मुक्तिबोधः उम्र भर जी के भी न जीने का अंदाज आया
हरिशंकर परसाई
भोपाल के हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध जब मौत से जूझ रहे थे, तब उस छटपटाहट को देखकर मोहम्मद अली ताज ने कहा था–
उम्र भर जी के भी न जीने का अंदाजÞ आया,
जिÞंदगी छोड़ दे पीछा मेरा मैं बाजÞ आया
जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अंदाजÞ कभी नहीं आया । वरना यहां ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आंदोलन के कंधे पर चढ़कर ‘नया पथ’ में फ्रंट पेजित भी होते थे, फिर पंडित द्वारकाप्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप–दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ की राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं ।
इसे मानना चाहिए कि पुराने प्रगतिवादी आंदोलन ने भी मुक्तिबोध का प्राप्य नहीं दिया । बहुतों को दिया । कारण, जैसी स्थूल रचना की अपेक्षा उस समय की जाती थी, वैसी मुक्तिबोध करते नहीं थे ।
न उनकी रचना में कहीं सुर्ख परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे । वे गहरे अंतद्र्वन्द्ध और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे । मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे ।
दूसरी तरफ के लोग उनके पीछे बीच हंट लगाए थे । उनके ऊबड़–खाबड़पन से अभिजात्य को मितली आती थी । वे उनके दूसरे खेमे में होने की बात को इस तरह से कहते थे, जैसे– अ गुड मैन फालेन अमंग फेबियंस । ऐसा भी नहीं है कि मुक्तिबोध को समझने वाले लोग नहीं थे । पर निष्क्रिय ईमानदार और सक्रिय बेईमान मिलकर एक षडयंत्र–सा बना लेते हैं ।
मजे की बात यह है कि प्रगतिवादी सत्ता प्रतिष्ठान के नेता भी, जिन्हें प्रतिक्रियावादी कहते थे, उन्हीं की चिरौरी करके उन्हें अपने बीच सम्मान से बिठाकर रिस्पैक्टेबिलिटी प्राप्त करते थे, मगर जो अपना था उसे अवहेलित करते थे ।
वह तो अपना है ही, उसकी नियति तय है, वह कम्बख्त कहां जाएगा ? पूर्वी यूरोप से साहित्य के आयात–निर्यात की जो फर्म है, उसके माल की लिस्ट में भी मुक्तिबोध की एक लाइन नहीं थी । हां, उन्हें बराबर भेजा जाता था, जिन्हें घर में फासिस्ट कहा जाता रहा है ।
मुझे याद है, जब हम उन्हें भोपाल के अस्पताल में ले गए और मुख्यमंत्री की दिलचस्पी के कारण थोड़ा हल्ला हो गया, पत्रकार मित्रों ने प्रचार किया, तब कुछ लोग, जो साहित्य की राजधानियों के थे या वहां से बढ़कर आए थे, यह कहते थे कि हम प्रांतीयता से ग्रस्त लोग उसे हीरो बना रहे हैं । हम लोग प्रोविंशियल संस्कार के लोग कहलाते थे ।
प्रोफेसरान और ऊंचे लेखक उन्हें देखने शुरू–शुरू में इसलिए नहीं आते थे कि कहीं प्रयाग, दिल्ली और कलकत्ता में बदनामी न फैल जाए कि हम प्रोविंशियल में दिलचस्पी ले रहे हैं । प्रयाग और दिल्लीवालों ने जब गेटपास दे दिया और अदीब ने टाइम्स अ‘ाफ इंडिया में अंग्रेजÞी में तारीफ कर दी, तब इनका दिलचस्पी लेने का साहस बढ़ा ।
बाद में तो लेख के शुरू में मुक्तिबोध की पंक्तियां मंगलाचरण के रूप में लिखने लगे– वन्दौ वाणी विनायकौ होने लगा । उनकी मृत्यु के बाद फूल बांटने की झपटा–झपटी में कबीर की चादर की बड़ी फजीहत हुई ।
