न जाने क्यूँ
राघवेन्द्र झा
कभी बरसात की चुभन
कभी धुप की तपन
न जाने क्यूँ आजकल
मौसम बेगाना लगता है ।।
कभी ठण्ढक से रूबरू
कभी पसीने की बदबु
न जाने क्यूँ आजकल
हर एहसास पुराना लगता है ।।
कभी चाय और पकौड़ी
कभी खम्भे की तिजोरी
न जाने क्यूँ आजकल
हर ग्लास मयखाना लगता है ।।
कभी माँ की डाट
कभी पापा का गुस्सा
न जाने क्यूँ आजकल
हर अपना समझाना लगता है ।।
कभी कविता की कामिनी
कभी गजल का अंदाज
न जाने क्यूँ आजकल
हर कोई शायराना लगता है ।।
कभी मंच पर अभिनय
कभी घास पर वाचन
न जाने क्यू आजकल
हर कोई दिवाना लगता है ।।
कभी प्रेमिका की बातें
कभी वो हसीन रातें
न जाने क्यूँ आजकल
हर आशिक परवाना लगता है ।।
कभी झुमकी की चाल
कभी लगती बेमिसाल
न जाने क्यूँ आजकल
हर लफ्ज नजराना लगता है ।।