अब तो मधेश भी मधेशी नेतृत्वों के हाथ से निकल गयी : कैलाश महतो
कैलाश महतो, परासी | मधेश के इतिहास से अनभिज्ञ रहे राजनीतिज्ञ, बुद्धिजिवी और कुछ पत्रकार लोग आजाद मधेश चाहने बालों से प्रायः एक सवाल पूछते हैं, “स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन बाले लोग नेपाल को टुकडा कर मधेश को एक अलग देश बनाने की बात क्यों करते हैं ?”
बेचारे वे लोग मधेश के इतिहासों से अनभिज्ञ ही नहीं, भोले भाले भी हैं । अगर विज्ञ, जानकार, चतुर और दूर दृष्टि बाले होते तो वे भी बडे बडे लेखक होते । चर्चित साहित्यकार होते । अधिकार प्राप्त अधिकारी होते । नामुद दूर द्रष्टा होते, कलाकार होते, सेनापति और प्रशासक होते । बडे और छोटे निर्णायक राज नेता होते । गुलाम नहीं होते । चाकरी और चाप्लुसी नहीं करते । आत्मनिर्णय के मालिक होते । अपने मातहत के कर्मचारियों से दिन दहाडे बेइज्जत नहीं होते ।
मेरे बहुत सारे मित्र लोग नेपाल सरकार के मन्त्री रहे । मगर मैंने एक भी मन्त्री से कोई काम करने के लिए कभी अनुरोध नहीं किया । लेकिन समय के पावन्दी में नेपाल सरकार में मन्त्री रहे मेरे एक आदरणीय मित्र से उनके ही मन्त्रालय अन्तर्गत के एक कर्मचारी को स्थानान्तर कर देने के लिए अनुरोध किया । वह बेचारा कर्मचारी अन्याय के मारे वर्षों से पहाड के किसी एक ही स्थान पर काम कर रहे हैं । उन मन्त्री महोदय से मैंने इस लिए भी अनुरोध किया कि उन्होंने ही कई बार मुझसे यह कहा था कि कोई काम पडे तो मैं उन्हें याद करुँ । उन मन्त्री महोदय से मेरा अच्छा सम्बन्ध होने की बात बेचारे उस कर्मचारी को मालुम होने के कारण उन्होंने मुझसे कहलवाया था ।
मैंने उनके स्थानान्तर के लिए दर्जनों बार मन्त्री साहब से अनुरोध किया । बेचारा वे मन्त्री साहब ने न कभी इंकार कर पाया, न काम कर पाया । मन्त्री पद से बाहर आने के बाद मैंने उनसे शिकायत की कि उस कर्मचारी का सरुवा उन्होंने नहीं कर दी । जवाब में पूर्व मन्त्री जी ने जो कहा, वह सोचनीय बात है । उन्होंने कहा कि उस काम के लिए अपने मातहत के सचिव और विभाग के प्रवन्धक से कई बार अनुरोध किया, मगर हर बार उन अधिकारियों ने सरुवा न करने की बात सुनाई । जब मधेशी मन्त्री का यह हाल है तो फिर मधेशी उन्हें भोट क्यों दे ?
बिडम्बना यह है कि वे चुनाव जितकर सांसद बनने के बाद मन्त्री बनने, बजेट पाने, किसी को नौकरी दिलाने या ट्रान्सफर कराने के लिए जब उन्हीं नेपाली शासक और प्रशासकों के चम्चागिरी में लगंगे तो उनकी अपनी कोई हैसियत क्या रहेगी ? मधेश का भोट उन्हें क्यों ?
