नेपाल से जुडी बचपन की वो
अमिताभ
भारत औरनेपाल, सुनने मे दो अलग-अलग शब्द लगते हैं और हैं भी दो अलग-अलग दे श । एक का मैं निवासी हूँ, एक के हैं इस पत्रिका को पढने वाले आप सभी लो ग, ले किन इसके साथ ही यह बात भी उतनी ही सही है कि इन दो नों दे शों की आत्मा एँ आपस मं शताब्दियों से इतनी नज दीक से मिली हरुइ है कि दुनियाँ में उसके बहुत कम उदाहरण मिलेंगे ।
मैं खास कर के यह बात कहने का हकदार इसी से हूँ क्योंकि मे रा स् वयं का जन्मस् थान बिलुकल ने पाल सीमा पर है । बिहार के सीतामाढी जिले के सुर संड के पास एक छो टा सा गाँव है बखर ी । मै ं वहीं का मूल निवासी हूँ । हमार े गाँव से मुश्किल से आठ-दस किलो मिटर पर भिट्ठामो डÞ है औ र उससे कुछ किलो मीटर की दूर ी पर जनकपुर जनकपुर वह स् थान जहाँ लो कश्रुति के अनुसार र ाजा जनक की र ाजधानी थी ओ र सीतामढÞी वह जिला जहाँ सीता माता के घडÞे मे ं मिलने की बात कही जाती है । मुझे याद है मै ं बचपन मे ं ना जाने कित नी ही बार जनकपुर गया हो ऊंगा । इन सार ी यात्राओ ं मे ं हम बच्चो ं के लिए जो सबसे महत्वपर्ूण्ा आकर्षा हो ता था वह था को का को ला औ र फै ंटा पीना । जी हाँ, मै ं जिस समय की बात बता र हा हूँ, उस समय दुनियाँ मे ं मुक्त बजार की अवधार णा नहीं आई थी औ र भार त मे ं तो आयात-निर्यात पर कई प्रकार की बंदिशे ं थी, जिसके कार ण बहुत सार ी विदे शी वस् तुएँ भार त मे ं नहीं मिला कर ती थी ।
यह वह जमाना था, जब भार त मे ं इम्पो र्टर्े ड मालो ं का जो र था, ओ र इनके प्रति भयानक क्रे ज भी । मै ं खुद याद कर पा र हा हूँ कि मे र ी माँ औ र घर की बाँकी महिल ाएँ किस तर ह से ने पाल मे ं जा कर इन इम्पो र्टर्े ड सामानो ं को खर ीदने को बार ी र हा कर ती थी । हम लो ग बो कार ो मे ं र हा कर ते थे जो अब झार खण्ड र ाज्य मे ं आ गया है औ र उस समय बिहार मे ं था । गर्मी की छुट्टी मे ं हम अनिवार्यतया बखर ी जाते औ र उसी अनिवार्यता से हम लो ग जनकपुर भी जाया कर ते । इस तर ह साल मे ं एक बार जनकपुर औ र इम्पो र्टर्े ड सामान औ र को का को ला हम लो गो ं के जीवन का एक क्रम सा बन गया था ।
मुझे इसके अलावा यह परि स् िथ तियाँ औ र वे तमाम घटनाएँ भी याद है ं, जिनसे मे र े माँ-पिता औ र अन्य परि जन इन साम ानो ं मे ं साल-साल गुजार ा कर ते थे । उस समय ने पाल से सामान लाना बै न था क्यो ंकि सामान पर सीमा शुल्क -कस् टम ड् यूटी) दे ना हो ता था । मै ं उस समय के र े ट तो नहीं जनता पर यह समझता हूँ कि वे र े ट इतने अधिक थे कि यदि कोर् इ आदमी वे कस् टम ड्यूटर्ीर् इमानदार ी से चुकाता तो उसे इन इम्पोर् टे ड सामानो ं को लाने मे ं शायद ही कोर् इ फायदा हो ता । कार ण साफ है कि अब विश्व व्यापार की तमाम नीति याँ औ र र ीतियाँ बदल गई है । अब भार त मे ं लगभग हर विदे शी सामान मिल र हा है । अब कुछ भी ऐ सा इम्पो र्टर्े ड नहीं र ह गया है कि हिन्दूस् ता मे ं लो गो ं का इस तर ह के सामानो ं के प्रति आकर्षा लगभग शून्य-प्राय हो गया हे । ले किन उस समय, बाप र े बाप ! इतनी मार ा-मार ी कि पूछिए ही मत औ र फिर उतनी ही सुर क्षा भी, चे किंग भी ।