यह सब–बाई दी वे । मुझसे तो नामवरजी ने कुछ संस्मरणात्मक लिखने को कहा है । संस्मरणात्मक कुछ भी लिखने में अपने को बीच में डालना पड़ता है । संस्मरणात्मक की यह मजबूरी है । यह सावधानी बरतते हुए कि उनके बहाने अपने को प्रोजेक्ट न कर दूं, कुछ चीजें लिखता हूँ‘ गो सफल संस्मरण का वही गुण है, जिससे मैं बचना चाहता हूँ ।
जबलपुर में जिस स्कूल में मुक्तिबोध ने नौकरी की थी, उसी में बाद में मैंने की । अपनी मुदर्रिसी का वह आखिरी दौर था, उनकी मास्टरी उसी अहाते में खत्म हुई थी ।
पुराने अध्यापक उनकी बात करते थे । साहित्य में बल्कि पत्रकारिता में मेरा प्रवेश तब हो चुका था । सुनता था यहां तारसप्तक वाले मुक्तिबोध रहते थे । उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की । फिर वे नागपुर प्रकाशन विभाग में चले गए ।
तब मुक्तिबोध की नई जवानी थी । छरहरे खूबसूरत आदमी थे । तब का उनका एक चित्र है, जो राष्ट्रवाणी के मुक्तिबोध अंक में छपा है । बड़ी–बड़ी गहरी भावुक आंखें हैं । नाक बहुत सेन्शुअस है । शरीर सूख जाने पर भी मुक्तिबोध की आंखें धुंधली नहीं हुईं, सूखा चेहरा भी खूबसूरत रहा ।
मैं कुछ लिखने लगा था । वे देखते रहते थे । मित्रों ने भी बताया होगा । मैं नागपुर शिक्षक सम्मेलन के सिलसिले में गया था । एक मित्र उनसे मिलाने शुक्रवारा स्थित शायद उनके मकान पर ले गए । सच कहूँ, मुझे मुक्तिबोध से डर लगता था । मित्रों, प्रशंसकों में वे महागुरु कहलाते थे । एक आतंक मेरे ऊपर था ।
मैं अपने अज्ञान में सिकुड़ा–सिकुड़ा पहुंचा । वे दरी पर पालथी मारे बैठे थे । पास पानी का लोटा और उस पर प्याला । हम लोग दरी पर बैठ गए । मुझसे बोले, आइए साहब ! निहायत औपचारिक दो–चार मामूली बातें हुईं ।
यह जानकर कि मैं शिक्षकों के श्रम–संगठन के काम से आया हूँ, उन्होंने आंखें फाड़कर गौर से देखा । मुझसे न लिखने की बात की, न कोई तारीफ । चाय जरूर पिलाई । आगंतुक के बहाने खुद चाय पीने का मौका वो चूकते नहीं थे । यह मुलाकात बहुत सुखी रही । मुक्तिबोध मुझे शंका से देख रहे थे । जांच रहे थे ।
वे एकदम गले किसी से नहीं मिलते थे । प्रकृति से वे शंकालु थे । किसी को जैसा–तैसा स्वीकार नहीं करते थे । बाद के अनुभव और अकेलेपन ने यह शंका की प्रवृत्ति और बढ़ा दी थी । राजनांदगांव में वे कई लोगों की कल्पना में न जाने कैसी–कैसी तस्वीरें बनाकर परेशान थे ।
दिल्ली, कलकत्ता, प्रयाग के बहुत–से लोगों की इतनी अतिरंजित तस्वीर वे बनाते थे कि लगता ये सब विकट शैतान हैं, जबकि वे अपने काम में लगे तटस्थ लोग थे । शंका व असुरक्षा की भावना इतनी तीव्र हो उठी थी, बाद में कि वह भयावह कल्पना करते रहते थे कि अमुक–अमुक लोग मेरे खिÞलापÞm षडयंत्र कर रहे हैं जबकि उन्हें अपना भला करने से ही इतनी फुरसत नहीं मिलती थी कि उनका बुरा करें ।
उनके मित्रों को यह नहीं मालूम था कि मुक्तिबोध भयंकर शैतान के रूप में उनकी कल्पना कर चुके हैं । सामान्य आदमी का वे एकदम भरोसा करते थे लेकिन राजनीति और साहित्य के क्षेत्र के आदमी के प्रति शंकालु रहते थे । कोई महज ही उनके समीप होना चाहता था या उनकी मदद करना चाहता तो सशंकित हो जाते । कहते, ‘पार्टनर, इसका इरादा क्या है ?’
