रखा गया और पश्चिमी तराई को पहाड़ के जिलों से मिलाकर एक तरह से इस क्षेत्र के लोगों की पहचान की भावना पर आघात किया गया । परिणाम यह हुआ कि जो चिंगारी अवगुण्ठित थी, उस पर से राख उड़ गई और अपने नेतृत्व से असंतुष्ट होते हुए भी लोग सड़कों पर उतरने लगे । इस आन्दोलन की यह विशेषता रही है कि प्रारम्भ से ही इस संवेदना से सम्बद्ध नेताओं ने इसे नेतृत्व दिया । एक तरह से यह आन्दोलन मधेशमार्गी नेताओं के लिए भी पतितपावनी की तरह है जिसमें वे अपने अतीत के पापों को धोकर उसका प्रायश्चित कर सकते हैं अन्यथा उनके नाम राजनीति के महत्वपूर्ण पन्नों से कालान्तर में गुम हो जाने का खतरा बरकरार है ।
नेपाल की राष्ट्रीय राजनीति के समक्ष तो यह एक यक्षप्रश्न है कि क्यों तराई के लोग बार–बार आन्दोलित होते हैं और अपने प्राणों की परवाह किए बिना सड़कों पर उतर आते हैं ? निश्चित ही इसे तराई–मधेश की राजनीति कर रहे नेताओं का कलेवर नहीं ही माना जा सकता । वास्तव में इसके पीछे सदियों की उपेक्षा और औपनिवेशिक शोषण है जिसका आरोप इस क्षेत्र की जनता द्वारा केन्द्र की राजनीति और सरकार का नेतृत्व तथा प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं और शासन के सन्यन्त्रों पर लगता रहा है । बातें चाहे जितनी भी चिकनी–चुपड़ी कर ली जाए लेकिन शासकीय सन्यन्त्र की तस्वीर देखकर इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उपेक्षा और शोषण का यह जाल कितना अपारदर्शी मगर मजबूत है । यह सच है कि राजतन्त्र के शासन की छाया में यह असन्तोष गहरा तो था लेकिन घनीभूत नहीं हो पाया था । एक तरह से राजभवन से भयाक्रान्त आमलोग तो थे ही, इसके भय की छाया में नेता भी साँस लेते थे फिर राजतन्त्र का जाल पूरे देश में ऐसे बिछा था कि प्रयास करने वालों की पहुँच अपेक्षित जगह तक होती और अवसर भी मिल जाते थे । लेकिन राजतन्त्र की समाप्ति के बाद जब खुली हवा में साँस लेने का वक्त आया तो जनता मुखर होती गई और नेता निरंकुश । लगभग २६ वर्षों की प्रजातान्त्रिक यात्रा में राज्य और इसके सन्यन्त्रों को अपनी–अपनी विरासत मानकर राष्ट्र की राजनीति करने वाले दलों और इसके नेताओं ने तथ्यों की जो अपव्याख्या की और देश के ही नागरिकों को अवसर से ही वंचित किया उससे शोषित–उपेक्षित समुदाय स्वयं को ठगा सा महसूस करने लगा । यही पृष्ठभूमि तराई आन्दोलन की जमीन बनी । लोगों ने महसूस किया कि उनकी समस्या का समाधान संघीयता में ही संभव है और समस्त मधेश–प्रदेश की माँग उभरकर सामने आयी । इसके लिए इससे पूर्व भी आन्दोलन हुए, समझौते भी हुए लेकिन इसके प्रति संवेदनशीलता और इसका वैज्ञानिक स्वरूप विगत नौ वर्षों में उभरकर सामने नहीं आया । तराई–मधेश का नेतृत्व दृष्टिहीनता और अवसरवादिता की साधना के कारण लड़खड़ाती रही और सरकार में सहभागी दल उसकी माँगों को संबोधित करना आवश्यक नहीं समझे । आज आन्दोलन अपने चरम पर है लेकिन विडम्बना यह है कि केन्द्र में विशेषज्ञों और विश्लेषकों की एक ऐसी जमात बैठी है जो बड़े गर्व और आत्मविश्वास से कहती है कि आखिर इस आन्दोलन की माँग क्या है ?
