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बिरगंज मे गुरु पूर्णिमा कार्यक्रम, (फोटोफीचर सहित) धर्मका मार्ग दिखाती है : ज्योतिष दुबे



असार 25 बिरगंज , गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आज बिरगंज के स्कुल और कालेज मे मनाया गया। बिद्यार्थी ने अपने गुरु के सम्मान सांस्कृतिक कार्यक्रम,मिठाई बितरण,गीत गजल,पेन और डायरी देकर गुरु बर्गो से आशिर्बाद लिया।बिरगंज के बीपीसी कलेज,त्रिजुद्ध उच्च माबि,कन्या स्कुल,नरसिंह स्कूल ने भब्यता के साथ मनाया । इसी सन्दर्भमे ज्योतिष सम्राट पण्डित पुरुषोत्तम दुबे ने बताया कि आज गुरु पूर्णिमा में विशेष : ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते हैं गुरु की महिमा…होती है। दुबे ने कहा की गुरु पूर्णिमा : हमें धर्म का मार्ग दिखाते हैं ।शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात दो अक्षरों से मिलकर बने ‘गुरु’ शब्द का अर्थ – प्रथम अक्षर ‘गु का अर्थ- ‘अंधकार’ होता है जबकि दूसरे अक्षर ‘रु’ का अर्थ- ‘उसको हटाने वाला’ होता है।अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है।

श्री सद्गुरु आत्म-ज्योति पर पड़े हुए विधान को हटा देता है। कुछ थोड़ा-सा ऋण उनका बाकी है- शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है।हिन्दू परिषद नेपाल के केन्द्रीय सभापति समेत रहे दुबे के अनुसार अगर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और है वह, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों-सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे।’ रामाश्रयी धारा के प्रतिनिधि गोस्वामीजी वाल्मीकि से राम के प्रति कहलवाते हैं कि- तुम तें अधिक गुरहिं जिय जानी। राम आप तो उस हृदय में वास करें- जहां आपसे भी गुरु के प्रति अधिक श्रद्धा हो। लीलारस के रसिक भी मानते हैं कि उसका दाता सद्गुरु ही है- श्रीकृष्ण तो दान में मिले हैं। सद्गुरु लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं। संत जन कहते हैं- राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूं तो गुरु कीन्ह। तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥ गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं। गुरु ने जो नियम बताए हैं उन नियमों पर श्रद्धा से चलना उस संप्रदाय के शिष्य का परम कर्तव्य है। गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है। राजा दशरथ के दरबार में गुरु वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है, जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था। गुरु की भूमिका केवल आध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है, देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात् अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। अतः सद्गुरु की ऐसी महिमा के कारण उसका व्यक्तित्व माता-पिता से भी ऊपर है।

गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- ‘यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु’ अर्थात् जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुदेवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है। गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है। संत कबीर कहते हैं- ‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥’ – अर्थात् भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं है। जिसे ब्राह्मणों ने आचार्य, बौद्धों ने कल्याणमित्र, जैनों ने तीर्थंकर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सद्गुरु कहा है उस श्री गुरु से उपनिषद् की तीनों अग्नियां भी थर-थर कांपती हैं। त्रैलोक्यपति भी गुरु का गुणनान करते है। समाजिक और हिन्दूबादि कर्यो मे किर्यासिल रहने बाले दुबे ने कहा कि ऐसे गुरु के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं। अपने दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते है- ‘सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार लोचन अनंत, अनंत दिखावण हार’ – अर्थात् सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए है। उसने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की बंद आंखों को ज्ञान चक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है। आगे इसी प्रसंग में वे लिखते है। ‘भली भई जुगुर मिल्या, नहीं तर होती हांणि। दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं, पड़ता पूरी जांणि। – अर्थात् अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा अहित होता। जैसे सामान्यजन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता। जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्यजन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको न्यौछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती। अतः सद्गुरु की महिमा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते है, मुझ मनुष्य की बिसात क्या? दुबे ने भी अपने गुरु को याद करते हुबे कहा की दुनिया के समस्त गुरुओं को मेरा नमन।

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