ज्यों–ज्यों उनकी मुसीबतें बढ़ती गईं, ज्यादा कड़वे अनुभव होते गए, उनके कई विश्वसनियों का चारित्रिक पतन होता गया, उनकी शंका बढ़ती गई । वे अपने को असुरक्षित अनुभव करते गए ।
अंत के एक–दो साल तो वे अपने चारों तरफ डर के कांटे लगाकर जीते थे । उन्हें लगता कोई भयंकर षडयंत्र चारों तरफ से उन्हें घेर रहा है । यह स्थिति तब बहुत तीव्र हो गई जब सरकार ने उनकी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाया । इस बात को आगे लिखूंगा ।
नागपुर में चार–पांच दिन रहकर भी मैं उनसे दोबारा नहीं मिला । उन्होंने भी ऐसी कोई इच्छा नहीं की । यह सीधा कहलानेवाला आदमी कुछ मामलों में बड़ा काइयां था । वह चुपचाप बैठा जांच रहा था । आगे साल–भर तक कोई संबंध नहीं रहा ।
एक दिन ‘नया खून’ का ताजा अंक खोला, तो तीन कॉलम की एक टिप्पणी का शीर्षक था ‘थॉट और परसाई की स्पिरिट में अंतर है ।’ टिप्पणीकार– गजानन माधव मुक्तिबोध ।
मेरी एक कहानी का अनुवाद ‘थॉट’ ने छापा था । मुक्तिबोध ने थॉट की राजनीति बतलाई थी और मेरी कहानी को जैसे मिसफिट कहा था । चेतावनी थी कि ये पत्र प्रचार और पैसे का लोभ देकर किसी बनते लेखक को फंसाते हैं ।
मेरी उस कहानी का अर्थ थॉट ने साम्यवादी व्यवस्था में रेजिमेण्टेशन के संदर्भ में लगाकर छापा था । यों मेरी एक फैंटेसी को पांचजन्य ने पौराणिक कथा समझकर धर्मार्थ उद्धृत कर लिया था । अपनी समझ का उपयोग करने का हर एक को हक है ।
मैंने उन्हें नहीं लिखा । वे भी चुप रहे । सालेक बाद जब वसुधा निकालने की योजना बनी, तो मैंने उन्हें पत्र लिखा ।
वे भरे बैठे थे । बड़ा लंबा पत्र आया । लिखा था कि नया खून की उस टिप्पणी के बाद यहां लोगों ने मुझसे बार–बार कहा कि आपको बहुत बुरा लगा है । मैं दूर हूँ । लोगों से संपर्क होता नहीं है । सुनता रहता हूँ । सोचा सीधे आपसे बात कर लूं । मैं साफ बात करना पसंद करता हूँ । आप मुझे साफ बताइए कि क्या उस टिप्पणी से आपको बुरा लगा ?
मैं समझ गया कि मेरी–उनकी निकटता को घटित न होने देने में किन्हीं लोगों ने अपना फायदा देखा होगा । अपना फायदा देखने का भी हर एक को हक है । बाद में पता चला कि इन लोगों ने अपने समकालीनों के लिए खुफिया विभाग भी खोल रखा था और जगह–जगह एलची नियुक्त कर रखे थे ।
हमारे मित्र प्रमोद वर्मा जब तबादले पर जबलपुर आए, तब उन्हें हेड ऑफिस से चिट्ठी मिली थी कि यहां किससे संबंध रखना और किससे नहीं, इस बारे में अमुक से हिदायत ले लो । प्रमोद ने लिख दिया था कि शत्रु और मित्र मैं खुद बनाता हूँ ।
उस चिट्ठी को मुक्तिबोध के सामने हम लोगों ने पढ़ा और खूब हंसते रहे । खैर, ये स्थानीय मधुर पॉलिटिक्स की बातें हैं । मगर परिवेश से कटकर आदमी रह नहीं सकता । मुक्तिबोध– जैसे पारदर्शी, सच्चाई के सरल आदमी को अपने आसपास की यह अविश्वसनीयता और अकेलापन दे देती थी ।
