अगर मगर में कटता दिन
कुमार सच्चिदानन्द
१४ गते जेठ नेपाल की राजनीति में वरदान है या अभिशाप इस बात को आम नेपाली अब तक नहींं समझ पाए । इस तिथि में निहित उद्देश्यों को अगर हमारी राजनीति समझ लेती तो संभव था कि आज हम इस तिथि को संविधान दिवस के रूप में मना रहे होते । लेकिन यह हमारी विडंबना है कि इस तिथि को हम एक बार फिर संदिग्ध तिथि के रूप में देख रहे हैं क्योंकि एक बार फिर राष्ट्र को कुछ महीनों के लिए अनिश्चितताओं में धकेल दिया गया है । मौजूदा संविधान-सभा की आयु एक तत्काल तीन महीने के लिए बढÞा दी गई है और इसके बाद के लिए भी दरवाजा खुला रखा गया है । यह बढÞी हर्ुइ अवधि कितना कारगर होगी, इसका अनुमान तो समय सापेक्ष्य है । लेकिन इतना तो सच है कि विरोधी और र्समर्थक सभी एक भाव-भूमि आए । आना भी तो यहीं था, क्योंकि संविधान निर्माण की बातें तो इन राजनैतिक दलों के लिए हाथी के दिखाने वाले दाँत हैं । खाने वाले दाँत तो कहीं और हैं जो बडÞे से पेट को भरने के लिए मंथर गति से निरंतर चल रहे हैं । अगर यह वैचारिक एकता मूल लक्ष्य को केन्द्रित कर हो पाती तो राष्ट्र आज संविधानहीन नहीं होता । लेकिन जय हो हमारी राजनीति और राजनेता का जो संविधान के नाम पर संविधान-सभा का बेहया की तरह बदस्तूर दोहन कर रहे हैं ।
यह सच है कि विधायी अधिकारों का प्रयोग कर एक बार फिर संविधान सभा की आयु बढÞा दी गई, लेकिन आम लोग इसके परिणामों के प्रति आशान्वित नहीं हैं क्योंकि यहाँ सक्रिय राजनैतिक दलों के मनोभाव में कोई गुणात्मक परिवर्त्तन नहीं आया है । वैचारिक मतैक्य का अभाव, वर्चस्व की भावना, टकराव की नीति यथावत है । इसलिए इस अवधि का भी कोई चौंकाने वाला परिणाम निकलना मुश्किल सा दिखलाई देता है । वैसे आशा तो की ही जा सकती है । लेकिन अपनी इन गतिविधियों से उन्होंने राष्ट्र को जिस मुकाम पर पहुँचाया है, वह तो शर्मसार होने की स्थिति है । आज राजनैतिक रूप से राष्ट्र ऐसे दोराहे पर खडÞा है जहाँ से कोइ भी मार्ग सही लक्ष्य की ओर जाता नहीं दिखलाई देता । एक ओर कुँआ, दूसरी ओर खाई । अवधि बढÞाने के बावजूद संविधान बनने की क्षीण संभावना और संविधानसभा के विघटन के बाद फिर से आधारहीन या व्यवस्थाहीन धरातल पर राष्ट्र का उतरना प्रायः निश्चित है । दोनों ही स्थितियाँ भयावह है । यह बात तो तय है कि आज एक तरह से पूरा देश राजनैतिक दलों और इसके नेताओं को सकारात्मक दृष्टि से नहीं देख रहा है, लेकिन इस संविधान सभा से संविधान जारी नहीं होता तो पूरा विश्व नेपाल और नेपाली जनता को इसी दृष्टि से देखेगा ।
