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रंग-बिरंगी होली

हिंदुओं की होली में मुसलमानों के रंग
रंगों के त्योहार होली पर राजस्थान में मुसलमानों की मनिहार बिरादरी के दस्तकार राजे-महाराजों को लाख के गुलाल गोटे उपलब्ध कराते रहे हैं। गोटे एक गोलाकार डिब्बी होती है जिसे लाख से बनाया जाता है और इसमें रंग-गुलाल भरा जाता है। इसे फेंक कर भी रंग उडÞेला जाए तो जिसे लगे, उसे कोई चोट नहीं लगती। गोटे बनाने के काम में हालाँकि अब मुनाफा नहीं रह गया है लेकिन ये दस्तकार सैकडÞों साल पुरानी परंपरा अब भी जींदा रखे हुए है।
इन्हें इस हिंदू त्योहार पर अपने हिंदू भाई-बहनों को गोटे में रंग और गुलाल मुहैया कराने पर सुकून मिलता है। होली पर हर तरफ रंगों की बरसात और बौछार के बीच रंग-पिचकारी ने आधुनिकता का बाना पहना है लेकिन सिद्धहस्त शिल्पी आवाज मोहम्मद के हाथ गुलाल गोटे बनाने में जुटे हैं। उनके पुरखे सदियों तक राजे-महाराजाओं की होली मे अपने हुनर के रंग भरते रहे हैं।
जलती होली, निकलता पंडा

खूब खेलेंगे
हिन्दू के इस महान् पर्व को हम बेहतर ढंग से मनाते है। रंग, अबीर गीत, नाच, उल्लास पर्ूवक अपने दोस्तो के साथ होली मनाते हैं। इस बार भी खूब होली खेलेंगे। इस अवसर पर सभी नेपाली को हमारी ओर से हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएं।
(सोमराज थापा
इन्सेक के पर्ूवाञ्चल प्रतिनिधि
)

मथुरा से ५४ किलोमीटर दूर कोसी शेरगढÞ मार्ग पर फालैन गाँव है जहाँ एक अनूठी होली होती है। यहाँ भक्त प्रह्लाद का एक प्राचीन मंदिर है और एक प्रह्लाद कुंड भी है। होलिका दहन के दिन गाँव का एक पंडा प्रह्लाद कुंड में स्नान करके गाँव की चौक में लगाई गई विशाल होली की जलती लपटों के भीतर छलांग लगाकर उससे बाहर निकलता है। यह पंडा होली से पर्ूव गाँव के प्रह्लाद मंदिर में पूजा करता है और फिर प्रह्लाद कुंड में स्नान करता है।
इसके बाद जलती होली में पैर रखकर बडÞी शीघ्रता से होली से निकल जाता है। इसमें पंडा को लगभग एक से डेढÞ मिनट का समय लगता है। इस दृश्य को देखने के लिए बडÞी संख्या में लोग जमा होते हैं। पिछले कई वषर्ाें से फालैन गाँव का सुशील नामक पंडा इस होली में से निकलता है। गाँव के लोगों के अनुसार वषर्ाें से यह परंपरा चली आ रही है। ऐसा नहीं कि यह करतब कोई एक ही शख्स ही दिखाता हो। जब कोई पंडा जलती होली में से निकलने में अर्समर्थता व्यक्त करता है तो वह अपनी पूजा करने वाली माला को मंदिर में रख देता है। इसके बाद गाँव का जो व्यक्ति उसे उठा लेता है वह जलती होली में से निकलता है।
होली की धूम

नए सिरे से
जीवन का प्रारम्भ
होली रंगो का त्यौहार है, जिस में लोग अपनी खुशी और सुखःदुख बाँटते हैं। इस त्यौहार में सब रंगों में घुल जाते है लेकिन अब आ कर, होली के वास्तविक अर्थ न जानते हुए, इस में विकृतियां दिखने लगी है। इस को शिक्षा और समझदारी के द्वारा हटाया जा सकता है। होली एक नए सिरे से जीवन प्रारम्भ करने का भी त्यौहार है। होली रंगो और जीवन में भी रंग घोल देता है। इन सब को समन्वय करके हमें सद्भाव के साथ चलना चाहिए और होली मनाना चाहिए।
एस.पी. सिंह
प्रमुख, पेन्टागन कलेज