‘कामायनीः एक पुनर्विचार’ को छापने के लिए एक पुस्तक विक्रेता मित्र शेषनारायण राय राजी हो गए थे । वे पेशे से प्रकाशक नहीं हैं । पैसा लगा देने को तैयार थे । मुक्तिबोध जी पर उनकी श्रद्धा थी । तब मुक्तिबोध को कोई प्रकाशक नहीं मिलता था । पुस्तक की कम्पोजिंग चल रही थी, तब वे जबलपुर आए । तीन दिन हो गए पर उन्होंने न किताब की बात की, न राय से मिलने की इच्छा ।
पहले तो रात–दिन पुस्तक छापने की लौ लगी रहती थी और अब यह विराग । मैंने कहा, ‘आप प्रकाशक से तो मिल लीजिए । वे यहीं पास में रहते हैं ।’ मुक्तिबोध खिन्न भाव से बोले, ‘मिल लेंगे पार्टनर । कोई उससे मिलने थोड़े ही आए हैं । ’
मैंने कहा, ‘सच बताइए मामला क्या है ?’ वे बोले, ‘अब पाण्डुलिपि तो दे ही चुके हैं । अमुक साहब कह रहे थे कि आप बुरे फंस गए । वह राय तो बहुत खराब आदमी है । खैर ! मैंने राय से कहा, राय हंसा । कहने लगा– वही साहब मुझसे कह गए थे कि तुम पैसा पानी में डाल रहे हो । उस किताब को कौन खरीदेगा ।’
मुक्तिबोध उनका विश्वास करते थे । वे बड़े हैरान हुए । कहने लगे– आखिर उसने ऐसा किया क्यों ? बाद में राय ने उन्हें रुपये पेशगी दिए । दुकान से वो कुछ किताबें भी ले गए । बहुत गदगद थे । ऐसे मौकों पर वे बच्चे की तरह हो जाते थे– वाह पार्टनर, आपका यह राय भी मजे का आदमी है । उसने इतने रुपये दे दिए ।
अगर उन्हें किसी से मुश्किल से सौ रुपये मिलने की उम्मीद है और वह दो सौ रुपये दे दे, तो वह चकित हो जाते । कहते– पार्टनर, यह भी बड़ी मजे की बात है । उसने तो दो सौ रुपये दे दिए । इतने रुपये कोई कैसे दे देता है ।
इस पुस्तक का प्रकाशन वो अपने ऊपर अहसान मानते थे । राजनांदगांव से उन्होंने राय को अंग्रेजी में एक चिट्ठी लिखी, जो कोई लेखक प्रकाशक को नहीं लिखेगा । लिखा था– पुस्तक अच्छी छपनी चाहिए । मैं आपको लिखकर देता हूँ कि मुझे आपसे एक भी पैसा नहीं चाहिए बल्कि आपका कुछ ज्यादा खर्च हो जाए तो मैं हर्जाना देने को तैयार हूँ ।
राजनांदगांव में वे अपेक्षाकृत आराम से रहे । शरद कोठारी तथा अन्य मित्रों ने उनके लिए सब कुछ किया । पर वे बाहर निकलने को छटपटाते थे । वे साल में एक–दो बार किसी सिलसिले में जबलपुर आते और खूब खुश रहते, रंगीन सपने में डूबते हुए कहते– पार्टनर ऐसा हो कि एक बड़ा–सा मकान हो । सब सुभीते हों । कोई चिंता न हो । वहां हम कुछ मित्र रहें । खूब बातें करें, खूब लिखे–पढ़ें और जंगल में घूमें । फिर कहते– आप राजनांदगांव आइए । वहीं कुछ दिन रहिए । बहुत बड़ा मकान है । कोई तकलीफ नहीं होगी । नो, नो, आई इनवाइट यू ।
मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी । उन्हें और तरह के क्लेश भी थे । भयंकर तनाव में वे जीते थे । पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे । उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे ।
पैसे–पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था । वे पैसा देनेवाली पत्रिकाओं में लिखकर आमदनी बढ़ा सकते थे पर लिखते नहीं थे । कहते– अपनी पत्रिका में लिखेंगे । बस मुझे कागज आप दे दीजिए ।