हमारी राष्ट्रीय राजनीति की अदूरदर्शिता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि देश महाभूकंप की त्रासदी से अभी उबरा भी नहीं है । इससे जूझने के लिए राजनैतिक सहमति के वातावरण में विकास और पुननिर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए दलों की कार्यगत एकता की बात की गई और जब महत्वपूर्ण चार दलों में राजनैतिक सहमति बनी तो इस अवसर का उपयोग आधा–अधूरा संविधान देश पर थोपने का काम किया गया । भूकंप के पीडि़तों के मुद्दे गौण हो गए, उनके पुनर्वास की समस्या नेपथ्य में चली गई और फास्ट ट्रैक संविधान लाने का जुनून हमारे नेताओं पर छा गया । चूँकि गति तेज थी और चालक भी संख्या के मद में मत्त थे इसलिए दुर्घटना अस्वाभाविक नहीं थी । जिस संघीयता के सवाल पर आमलोगों ने लम्बा आन्दोलन अतीत में किया, जिनसे विभिन्न स्तरों पर समझौते भी हुए, उन सब बातों को गौण रखते हुए तथा  देश के प्रचलित विधानों में आमूल–चूल परिवर्तन करते हुए ऐसा मसौदा प्रस्तुत हुआ जिसका विरोध लगभग पूरे राष्ट्र में प्रारम्भ हो गया । वैसे भी नेपाल आध्यात्मिक धरती है और यहाँ की तपोभूमि में ऋषि–मुनियों ने साधनाएँ की हैं, इसलिए किसी अदृश्य शक्ति ने संघीयता और प्रदेशोंं के सीमांकन के बिना जारी किए जानेवाले संविधान की निरर्थकता की प्रेरणा हमारे नेताओं को दी । अब नेपाल की राजनीति ने यू–टर्न लिया और महज कुछ महत्वपूर्ण नेताओं की सहमति और कुछ की जिद की रक्षा करते हुए राज्यों की सीमाओं का निर्धारण किया गया । कहा जा सकता है कि संविधान का मसौदा देश को जलने की सारी परिस्थिति तैयार कर चुका था और सीमांकन ने चिंगारी का काम किया । परिणाम यह हुआ कि अब लोग जल रहे हैं । इन जलनेवालों में पापी कौन और पुण्यात्मा कौन—इसका निर्धारण तो समय करेगा । लेकिन इतना तो कहा जा ही जा सकता है कि कोई भी मरे लेकिन मरता तो आदमी है और आँसू भी आदमी ही बहा रहा है तथा तथ्यों का अवमूल्यन कर आग में घी डालने का काम भी आदमी के ही द्वारा हो रहा है ।
आज देश जल रहा है लेकिन विडम्बना यह है कि एक ही तरह की समस्या के कारण बवंडर तो पूरे देश में उठा लेकिन किसी की बात सुनी गई और किसी को यथावत स्थिति में छोड़ दिया गया । आज जो हिंसा और दमन का वातावरण है उसकी वास्तविक जमीन यही है । एक वर्ग ऐसा है जो अपने स्वत्व की रक्षा के लिए मर मिटने के लिए तैयार है जबकि दूसरा पक्ष इसे आतंवादी कहकर दमन के मनोविज्ञान से लवरेज है । विडम्बना यह है कि जिम्मेवार पदों और निकायों से इस तरह की आवाजें आ रही हैं और ऐसी आवाजें समस्या को और अधिक उलझा रही है तथा आन्दोलित पक्षों का अपमान भी कर रही है । एक बात तो तय है कि प्रजातन्त्र की पुर्नबहाली के बाद लोगों की जागरुकता भी बढ़ी है और अपने अधिकारों के प्रति चेतना के भाव का भी विस्तार हुआ है लेकिन हमारे राजनैतिक दल और इसके नेता आज से पचास वर्ष पूर्व के मनोविज्ञान से ग्रसित हैं । इनकी माँगों को वे किसी न किसी रूप में अपने स्वत्व पर आघात समझते हैं । लेकिन इस आन्दोलन का मिजाज देखकर एक बात तो साफ हो चुकी है कि शब्दों की बाजीगरी से अब काम नहीं चलने वाला, निदान के राजमार्ग पर तो उन्हें आना ही होगा ।