प्रहलाद के मेले के नाम से प्रसिद्ध फालैन गाँव की इस होली में आसपास बडÞा नगाडÞा बजाती हर्ुइ चोपल मंडलियाँ आती हैं और रात भर होली के रसिया गाँव में गूंजते रहते हैं। फालैन में इस दिन मेला सा लगा रहता है। देश-विदेश से आने वाले दर्शक हों या स्थानीय लोग सभी इस दृश्य को देखने के लिए सांस साधे बैठे रहते हैं। फालैन की इस अनूठी होली में पंडे के निकलने का कोई निश्चित समय नहीं होता है। यह रात्रि में किसी भी समय होली से निकलता है।

रंग में घुलें और दुःख को भूलें
होली खूब धूमधाम और खुशियों के साथ मनाता हूँ लेकिन इसके सांस्कृतिक पक्ष के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता। यह एक मनोरञ्जन से परिपर्ूण्ा रंग का पर्व है, जहाँ सब लोग अपने दुःख को भुलाकर होली के रंग में रंग जाते हैं। यह बडÞी खुशी की बात है कि आदमी एक दिन के लिए ही सही अपने आप को बहुत खुश और हल्का महसूस करता है।
मुझे लगता है कि नेपाल ऐसा देश है, जहाँ हर हादमी के चेहरे पर खुशी नहीं दिखाइ पडÞती। उनके चेहरे में खुशी लाने के लिए कोई बहाना ढूढÞना पडÞता है। होली ही ऐसा पर्व है, जहाँ सालभर के दुःखी लोग रंग के साथ खुश हो जाते है। इसीलिए मैं भी कहता हूँ कि अगर किसी के दिल में कुछ वैमनस्यता, वैराग्य, दुःख और नैराश्य हो तो इन सभी को भुलाकर कुछ समय के लिए रंग के साथ होली में घूल जाओ और कुछ क्षण के लिए ही सही सारे दुःख को भूल जाओ।
शिव गाउ“ले
अध्यक्ष, नेपाल पत्रकार महासंघ

इस दृश्य को कैमरे में कैद करने के लिए विदेशी पर्यटकों की टोली भी होली से पर्ूव इस गाँव में आ जाती है। जलती होली से निकलने वाले पंडा सुशील ने बताया कि होलिका दहन से आठ दिन पहले से वह अन्न का त्याग कर देता है और वह इसे भगवान की कृपा मानता है। लेकिन वह इसमें किसी करतब से साफ इनकार करता है। विशाल जलती होली से जिस समय पंडा निकलता है उस समय उस होली के आसपास खडÞे रहना भी संभव नहीं होता है। लेकिन पंडा इस विशाल जलती होली से सकुशल निकल जाता है।
राजस्थान में तमाशे से मनती है होली
भारत के जयपुर में होली के अवसर पर पारंपरिक तमाशा अब भी होता है लेकिन र्ढाई सौ साल पुरानी इस विद्या को देखने के लिए अब उतने दर्शक नहीं आते जितने पहले आते थे। पर कलाकारों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। तमाशे में किसी नुक्कडÞ नाटक की शैली में मंच सज्जा के साथ कलाकार आते हैं और अपने पारंपरिक हुनर का पर््रदर्शन करते हैं। तमाशा की विषय वस्तु पौराणिक कहानियों और चरित्रों के र्इदगिर्द तो घूमती ही है लेकिन इन चरित्रों के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर भी चुटकी ली जाती है। कभी राजा-महाराजा और सेठ साहूकार खुद इस तमाशे को देखने आया करते थे। लेकिन अब राजनीति में रमे देश के नीति निर्माताओं को समय नहीं है ऐसे आयोजनों को देखने का। तमाशा शैली के वयोवृद्ध कलाकार गोपी जी मल तो इस बात से ही खुश हैं कि उनकी यह विरासत पीढÞी दर पीढÞी अभी चली आ रही है।
वे याद करते हुए बताते हैं कि रियासत काल में जयपुर के राजा मान सिंह खुद कलाकारों का मनोबल बढÞाने के लिए तमाशा देखने आते थे। लेकिन अब इस कला को सरकार की तरफ से कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। मल परिवार की छठी पीढÞी अपने पुरखों की इस परंपरा को जारी रखे हुए है।
परंपरा
तमाशा एक ऐसी विद्या है जिसमें शास्त्रीय संगीत, अभिनय और नृत्य सभी कुछ होता है। तमाशा सम-सामयिक राजनीति पर टिप्पणी करता है। तमाशा कलाकार जगदीश मल कहते हैं, ‘राजनीति और तमाशे में ज्यादा अंतर नहीं है। आज के दौर में भला कौन तमाशा नहीं करता।’