विगत तीन वर्षों में हमारी राजनीति की जो सबसे प्रमुख प्रवृति बनकर उभरी है वह है(बडÞबोलापन । लम्बी-चौडÞी बातें, लम्बे-चौडÞे वादे । स्वीटजरलैंड बनाने का सपना से लेकर र्सवसम्मत, र्सवदलीय, र्सवपक्षीय राष्ट्रीय सरकार तक की बातें आम लोगों ने सुनी । वास्तविकता यह है कि इन तीन वर्षों में मिला क्या, यह किसी से छुपा नहीं । बडÞबोलापन का एक और नमूना राष्ट्र के सामने है । सत्तारूढÞ गठबंधन का नेतृत्वकर्त्तर्ााल ने जब इस संविधान सभा की आयु महज एक सप्ताह बांकी है तो आठ गते जेठ को नौ सप्ताह के भीतर लडÞाकुओं का समायोजन, पुनःस्थापना एवं विवादित विषयों का समाधान कर संविधान का पहला मसौदा जारी करने का प्रस्ताव आगे बढाया । विडंबना यह है कि जो पार्टर्ीीीतर ही भीतर विभाजित है, जिसका वैचारिक संर्घष्ा सतह पर है, जो पार्टर्ीीौ सप्ताह में सरकार को पर्ूण्ाता नहीं दे सकी वह नौ सप्ताह में संविधान का र्सवमान्य मसौदा कैसे जारी कर सकती है – यह सच है कि सत्ता का समीकरण साध रहे लोगों के पास आगामी अवधि की योजनाएँ हैं, सत्ता के बन्दरबाँट की नीतियाँ हैं । लेकिन ये सब बातें जनविश्वास को समेटने में सक्षम नहीं ।
मौजूदा संविधानसभा के द्वितीय अवधि-विस्तार के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा था कि एक मात्र निर्वाचित संस्था के विघटन के बाद उत्पन्न हर्ुइ रिक्तता का सक्षम विकल्प क्या है – इस समस्या का समाधान ढूँढे बिना संविधान सभा का विघटन उचित नहीं । निश्चय ही इस बात से पूरी तरह असहमत भी नहीं हुआ जा सकता । लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि इसका विकल्प तलाशने की दिशा में हमने अब तक अभ्यास भी तो प्रारम्भ नहीं किया है । वैसे भी तीन वर्षों से हम अभ्यास ही तो कर रहे हैं । विगत २४ जेठ ६७ से पर्ूव की हालात भी ऐसी ही थी । लेकिन हमने समाधान तलाशा । यह समाधान फलदायी नहीं रहा । इसलिए फिर ऐसा ही कदम दुहराने का औचित्य क्या है – हमें अगर ज्ञात हो कि हमारी दिशा गलत है तो उस का सुधार किया ही जाना चाहिए । एक बात तो निर्विवाद है कि देश की अधिकांश जनता मौजूदा संविधानसभा को औचित्यहीन समझ रही है । लोकतंत्र के लिए लाजिमी है कि जनआकांछा के विरुद्ध जनप्रतिनिधि और इनसे जुडÞी संस्थाएँ नहीं चले । यह भी सच है कि आज देश संविधानसभा के औचित्य पर विभाजित है । इसके पक्ष और विपक्ष में लोग बँटे हुए हैं । इसलिए ताजा जनादेश का तकाजा है । इससे पलायन किसी न किसी रूप में जनता को गुमराह करने की प्रवृति का परिचायक है । गौरतलब है कि हमारी संविधानसभा निर्वाचित है और निर्वाचित लोकतांत्रिक संस्था की कालावधि अनलिमिटेड तो हो ही नहीं सकती ।
आज जो एक अनिर्ण्र्ााकी स्थिति से देश गुजर रहा है उसका मूल कारण यह है कि हमारे राजनैतिक दल अब भी स्थिति की संवेदनशीलता को नहीं समझने का नाटक कर रहे हैं और अपना-अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए अव्यावहारिक गठबंधन कर रहे हैं । मौजूदा सरकार ऐसा ही अपवित्र गठबंधन का नतीजा है । अब तक यह सरकार और इसके र्समर्थक दलों को यह गुमान था कि समय-क्रम में सत्ता और सरकार के जाल