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दरअसल मन के साथ मस्तिष्क का विशेष संबंध है और शरीर का विनाश हो जाने पर वह नष्ट हो जाता है। आत्मा ही एकमात्र प्रकाशक है। इसलिए उसके हाथ यंत्र के समान हैं और इस यंत्र के माध्यम से आत्मा बाह्य साधन पर अधिकार जमा लेती है। इसी प्रकार प्रत्यक्ष बोध होता है। संस्कृत भाषा में मस्तिष्क के इन सब केंद्रों को इंद्रियां कहते हैं। ये इंद्रियां इन यंत्रों को लेकर मन को अर्पित कर देती हैं। इसके बाद मन इन्हें बुद्धि के निकट लाता है। फिर बुद्धि इन्हें अपने सिंहासन पर विराजमान महिमाशाली आत्मा को प्रदान करती है। आखिर में आत्मा इन्हें देखती है और फिर आवश्यक आदेश देती है। तत्पश्चात मन इन मस्तिष्क केंद्रों यानी इंद्रियों पर कार्य करता है और फिर इंद्रियां स्थूल शरीर पर कार्य करना आरंभ कर देती हैं। मनुष्य की आत्मा ही इन सबकी वास्तविक अनुभवकर्ता, सृष्टा और सब कुछ है। अब सवाल यह उठता है मृत्यु क्या है? दरअसल मृत्यु एक पहलू है और जीवन इसी का दूसरा पहलू है।

मृत्यु का ही एक और नाम है-जीवन और जीवन का एक और नाम है-मृत्यु। अभिव्यक्ति के एक रूप विशेष को हम जीवन कहते हैं और उसी के दूसरे रूप विशेष को मृत्यु। तरंग जब ऊपर की ओर उठती है तो मानो जीवन है और फिर जब वह गिर जाती है तो मृत्यु है। सभी यौगिक पदार्थ नियमों से संचालित होते हैं। नियम के परे यदि कोई वस्तु हो तो वह कदापि यौगिक नहीं हो सकती। चूंकि मनुष्य की आत्मा कार्य, कारण और वाद से परे है, इसलिए वह यौगिक नहीं है। यह सदा मुक्त है और नियमों के अंतर्गत सभी वस्तुओं का नियमन करती है। उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए, क्योंकि विनाश का अर्थ है किसी यौगिक पदार्थ का अपने उपादानों में परिणत हो जाना। जीवन की समस्या की वास्तविक मीमांसा यही है। इसी से वस्तु के स्वरूप की व्याख्या होती है। यही सिद्धि और पूर्णत्व है ।

 साभार दैनिक जागरण

 



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