‘हम बतौर कलाकार लोगों को सच्चाई से अवगत कराने की कोशिश करते हैं। आमतौर पर तमाशा हीर-राँझा और पौराणिक पात्रों के जरिए अपना बात कहता है। इसमें राग जौनपुरी और दरबारी जैसे शास्त्रीय गायन शैलियों को भी शामिल किया जाता है। इसके आयोजन का खर्च मल परिवार के सदस्य खुद वहन करते हैं। जयपुर के इस पारंपरिक तमाशे पर अब पहले जैसी भीडÞ नहीं उमडÞती। अब तो रथ यात्रा, रोड शो, रैली और चुनावी राजनीति के मंच पर नित नए नाटक हो रहे हैं। ऐसे में कौन देखेगा इन कलाकारों के तमाशे को क्योंकि राजनीति तो खुद ही एक ‘तमाशा’ बन गई है।
मुगलों की होली
सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ रंग खेलना अपने आपमें उस समाज की कई कहानियाँ कहता है। अकबर के बाद जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का जिक्र मिलता है। शाहजहाँ के जमाने तक तो होली खेलने का मुगलिया अंदाज ही बदल गया था। इतिहास में दर्ज है कि शाहजहाँ के जमाने में होली कोर् इद-ए-गुलाबी कहा जाता था या आब-ए-पाशी यानी रंगों की बौछार कहा जाता था। आखीरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर तो होली के दीवाने ही थे। उनके लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं।
‘ुक्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी, देखो कुँअर जी दूंगी गारी’ लिखने वाले बहादुर शाह जफर के बारे में मशहूर है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मेवाडÞ की चित्रकारी में दर्ज है कि महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे। राजस्थान के किलों और महलों में खेले जाने वाली होली के रंग तो पूरी दुनिया में मशहूर रहे हैं। वरना बिल क्लिंटन की बिटिया अमरीकी राष्ट्रपति का आवास छोडÞकर होली खेलने राजस्थान आती भला –
बंगाल में होली यानी दोल उत्सव
कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, वो बाकी देश कल सोचता है। कम से कम एक त्यौहार होली के मामले में भी यही कहावत चरितार्थ होती है। यहाँ देश के बाकी हिस्सों के मुकाबले, एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है। राज्य में इस त्यौहार को ‘दोल उत्सव’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन महिलाएँ लाल किनारी वाली सफेद साडÞी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात-फेरी -सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं। इसमें गाजे-बाजे के साथ, कर्ीतन और गीत गाए जाते हैं। दोल शब्द का मतलब झूला होता है। झूले पर राधा-कृष्ण की मर्ूर्ति रख कर महिलाएँ भक्ति गीत गाती हैं और उनकी पूजा करती हैं। इस दिन अबीर और रंगों से होली खेली जाती है, हालांकि समय के साथ यहाँ होली मनाने का तरीका भी बदला है।
कुमाऊं में होती है बैठक होली
उत्तरांचल के कुमाऊं मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोडÞा जिले में तो नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं। इस रंग में सिर्फअबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खडÞी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है। शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है। बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के र्इद गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है।
रंग डारी दियो हो अलबेलिन में !
गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए !
गए लछमन रंग लेने को गए !
रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें !
रंग डारी दियो हो बहुरानिन में !
यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है।
जब फागुन रंग झमकते हों !
तब देख बहारें होली की
घुंघरू के तार खनकते हों !
तब देख बहारें होली की !
बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोडÞी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है। होली की ये रिवायत महज महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है। ये भी कम दिलचस्प नहीं कि जब होली की ये बैठकें खत्म होती हैं-आर्शीवाद के साथ। और आखिर में गायी जाती है ये ठुमरी।
मुबारक हो मंजरी फूलों भरी !! ऐसी होली खेले जनाब अली !!
बैठ होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं। इन में उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं। इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मजाक से जुडÞे रहते हैं जैसे ! फागुन में बुढवा देवर लागे !! होली गाने की ये परंपरा सिर्फकुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है। इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हर्ुइ इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठ होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भाें और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहर्राई से अध्ययन किया है।
वो कहते हैं कि ‘यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है। राजे-रजवाडÞों का सर्ंदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं। ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं। यहां की बैठकी होली में तो आजादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के सर्ंदर्भ भरे पडÞे हैं।
अनोखी होली
होली रंगों का पर्व है, कई रंग मिलकर होली को ‘रंगोत्सव’ का नाम देते है। होली में जितने रंग उतने ही ढंग से इसे मनाया जाता है। ऐसा लगता है कि अलग अलग जगहों पर जाकर होली खुद को अलग रंगों में सरोबोर कर लेती है। कई ऐसे लोक प्रदेश है जहां की होली को एक खेलते हुए एक बार देख भी लिया जाये तो होली की स्मृतियां सारी उम्र साथ रहें। सिर्फब्रज में ही होली के कई रुप देखने में आते है।
वृंदावन की होली
यहां की होली भूलाये नहीं भूलती। वृंदावन में एकादशी के साथ ही होली प्रारम्भ हो जाती है। एकादशी के दूसरे दिन से ही कृ्ष्ण और राधा से जुडे सभी मंदिरों में होली का आयोजन प्रारम्भ हो जाता है। एकादशी के दूसरे दिन लÝमार और फूलों की होली खेली जाती है। फूलों की होली में ढेर सारे फूल एकत्रित कर एक दूसरे पर फेंका जाता है। साथ ही राधे- राधे की गूंज के बीच आसमान से होली पर बरसते पुष्पों का नजारा द्वापर युग का स्मरण करा देता है।
वृंदावन में बांके बिहारी जी की मर्ूर्ति को मंदिर से बाहर रख दिया जाता है। मानो बिहारी जी होली खेलने स्वयं ही आ रहे हो, यहां की होली सात दिनों तक चलती है। सबसे पहले फूलों से, गुलाल से, सूखे रंगों से, गीले रंगों से सबको अपने रंग में डूबों देने वाली होली। वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर की होली की छटा अनोखी होती है। अपने आराध्य के साथ होली खेलने के लिए लोग कई घंटों तक लाईन में लगे रहते है।
बरसाने की लठमार होली