में कुछ और सभासद उलझेंगे ही । इस तरह दो तिहाई का आँकडÞा प्राप्त कर लेना उनके लिए असहज नहीं होगा । मुख्य प्रतिपक्ष को किनारे रखकर भी वे संविधान बना सकते हैं । लेकिन अब आकर समीकरण और अधिक उलझ चुका है । मधेशी जनाधिकार फोरम, नेपाल के विभाजन और मजफो गणतांत्रिक के गठन से यह प्रायः स्पष्ट हो चुका है कि उनकी इस तरह की आकांक्षा फलित नहीं होने वाली । इसलिए आज सहमति का तकाजा बढÞ गया है । आज राष्ट्र का नेतृत्व कर रहे दलों और नेताओं को यह बात तो समझनी चाहिए कि प्रमुख प्रतिपक्षी और सीमान्तीकृत समुदाय की राजनैतिक माँगों को सम्बोधित किए बिना आँकडÞों के आधार पर हम कोई करिश्मा कर भी लें तो यह चिरस्थायी नहीं हो सकता । संविधान जैसा संवेदनशील मुद्दा का हल अतिवादी विचारधारा की परिधि में केन्द्रित होकर नहीं ढूँढा जा सकता ।
एक बात तो निश्चित है कि संविधानसभा का निर्वाचन सफलता पर्ूवक सम्पन्न हो जाना भी देश के लिए एक बडÞी उपलब्धि थी और एक तरह से पूरा राष्ट्र हमारे जनप्रतिनिधियों के साथ था । लेकिन आज यही निरीह सी दिखाई देने वाली जनता अपने ही नेताओं के प्रति आक्रामक दिखलाई दे रही है । कारण स्पष्ट है कि जिस लक्ष्य के प्राप्त करने के निमित्त उन्हें भेजा गया उसको प्राप्त करने में वे र्सवथा असफल रहे । यह भी निश्चित है कि इस दिशा में अब तक जो प्रयास किए गए हैं उन्हें जनता पर्याप्त नहीं मान रही । इसलिए जन-आकांक्षा के विरुद्ध इसकी अवधि बार-बार विस्तार करने का औचित्य तबतक नहीं जब तक परिणामोन्मुख दिशा में । हमारे राजनेताओं को यह कबूल करना ही चाहिए कि वे जन-आस्था के संवाहक हैं । इसलिए जो ऊर्जा वे इस संविधान सभा के अवधि-विस्तार के लिए बार-बार खर्च कर रहे हैं उसका उपयोग वे नया र्सवसम्मत लक्ष्य और र्सवसम्मत मार्ग तलाशने में करें । क्योंकि वे हमारे नेता तो हैं मगर अन्ततः जनता के सेवक हैं और जनआकांक्षा का कदर करना उनका धर्म है ।
आज जो परिस्थितियाँ हमारे सामने सृजित हर्ुइ है, उसका मूल कारण हमारी अतिवादी राजनैतिक सोच है जिसके कारण हम दलगत स्वार्थ से ऊपर उठ ही नहीं पा रहे । आज भी हम विचारधारा की लडर्Þाई लडÞ रहे हैं । यह बात तो निश्चित है कि विगत संविधानसभा का निर्वाचन परिणाम ने भले किसी दल के पक्ष में स्पष्ट जनादेश नहीं दिया लेकिन लोकतंत्र के पक्ष में तो उसका जनादेश था ही । इसलिए किसी भी दल को एकपक्षीय ढंग से सत्ता का लाँलीपँाप दिखलाकर या अस्वाभाविक गठबंधनों के द्वारा देश पर अपनी विचारधारा थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिए । एक बात तो यह भी है कि नेपाली जनता वि.सं. २००७ से ही लोकतंत्र के पक्ष में आन्दोलन करती रही है । इसलिए उसकी इस भावना का सम्मान होना ही चाहिए और किसी भी अतिवादी राजनैतिक चिंतन या विचारधारा के फलित होने के लिए नेपाल की भूमि उर्वरा नहीं है, यह बात भी हमें समdm लेनी चाहिए ।