न जाने कब हमारे देश के राजनीतिज्ञों को इस बात की समझ आएगी कि जब–जब हम उपेक्षा और दमन के द्वारा आवाज को बन्द करने का प्रयास करते हैं तो हिंसा की शुरुआत वहीं से होती है क्योंकि जब तक आदमी स्वयं को कमजोर और असहाय समझता है तब तक तो वह बर्दाश्त करता है लेकिन जिस दिन उसका आत्मबल सहनशीलता के इस लबादे को फेंकने के लिए प्रेरित करता है, उस दिन वह मरने–मारने के लिए उतारू हो जाता है । हिंसा सिर्फ बन्दूक की गोलियों से ही नहीं निकलती बल्कि वह जनभावना की उपेक्षा और अपमान के मनोविज्ञान से भी निकलती है । दोनों के पक्ष अलग हो सकते हैं मगर स्वरूप एक ही होता है । आज हमारे देश में लोकतंत्र के पक्ष में लंबी–चौड़ी बातें की जाती है लेकिन लोकतांत्रिक संस्कारों को जब तक हमारी राजनीति नहीं अपनाएगी तब तक संघर्ष किसी न किसी रूप में और किसी न किसी जगह जारी रहेगा और शांति सुव्यवस्था की बात हमारे लिए दिवास्वप्न ही बनकर रह जाएगी । अवस्था यह है कि लोग सदियों से विभेद की पीड़ा से पीडि़त हैं, आवाज उठाने पर देशद्रोही होने के अपमान को निरन्तर झेल रहे हैं । इसलिए समान अवसर और सम्मान का वातावरण जब तक नहीं बनता तब तक इस आन्दोलन को असान्दर्भिक नहीं ठहराया जा सकता ।
आज लगभग सम्पूर्ण तराई में चल रहे आन्दोलन का एक सकारात्मक पक्ष यह उभरकर सामने आया है कि हमारी राजनीति ने थारू समुदाय को एक तरह से दिग्भ्रमित कर दिया था और उनके मस्तिष्क में कहीं न कहीं यह बात भर दी थी कि मधेश में रहते हुए भी वे मधेशी नहीं और उनके हित मधेशियों के हितों से मेल नहीं खाते । इसका नेतृत्व भी एक तरह से दिग्भ्रमित रहा और राष्ट्रीय दलों के इशारों पर चलना इनकी फितरत रही । जो थोड़ा ऊँचे उठे, सत्ता के गलियारे में घूमना उनकी प्रवृत्ति रही । नेतृत्व की दृष्टि से मधेशी दलों को भी बहुत गतिशील नहीं माना जा सकता, अवसर की साधना इनकी भी प्रवृत्ति रही लेकिन एक विशेषता तो इनमें देखी गई कि राज्य को हमेशा इन्होंने शंका की दृष्टि से देखा । एक तरह से इन पर जन दबाब भी था । इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी वे एक तरह से संगठित दिखलाई देते हैं । चाहे इस देश के थारू हो या मधेशी, उन्हें इस बात को भलीभाँति समझना चाहिए कि ‘मधेशी’ न तो कोई जाति है और न कोई समुदाय तथा न कोई धर्म ही । वास्तव में यह तो वह हथियार है जिसका प्रयोग कभी तराई में रहने वाली पारम्परिक निवासियों को सम्बोधित करने के लिए शासकों द्वारा किया जाता था और केन्द्र तथा उससे जुड़ी संवेदना इसे अपमानित करने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग करती थी । इसलिए इसकी सीमा में वे सारे लोग समाविष्ट हो सकते हैं जो परम्परागत रूप से इस क्षेत्र में निवास करते हैं । विभिन्न पार्टियों के चश्मे से नेपाल को देखने और समझनेवाले अनेक मुसलमान भाई भी हैं जो स्वयं को मधेशी कहने में अपमान महसूस करते हैं । मधेशी समुदाय में भी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों से जुड़े अनेक ऐसे लोग हैं जो दलों की दृष्टि से मधेश को देखते और समझते हैं । टीकापुर की घटना उन सब लोगों के लिए सबक हो सकती है जिनकी वैचारिक चादर तो व्यापक है और जमीन भीतर से खोखली । तराई में चल रहे वर्तमान आन्दोलन ने इतना तो जरूर किया है कि मधेशी और थारू को एक भावभूमि पर खड़ा कर दिया है और आन्दोलन को एक सशक्त दिशा दी है । इसने यह भी सिद्ध कर दिया है आप चाहे कितना भी उदार और सहिष्णु क्यों बन जाएँ, शासकों के मनोविज्ञान में आपके प्रति कोई खास परिवर्तन नहीं आया है ।