बरसाने की होली इसलिये भी प्रसिद्ध है, क्योकि श्री कृ्ष्ण की प्रेमिका राधा बरसाने की थी। और होली और श्री कृष्ण का संबन्ध बहुत पुराना है। इसलिये होली की बात हो, और कान्हा का नाम न आये, ऐसा कैसे हो सकता है यह होली विदेशों तक प्रसिद्ध है। बरसाने की लठमार होली जिसमें गुजरियों के लÝों से पुरुष बचने का प्रयास करते है। लठमार होली खेलने से पहले इन पुरुषों को खिलाया-पिलाया जाता है, इनकी सेवा की जाती है। फिर इन पर लÝों से प्रहार किया जाता है, सर पर पगडी बांधे, हाथ में थाल नुमा ढाल से अपने को बचाते ये, अपने पर होने वाले लÝों के मार से बचाते है। ढÞाल और लठों के इस खेल में यह ध्यान रखा जाता है कि कहीं इनको चोट न लग जायें, ऐसी होती है। बरसाने की लठमार होली। साथ ही किसी अप्रिय हादसे से बचने के लिए बडÞे मैदान में होली का आयोजन किया जाता है। यहां पर होली का मजा पूरे एक हफ्ते तक लिया जा सकता है। बरसाने की इस लÝ्मार होली में लोग नाचते और ठिठोली करते नजर आते है। साथ ही लगती है-‘श्री राधे-राधे की जय-जयकार’, जिसमें उत्साह और जोश से होली की मस्ती भरी होती है। सभी एक दूसरे पर खूब रंग डालते हैं। इस पानी की एक बूंद पाने के लिये कृष्ण श्रद्धालुओं में होड लग जाती है।
मथुरा की होली
बरसाने की लÝमार होली के बाद मथुरा की बलदेव -दाऊजी) में होली खेली जाती है। कपडे के कोडे बनाकर ग्वालबालों पर गोपियां वार करती है। ब्रज धाम की असली होली का मजा यहीं लिया जा सकता है। यहां स्थित हर राधा कृष्ण के मंदिर में अलग-अलग दिन होली हषर्ाेल्लास के साथ मनाई जाती है। फूलों की होली और नृत्य का मनोरम दृश्य पेश करते हैं। वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर की होली की छटा अनोखी होती है।
बीकानेर की होली
बीकानेर में एक अनोखे ढंग से होली खेली जाती है। बीकानेर में एक जगह पर ‘डोलची होली’ खेली जाती है। डोलची चमडे के बर्तन को कहते है, जिसमें पानी भर कर पीठ पर लाद कर पानी ढोने के काम में लिया जाता है। यह होली बीकानेर के हर्शा चौक पर आयोजित की जाती है। इस होली को देखने के लिये हजारों की तादाद में लोग यहां आते है। बीकानेर की इस होली को खेलने के लिये डोलची में रंगीन पानी के साथ साथ स्नेह का गुलाल भी मिलाया जाता है। इसके बाद स्त्रियां इसे भर कर पुरुषों की पीठ पर जोर से मारती है। मार की गूंज दूर तक जाती है। होली की इस परम्परा का इतिहास करीब चार सौ साल पुराना है।
इसके अलावा होली के अवसर पर बीकानेर में स्वांग रचे जाते हैं। अर्थात स्वांग करते लोग आपको यहां जगह- जगह देखने को मिल जायेगें। यह स्वांग का आयोजन आठ दिनों तक चलता है।
कोई भगवान भोले नाथ बना बैठा है, तो किसी ने विष्णु जी का रुप लिया हुआ है।
पंजाब की होली
पंजाब में आनंदपुर साहब में होली मोहल्ला प्रसिद्ध है। इसे राम की होली, कृ्ष्ण की होली, राधा की होली और बनारस में भगवान शिव की होली कही जाती है। पंजाब में होली के अवसर पर होली मोहल्ला आयोजित किया जाता है।
बनारस की होली
बनारस में एकादशी तिथि के दिन से ही अबीर-गुलाल हवा में लहराने लगते है। इस दौरान जगह- जगह पर होली मिलन समारोहों की धूम होती है। जहां गुलाल लगा सभी एक -दूसरे से गले मिलते है। बनारस की होली पर अभी तक समय की धूल नहीं चढÞी है। युवकों की टोलियां फाग के गीत गाती, ढोल, नगाडों की थाप पर नाचती नजर आती है।
यहां की होली की परंम्परा के अनुसार बारात निकाली जाती है। जिसमें दुल्हा रथ पर सवार होकर आता है। बारात के आगमन पर दुल्हे का परम्परागत ढंग से स्वागत किया जाता है। मंडप सजाया जाता है। सजी धजी दुल्हन आती है। मंडप में दुल्हा दुल्हन की बहस होने के साथ बारात को बिना दुल्हन के ही लौटना पडता है। इस प्रकार यहां एक अलग तरीके से होली मनाई जाती है।

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