जै से ही लो ग ने पाल से भिट्ठामो ड आते , बोर् डर पर चे किंग हुआ कर ती । मै ं जहाँ तक समझ पा र हा हूँ, मे र े घर वाले अपने सामानो ं को चुपके से अपने अन्य सामानो ं के बीच मे ं डाले र हते थे । यदि कभी कोर् इ चे किंग के लिए सामान खुलता भी तो कह दे ते कि ये साडी, ये कपडा पहले का है । कभी-कभी बोर् डर पर मौ जूद लो ग मना ले ते , कभी नहीं भी मानते । मान शायद इसलिए ले ते हो ंगे कयो ंकि वे भी आखिर मनुष्य ही थे , उनके भी बाल-बच्चे हुआ कर ते थे , वे लो ग भी इस तर ह से अपनी ड्यूटी के बाद अपने घर -परि वार मे ं जाने के समय साडी-कपडा, सौ र्ंदर्य के सामान, विदे शी से ंट, बढिÞया ताश के पत्ते , विदे शी कै से ट औ र इस तर ह की चीजे ं ले जाया कर ते हो ंगे , ऐ से मे ं वे शायद थो डÞी मात्रा मे ं इस तर ह के सामानो ं को ले जाने पर र ो क नहीं लगाते थे ।
पर फिर भी मे र े घर वालो ं के दिलो ं मे ं इस तर ह के सामनो ं को ले जाने पर र ो क नहीं लगाते थे । पर फिर भी मे र े घर वालो ं के दिलो ं मे ं धुकधुकी तो हो ती ही र हती थी । एक डर तो बना ही र हता था । पहली बात तो भार ी टै क्स चुकाने का डर औ र उससे बढÞ कर पुलिस द्वार ा पकडे जाने , जे ल जाने औ र कोर् ट कचहर ी का डर । ले किन इस डर के बाद भी विदे शी सामानो ं का इतना भयानक आकर्षा हुआ कर ता था कि हर साल इस कठिन परि स् िथति से गुजर ने के बाद भी ये लो ग अगले साल एक बार फिर कुछ साडी, कुछ कपडे खर ीदने से बाज नहीं आते थे , यही हाल ज्यादातर लो गो ं का हो ता हो गा ।
फिर जब मे र े माता-पिता इस तर ह के विदे शी सामान ले कर बो कार ो ं पहुँचते तो उनके चे हर ो ं पर भार ी खुशी हो ती, वे अपने पास-पडÞो स के सार े लो गो ं को ने पाल से लाए चीजो ं को दिखाते औ र वे लो ग इस पर खुश हो ते ।
एक घटना जो चाह कर भी नहीं भूल पा र हा हूँ, वह है र ात मे ं चे किंग के दौ र ान पूछ-ताछ के लिए उस बस को र ो का जाना, जिससे हम लो ग सफर कर र हे थे औ र सीतामढÞी से मुजफ्फर पुर आ र हे थे । दर असल आम तौ र पर हो ता यह था कि एक बार बोर् डर से पार चले आये तो निश्ंिचत हो गए । ले किन उस साल पता नहीं क्या र हा हो गा कि बोर् डर से काफी दूर सीतामढÞी-मुजफ्फर पुर मार्ग पर दे र र ात मे ं पुलिस वाले विदे शी माल -जिसे लो ग आम तौ र पर ने पाली माल भी कहते थे ) की चे किंग कर र हे थे । बस र ो की गई औ र हर यात्री से सामान खुलवा-खुलवा कर दे खा गया । मे रे पिता के भी सामन दे खे गए । मुझे ठीक से तो याद नहीं पर इतना अवश्य है कि उनके पास कुछ साडियाँ औ र विदे शी कपडे थे । पुलिस वाले ने उनको ते ज निगाहो ं से घूर ा, जिसके बाद मे र ी यादाश्त के मुताबिक मे र े पिता ने अपनी जे ब मे ं हाथ डाल कर उस पुलिस वाले को कुछ दिया औ र वह पुलिस वाला संतुष्ट भाव से चला गया ।
आज इतने सालो ं बाद पुलिस की नौ कर ी कर ते समय औ र भार त औ र ने पाल की सीमा पर भी काम कर ते मै ंने यह पाया है कि पुलिस का यह नजरि या औ र उसकी यह कार्यप्रणाली बिलकुल नहीं बदली है , चाहे भार त हो या ने पाल । हाँ जरुर हो गया है कि अब ने पाल आ कर सामान खर ीदने की बात काफी हद तक पुर ानी पडÞ गयी है ।
-ले खकः उत्तर प्रदे श के आईपीएस अधिकार ी, वर्तमान मे ं एसपर्ीर् इओ डब्ल्यू, मे र ठ के रुप मे ं कार्यर त है ं)