यह सच है कि विचारधारा से हीन होकर हम जीवन और संसार मेें उन्नति नहीं कर सकते । इसलिए विचारधारा का सम्मान तो होना ही चाहिए मगर इसे सान्दर्भिक भी बनाया ही जाना चाहिए । हमारे उत्तर और दक्षिण में दो पडÞोसी राष्ट्र हैं और दोनों विश्व की तीव्र विकास दर प्राप्त करने वाली अर्थव्यवस्थाएँ हैं । एक साम्यवादी चिंतन पर संचालित है, दूसरा लोकतांत्रिक प्रणाली पर आधारित । लेकिन विकास की गति की दृष्टि से दोनों समान धरातल पर अवस्थित हैं । इसलिए विचारधारा कोई भी हो, अगर उसे कार्यान्वित करने कर्ीर् इमानदारी है तो हम सही लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं । इसके प्रमाणस्वरुप कुछ ही दिनों पर्ूव भारत के कुछ राज्यों में सम्पन्न विधानसभा चुनावों के नतीजों को लिया जा सकता है । पश्चिम बंगाल में साम्यवादी विचारधारा पर आधारित बुद्धदेव की सरकार को नकार कर जनता ने मध्यमार्गी ममता के पक्ष में प्रचंड बहुमत दिया । पुरानी सरकार पर यह आरोप था कि उसने किसानों-मजदूरों के हितों की उपेक्षा की । दूसरी ओर बिहार में नीतीश की मध्यमार्गी लेकिन प्रगति और विकास के लिए समर्पित सरकार को फिर से प्रचंड बहुमत मिला । यहाँ अमीर-गरीब सभी उनके पक्ष में गोलबंद दिखे । लेकिन हमारी राजनीति विगत चार वर्षों से विचारधारा के टकराव के यथार्थ से गुजर रही है । हमें यह बात तो मानना ही होगा कि विचारधारा की सूखी रोटी खिलाकर हम लोगों को बहुत दिनों तक गुमराह नहीं रख सकते ।
चौदह जेठ की मध्य रात इसलिए महत्वपर्ूण्ा रही क्योंकि आगामी कुछ दिनों के लिए ‘अब क्या होगा’ के भँवर से राष्ट्र निकल चुका । लेकिन यह भी तय है कि जब तक हमारे नेताओं के मूल दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं होगा, हम संविधानसभा की कालावधि तीन महीना बढÞाएँ या तेरह महीना -किसी निष्कर्षपर नहीं पहुँच सकते । यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने छः महीना की सीमा निर्धारित कर दी है लेकिन र्सर्ुइ की छेद से हाथी निकालने की कला में हमारे नेतागण सिद्धहस्त हैं, यसलिए समय आने पर वे इसकी कौन सी व्याख्या करेंगे -यह तो समय ही तय करेगा । लेकिन आम लोगों की इतनी मात्र आशा है कि बढÞायी गयी अवधि का वे सदुपयोग करेंगे । यद्यपि इस रात में मी पाँच सूत्रीय समझौता हुआ, लेकिन इस समझौते के प्रतिफलित होने के प्रति आम लोग आश्वस्त नहीं हैं । क्योंकि मध्य रात के अनेक समझौतों का हस्र उन्होंने देखा है । इसी कडÞी में यह भी एक है । अतः जब तक हमारे राजनेताओं के ‘अहं’ का भाव उदात्त होकर ‘वयं’ के भाव में नहीं बदलता, जब तक उनकी नीति व्यक्तिगत और दलगत स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र-कल्याण के सर्ंदर्भ में केन्द्रित नहीं होती, तब तक हम किसी निष्कर्षपर नहीं पहुँच सकते । ििि