आश्चर्य की बात तो यह है कि वे और वैसे ही लोग स्वतन्त्र मधेश पक्षधरों से यह सवाल करते हैं कि मधेश की आजादी संभव है क्या ? कितने प्रतिशत मधेशी जनता स्वतन्त्र मधेश के पक्ष में हैं ? क्या नेपाल से मधेश को अलग करना अच्छी बात है ? वे कहते हैं कि मधेश की स्वतन्त्रता फिलहाल असंभव है । तो वहीं पर मधेशवादी कहलाने बाले नेताओं का कहना है कि पहले मधेश प्रदेश ले लें, फिर देश लेंगे ।
जानकारी के अभाव में कल्हतक मैं भी यही बात करता था कि देश तोडना पाप है । नेपाल ही हमारा अस्तित्व है । नेपाल नहीं तो हम नहीं, आदि कहते थे । मैं तो कट्टर कम्यूनिष्ट ही रहा । लेकिन मधेश का जब हमने इतिहास पढा तो जाना कि मधेशी न तो नेपाली है, न मधेश नेपाल का है । यह आज भी पूर्णतः मधेश है । ‐पढें मधेश का इतिहास, लेखक डा.सीके राउत÷नेपालको इतिहास, बालकृष्ण शर्मा…, आदि)
नेपाली राजनैतिक शासन का गुलाम रहे मधेशी नेता, बुद्धिजिवी व पत्रकारों का जो समझ है कि स्वतन्त्र मधेश गठबनधन के लोग मधेश को नेपाल से अलग करना चाहते हैं, यह उनकी नासमझी है । जिस स्वतन्त्रता अभियानी संगठन का नाम ही स्वतन्त्र मधेश गठबन्धन है, वह फोडतन्त्र या तोडतन्त्र की बात ही नहीं कर सकती । बात ही स्पष्ट है कि कोई परतन्त्र व्यक्ति समूह या भूमि ही स्वतन्त्र होना चाहता है । और मधेश स्वतन्त्र इसलिए होना चाहता है, क्योंकि यह परतन्त्र है । इसपर नेपालियों तन्त्र हावी है । मधेश अब स्वयं का तन्त्र लाना चाहता है । वही स्वतन्त्र मधेश है । यह मधेश की भूमि है, नेपाल की नहीं । स्वतन्त्र होना धर्म की बात है । साहस की बात है । परतन्त्र रहना पाप और अपराध है । कायरों की हालात है । स्वतन्त्र होना सिर्फ धर्म ही नहीं, स्वाभाव भी है । नहीं तो हर बच्चा नौ महीने हो जाने के बाद भी माँ के गर्भ में ही रहता । क्योंकि माँ का गर्भ प्राकृतिक एसीयुतm महल होता है । सारे चिन्ताओं से मुक्त रखने बाला राजमहल है ।
जो लोग कहते हैं कि मधेश देश बनना असंभव है, उन्हें इस बात को याद करना चाहिए कि वैसे कायर और निराश लोगों से दुनियाँ चलती नहीं, बिगडती है । वैसे लोग हर काल में रहें और हर बदलाव को असंभव ही कहें । ऐसे कायर लोग त्रेता युग में राम के विपक्ष में, द्वापर युग में पाण्डवों के विरोध में, तक्षशिला के राजा पुरु के विरोध में, अमेरिकीे स्वतन्त्रता के नायक जर्ज वासिंङ्गटन, फ्रान्स स्वतन्त्रता के नेता स्यामुएल च्याप्लेन, गाँधी और मण्डेला लगायत विश्व के अन्य राष्ट्रों के स्वतन्त्रता नायकों के विरोध में ही थे । मगर स्वतन्त्रताको किसने रोक पाया ?