आज कैलाली की घटना को लेकर संचार माध्यमों में हाय–तौबा मचाया जा रहा है । निश्चित ही प्रहरियों की बर्बरतापूर्ण हत्या की जो खबरें आ रही हैं उसे किसी रूप में मानवीय और उचित नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इसकी पृष्ठभूमि पर विचार किए बिना किसी तथ्य तक नहीं पहुँचा जा सकता । बसन्त बस्नेत ने कान्तिपुर में प्रकाशित अपने आलेख में (१० भाद्र) यह स्पष्ट किया है शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर लगभग दो सप्ताह से सरकारी दमन हो रहा था । संघीयता को अन्तिम निष्कर्ष तक पहुँचाने के समय नेताओं को अखण्ड का भूत सवार था । यही निर्दोष सुरक्षाकर्मियों का निहत्था नागरिकों के शिकार का कारण बना । यह तो समझा जा सकता है कि पारम्परिक हथियारों से लोग जब प्रहरी से लड़ने के लिए तैयार हो गए तो उनका मनोविज्ञान क्या रहा होगा ? दूसरा पक्ष्। यह भी है कि थारू जैसी जनजाति जो स्पष्ट रूप से विभिन्न रूपों में सामाजिक शोषण का शिकार होते हैं और जिनका सीधापन पूरे देश में ख्यात है, ऐसे लोग विरोध तथा विद्रोह को यह रूप दे सकते हैं तो समझना चाहिए कि शासन के प्रति उनका आक्रोश कितना गहरा था ?
आज तराई मधेश में शासन या सत्ता के प्रति जो आक्रोश देखा जा रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कि जब भी मधेश राज्य से अपने अधिकारों की बात करता है और अपना सम्मान ढूँढता है तो उस पर देशद्रोही होने का आरोप लगता है । अपनी पहचान और परम्परा की रक्षा के लिए जब कभी वह भाषा और वेश–भूषा की बात करता है तो उसे संवेदनात्मक स्तर पर दूसरे देश के सीमावर्ती राज्यों के करीब माना जाता है । एक तरह से इसे संगठित अपमान का ही पर्याय माना जाना चाहिए । राज्य की माँग जो आज फिर प्रबल रूप में उठी है उसके भीतर किसी न किसी रूप में इसी अपमान की छाया से निकलने का प्रयास है । हाँ, यह सच है कि विभिन्न स्तरों पर यदा–कदा विखण्डन की बात भी उठती है लेकिन इस तरह की बात तो अभी तक उस जिद की प्रतिक्रिया मात्र है जिसके तहत शासन और इसके केन्द्र से जुड़े लोग इस क्षेत्र की समस्या और माँगों का अवमूल्यन करते हैं । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि सी.के. राउत जैसे लोग जो स्पष्ट रूप में तराई–मधेश के अलगाव की बात करते हैं, उन्हें मधेश में अब तक व्यापक जनसमर्थन नहीं मिला है लेकिन यह भी सच है कि अगर इस क्षेत्र की राजनैतिक समस्या का राजनैतिक रूप से सम्यक् समाधान नहीं मिला तो राउत के समर्थन में लोगों की संख्या बढ़ सकती है । वे कितना सफल होंगे और कितना असफल यह भविष्य की बात है लेकिन इतना तो माना ही जा सकता है कि देश में द्वन्द्व और अशांति बढ़ेगी जो किसी भी रूप में एक विकासोन्मुख देश के लिए विधायी नहीं होगा । इस बात को अनेक तटस्थ राजनैतिक विश्लेषक और बुद्धिजीवी भी मानते हैं चाहे वह पहाड़ का हो या मधेश का । इसलिए आज के सन्दर्भों में संघीयता को राष्ट्र के हितों के लिए संजीवनी मानी जानी चाहिए ।
