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मधेश में मानवाधिकार की स्थिति संतोषजनक नहीं है : दिव्य झा

Dibya Jha1



नेपाली कांग्रेस की सरकार में गृहमन्त्री थे बामदेव गौतम । ४८ से भी ज्यादा मधेशियों की जानें गईं, शहीद हुए, लेकिन प्रतिफल शून्य हुआ । इसके बाद केपी ओली की सरकार बनी, शक्ति बस्नेत गृहमन्त्री थे । आन्दोलन जारी ही था । अश्रु गैस छोड़ी जा रही थी, लाठी चार्ज हो रहा था, गोलियां चल रही थीं । फिर भी मधेशियों का अधिकार सुनिश्चित नहीं हो सका । समग्रतः कहा जा सकता है कि मधेश के मानवाधिकार की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है ।
नेपाल में संविधान जारी होने के बाद भी संक्रमणकालीन अवस्था का अंतः नहीं हुआ है । इस अवस्था में मानवाधिकार की अवस्था हर वक्त निदंनीय व नाजुक ही रहा है, रहेगा भी । जब तक संविधान पूर्ण रुप से जारी नहीं हो जाए, उसकी हरेक धारा सक्रिय नहीं हो जाए, तब तक मानवाधिकार की अवस्था पूर्णतः सही लीक पर आ गया, यह नहीं कहा जा सकता है । खासकर मधेश में मानवाधिकार की अवस्था बहुत नाजुक है । इसकी मूल वजह यह है कि संविधान जारी होने से पूर्व ही मधेशी इस संविधान के पक्ष में नहीं थे । इसके साथ–साथ संविधान में जो अधिकार सुनिश्चित किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया जा रहा है । वे अपने अधिकारों का सुनिश्चित हेतु आन्दोलन में थे । उसी दौरान देश में कफ्र्यु लगाकर, आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर संविधान जारी किया गया । जाहिर है कि जब बच्चे का जन्म ही सही स्थिति में न हो, तो उस बच्चे का स्वास्थ्य कैसे अच्छा रहा सकता है ? यही स्थिति हो गई मधेशियों की ।
अभी भी वे लोग संघर्षरत हैं । फिर भी उन लोगों का अधिकार सुनिश्चित नहीं हुआ है । जबकि वही अधिकार मानवाधिकार होता है, जिसे हम नागरिक अधिकार और व्यक्ति का अधिकार कहते हैं । जो अभी तक सुनिश्चित नहीं हो रहा है । देश में दो–दो बार सरकारें बदलीं आन्दोलन के दौरान । नेपाली कांग्रेस की सरकार में गृहमन्त्री थे बामदेव गौतम । ४८ से भी ज्यादा मधेशियों की जानें गईं, शहीद हुए, लेकिन प्रतिफल शून्य हुआ । इसके बाद केपी ओली की सरकार बनी, शक्ति बस्नेत गृहमन्त्री थे । आन्दोलन जारी ही था । अश्रु गैस छोड़ी जा रही थी, लाठी चार्ज हो रहा था, गोलियां चल रही थीं । फिर भी मधेशियों का अधिकार सुनिश्चित नहीं हो सका । समग्रतः कहा जा सकता है कि मधेश के मानवाधिकार की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है ।
देश में अभी प्रदेश विभाजन किया जा रहा है । इससे संबंधित मधेशियों का आरंभ से ही एक मुख्य मांग थीं– पहचान सहित की संघीयता और संघीयता सहित का संविधान । संघीयता सहित का संविधान तो आ गया, परन्तु पहचान सहित का संविधान अभी तक नहीं आया है । जाहिर है कि जब तक पहचान सहित का संविधान सुनिश्चित नहीं होगा, तब तक मधेशियों का स्पष्ट पहचान नहीं हो सकेगा । पहचान ही सुनिश्चित न हो, तो मानवाधिकार के संरक्षण करने का सवाल ही नहीं उठता है । इसलिए जरुरी है कि सबसे पहले मधेशियों की पहचान सुनिश्चित हो । इसी प्रकार विगत में जो गोलियों चलीं, लाठियां चले, लोग घायल हुए, विकलांग हुए, शहादतें दी वो व्यर्थ न जाए, क्योंकि वो शहादत सिर्फ मधेशियों की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण नेपाल की हुई है, इस बात को जब एक खास समुदाय, एक खास जाति विशेष समझेंगे, तभी मधेश में मानवाधिकार की प्रत्याभूति होने की स्थिति आएगी ।
नेपाल को अगर जातीय वर्गीकरण के दृष्टिकोण से देखा जाए, तो ३३ प्रतिशत मधेशी, ३३ प्रतिशत खस और ३३ प्रतिशत आदिवासी जनजाति हैं । जाहिर है कि जब तक ये तीनों समुदाय एक नहीं होंगे, तब तक इस देश में न शान्ति आएगी और न ही देश का विकास हो सकेगा । वर्तमान में ३३ प्रतिशत खस जाति के लोग मधेशियों को हिन्दुस्तानी ही समझते हैं । वे अभी भी नेपाली नागरिक मानने को तैयार नहीं हैं । ऐसी स्थिति में मधेश के मानवाधिकार की बात ही नहीं की जा सकती है । अभी भी वहाँ अपराध में न्यूनीकरण नहीं हुआ है, राजनीतिक अपराध पराकाष्ठा में हैं । कुछ दिन पूर्व कपिलवस्तु में हत्या हुई, बुटवल में एक युवा संघ के कार्यकर्ता के ऊपर खुकुरी प्रहार हुआ है । ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि मधेश के मानवाधिकार की अवस्था अच्छी है ? मधेश में मानवाधिकार की अवस्था तब तक अच्छी नहीं होगी, जब तक मधेश की पहचान का समाधान नहीं हो जाता है ।
जहाँ तक मोरचे की मांगों का सवाल है, तो सर्वप्रथम मोरचे की मांगों को उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, अपितु उसे मधेश के आम नागरिक की मांग के तौर पर स्वीकार करनी चाहिए । मेरा कहना ये नहीं है कि मोरचे की सारी मांगें जायज हैं । आयश यह है कि मारेचे की मांगों को दो भागों में वर्गीकरण करके हल किया जा सकता है– अल्पकालीन और दीर्घकालीन रुप में । जो मांगें तत्काल पूरी करनी है, उसे अविलम्ब पूरी करें और दीर्घकालीन मांगों को बारी–बारी से ईमानदारी पूर्वक पूरी करें ।
दूसरी तरफ मधेशियों को दिल से नेपाल के नागरिक स्वीकार किया जाए, सिर्फ वक्तव्य एवं लिखित रुप से ही नहीं । मधेशियों को कांग्रेस, एमाले, माओवादी या मोरचे के वोट बैंक के रुप में न देखें । इसी प्रकार मधेशियों की पहचान का सवाल है, तो मेरे ख्याल से सीमांकन एवं अन्य आधारभूत अधिकार देकर इस समस्या को हल किया जा सकता है । अभी मधेशी आयोग व्यवस्थापन करने हेतु जो विधेयक लाया गया है, उस विधेयक को परिमार्जन कर संवैधानिक आयोग बनाया जाए । तभी मधेश में मानवाधिकार की अवस्था को संरक्षित किया जा सकता है, प्रत्याभूति की जा सकती है ।
(दिव्य झा अधिवक्ता हैं)



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