नेपाली राजनीति की ही बात करें तो असंभव कहने बाले लोग राणा विरुद्ध लडने बाले राजा त्रिभुवन काल में और पंचायत विरुद्ध के लडाई में पंचायती काल में भी रहें । ताज्जुब की बात है कि २०३७ के जनमत संग्रह के बाद बी.पी के साथ प्रजातान्त्रिक लडाई में रहे ७०% नेता कार्यकर्ता पंचायत में आत्म समर्पण कर दिए । पुष्पलाल श्रेष्ठ के नेतृत्व में लगे साम्यवाद के पुजारी ९०% नेता कार्यकर्ता दरबार में विलीन हो गये । सन् १९८८ में ही गिरिजा प्रसाद कोइराला लगायत के प्रजातन्त्रवादी नेतागण गणेशमान सिंह के घर जाकर पंचायत से लड न सकने की बात सुनाते हुए पंचायत से मिलकर ही राजनीति करने की जिक्र की थी । पर गणेशमान जी के आत्मविश्वास और कृष्ण प्रसाद भट्टराई के कुशल नेतृत्व ने उसके ठीक दो साल के भितर जनआन्दोलन का सूत्रपात की और देखते ही देखते प्रजातन्त्र की पूनस्र्थापना हो गयी ।
पारिवारिक प्रजातन्त्र के खिलाफ जनयुद्ध करने बाले माओवादी के विपक्ष में और संघीय राज्य प्रणाली के पक्ष में हो रहे मधेश आन्दोलन कोे वेही नेता और बुद्धिजिवी लोग हावा का आन्दालन कहे थे । उन तमाम आन्दोलनों के विरोध में बातें करने और उन विद्रोहों को असंभव कहने बाले लोग उन्हीं संगठनों में बडे बडे लोग कहला रहे हैं । स्वतन्त्र मधेश के लिए हो रहे आन्दोलन को भी वे और वैसे लोग असंभव कह रहे हैं । यह कोई बडी बात नहीं हैं । यह उनकी ओछी बात है । कायरपना है । डर है । उनकी मजबुरी है । ऐसी बात वे शासक को दिखाने के लिए भी करते हैं ता कि शासक लोग उन्हें मधेश आन्दोलन के विरोधी मानकर उनके विरोध के बदले उन्हें भीख देते रहे ।
जो मधेशी नेता या बुद्धिजिवी यह कहते हैं कि मधेश की स्वतन्त्रता फिलहाल असंभव है तो उन्हें यह बताना होगा कि संभव कब और कैसे हंै ? इसके लिए वे तैयार कब हो रहे हैं ? क्या संभव तब होगी जब सारा मधेश को नेपाली अपने चंङ्गुलों में दबोच लें ? “समग्र मधेश, एक प्रदेश” के नारे को कुचलकर मधेश को छः टुकडों में बाँट दिए जाने के बाद भी उनके नेतृत्व और बुद्धि को होस अगर नहीें हो तो वे हैं किस काम के ?
यही बात मधेशी जनता अगर मधेशी उन नेतृत्व और बुद्धिजिवीयों से करे कि आपकी पदोन्नत्ति की समय, मन्त्री बनने का समय अभी नहीं है । कुछ वर्ष और संघर्ष करें तो वे इंतजार क्यों नहीं करते ? मधेशी जनता परम पीडों में भी सुख का प्रतिक्षा करें, और धोतीखोल तथा पगडी फेंक मधेशी नेता और बुद्धिजिवियों को पद, पैसे, गाडी और पदोन्नत्ति तुरन्त क्यों चाहिए ?
मधेशी नेतृत्व अपने समान्य नेता व कार्यकर्ता लगायत मधेशी जनता से यह कहते चल रहे हैं कि मधेश देश अभी संभव नहीं है । उसी बात को बुद्धि के ठेक्का लिए राज्य का जुत्ता और लात खाने बाले अधिकांश मधेशी बुद्धिजिवी लोग प्रचार करते नजर आ रहे हैं कि पहले मधेश प्रदेश लें । उसके बाद मधेश देश ।
अब सवाल यह उठता है कि सैकडों मधेशियों की शहादत और हजारों की अपांङ्गता से नेपाल के अन्तरिम संविधान में लिपीवद्ध कराये गये “समग्र मधेश, एक स्वायत्त प्रदेश” लगायत मधेश विद्रोह के सारे उपलब्धियों को देखते देखते ही नेपालीकरण कर दी गयी और मधेशी नेतृत्व सिर्फ तमाशा देखने और सहमति पर सहमति कर माला माल होता रहा । अब तो मधेश भी मधेशी नेतृत्वों के हाथ से निकल गयी है । पूरे मधेश को छः टुकडों में विभाजित कर आठ जिलों में कैद कर दी गयी है । अब कौन से मधेश को वे लेंगे और किन मधेशी भूमियों को वे कब देश बनायेंगे ?
अगर मधेशी नेतृत्व आजाद मधेश के पक्ष में रहे मधेशियों का प्रतिशत देखना चाहता है तो अपने प्रिय नेपाल सरकार से जनमत संग्रह कराने के लिए बात करें । परिणाम सामने आ ही जायेगी ।