राजनैतिक रूप से देश के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह घटित हुई कि माओवादियों द्वारा जनयुद्ध के समय देश की हर छोटी बड़ी जातियों को सघीयता का सपना दिखलाया गया जिसके अनुसार देश में १३ प्रदेशों की परिकल्पना साकार हो सकती थी लेकिन जब संघीय नेपाल का स्वरूप चार दलों की सहमति से सामने निकलकर आया तो वह छः राज्यों में विभाजित था । एक तरह से माओवादी ही अपने एजेण्डे से पीछे दिखलाई देने लगे । यह सच है कि सपना उन्होंने दिखलाया था लेकिन इस सपने को साकार रूप देने पर राष्ट्र के समक्ष उत्पन्न होने वाली समस्याओं के प्रति वे जनता को सुशिक्षित नहीं कर पाए । विभिन्न जातियों को मिलकर साथ रहने के लिए न तो वे प्रेरित कर सके और न ही नेपाली काँग्रेस और एमाले जैसी पार्टियों ने ही इस तरह का कोई प्रयास किया । स्व्यम्भू की तरह इन्होंने देश के समक्ष सिर्फ अपना निर्णय दिया । अतः जो अस्थिरता उत्पन्न हुई इसका जिम्मेवार इन तीनों दलों को ही माना जा सकता है । इसका सबसे बड़ा कारक तत्व विजेता का वह मनोविज्ञान है जो उन्हें विगत संविधान सभा का चुनाव ने दिया है । एक तरह से इस चुनाव का परिणाम सत्ता का नेतृत्व कर रहे दोनों ही दलों को पीडि़त–उपेक्षित समुदायों से संवादहीनता की स्थिति में ला खड़ा किया । आज जो समस्या दिखलाई दे रही है उसके मूल में एक ओर तो संविधान जारी करने के लिए फास्ट ट्रैक की गति और संघीयता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर गृहकार्य का अभाव देखा जा सकता है ।
आज आन्दोलन जारी है । राज्य और आन्दोलनमार्गियों के बीच चूहे–बिल्ली का खेल भी जारी है । लेकिन समझौते तो होने हैं और होंगे क्योंकि राज्य भी इस बात को समझता है कि दमन कोई समाधान नहीं । लेकिन समझौते अगर इस मनोविज्ञान से होते हैं कि समय के साथ यह भी पानी की तरह बह जाएँगे तो इसका कोई अर्थ नहीं और विगत के समझौंतों का हस्र भी एक तरह से ऐसा ही हुआ है । यह हिमालय और पहाड़ों का देश है, इसलिए प्रकृति से भी हमें कुछ सीखना चाहिए और अटलता पर भरोसा करना चाहिए । इस बात को अब भलीभाँति समझनी चाहिए कि कुतर्कों का आज के सन्दर्भों में कोई अर्थ नहीं । इसलिए इस पर कोई भी पक्ष अगर भरोसा करता है तो मानना चाहिए कि देश क भविष्य को वह कुण्ठित कर रहा है । सरकार को इस बात की ग्यारेण्टी देनी ही चाहिए कि हर नागरिक को देश में अवसर की समानता मिलनी चाहिए, उसकी पहचान को सम्मान मिलना चाहिए । जब तक राज्य इस बात को समझ नहीं लेता संघर्ष किसी न किसी रूप में जारी रहेगा । यह सच है कि लड़ना कोई नहीं चाहता मगर हमेशा संघर्ष से भागना कायरता होती है और देश के सदियों से शोषित उपेक्षित समुदाय आज कायरता के इस लिबास को फेंकना चाह रहा है । इसलिए राज्य को भी इस बात को समझना चाहिए अन्यथा देश तो कराहता ही रहेगा और हमारे राजनेता सत्ता शीर्ष पर बैठकर प्रलाप करते रहेंगे ।

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