यों वे बहुत मधुर स्वभाव के थे । खूब मजे में आत्मीयता से बतियाते थे । मगर कोई वैचारिक चालबाजी करे या ढोंग करे तो मुक्तिबोध चुप बैठे तेज नजÞर से उसे चीरते रहते । उस वक्त उनके ओंठ किसी बदमाश स्कूली लड़के की तरह मुड़ जाते ।
आपस में मित्रों से एकरस हो जाते मगर तभी वर्ग–चेतना जाग उठती, तो अजनबी होने लगते । जबलपुर आये तो मेरे घर पर एक मित्र हनुमान वर्मा से मुलाकात हुई । हनुमान का‘लेज में पढ़ाते हैं । खूब यारबाश आदमी हैं । दो–तीन दिन खूब मजे में उनसे मुक्तिबोध की जमती रही । फिर हनुमान अपने घर ले गया । वहां अच्छा–सा सोफा था । डाइनिंग टेबल भी थी ।
मुक्तिबोध को खटका लग गया । वे शिष्ट व्यवहार करने लगे । लौटते वक्त रास्ते में मुझसे बोले– पार्टनर, इस आदमी से अपनी कैसे पट सकती है ! उसका सोफा देखो, डाइनिंग टेबल देखो । यह अपनी दुनिया का आदमी नहीं है । ही बिलांग्ज टू ए डिफरेंट वर्ल्ड ।
मैंने कहा– छह–सात सौ ही पाता है वह । अपनी ही दुनिया का आदमी है । पर यह बात गले उतरने में देर लगी । वर्ग–चेतना के तीव्र बोध की एक–दो घटनाएं दिलचस्प हैं । मुझ पर एक प्रकाशक ने कॉपीराइट का मुकदमा चला दिया था । मुक्तिबोध आये हुए थे । दिसंबर का महीना था । भोजन करके वे सामने के मैदान में बैठे थे । मैं कचहरी जाने लगा तो पूछा, ‘पार्टनर मजिस्ट्रेट कौन है ?’ मैंने नाम बताया । वे बोले, ‘नाम से मालूम होता है कि वह नीची जाति का है । विदर्भ में होते हैं ये लोग । आप छूट जाएंगे ।’
मैंने पूछा, ‘यह अंदाजÞ आपको कैसे लगा ?’
उन्होंने कहा, ‘वह नीची जाति का है न ! उसकी वर्ग–सहानुभूति लेखक के प्रति होगी, प्रकाशक के साथ नहीं ।’ संयोग से मुकदमा खारिज भी हो गया ।
एक साहित्य–समारोह में एक वयोवृद्ध ब्राह्मण आचार्य थे । विवाद की स्थिति थी ही । आचार्य के मातहत एक अध्यापक ने भी भाषण में आचार्य जी का समर्थन किया । बाद में मुक्तिबोध अकेले में हम लोगों से बड़ी गंभीरता से बोले, ‘वह जो अध्यापक है उसकी सहानुभूति हमारी तरफ है । नौकरी के लिए आचार्य की बात बोल रहा था । वह जाति का अहीर है न ! वह हमारा साथ देगा, ब्राह्मण आचार्य का नहीं ।’
पर एक दूसरे मौके पर दूसरी ही तरह की बात कहकर उन्होंने हमें चौंकाया । एक आदमी बड़ा ओछा व्यवहार कर रहा था । हम सब लोगों की पीठ पीछे निंदा करता था । मुक्तिबोध सुनते–सुनते बोले, ‘पार्टनर, वह जात का लोधी है न ! इसलिए । ’
मुक्तिबोध विचारों से आधुनिक लेकिन इसके साथ ही व्यवहार में कई बातों में बिल्कुल सामंती । किसी को अपने घर में साग्रह खाना खिलाना, अपनी हैसियत से बाहर खातिर करना उनकी खास प्रकृति थी ।
लगता था कोई पुराने ठाकुर साहब हैं, जिन्हें मूंछें मुड़ाना पड़ेगा अगर मेहमाननवाजी में कमी आयी । एक बार नागपुर में जब वे तीव्र ज्वर में नया खून के टीन के नीचे काम कर रहे थे मैं पहुंच गया । भर–दोपहर में पास की दुकान पर मुझे मिठाई खिला लाए, तब चैन पड़ा । मैंने बहुत मना किया पर वे कहते, ‘नहीं साहब, आप आए हैं तो कुछ खाना तो पड़ेगा । ’
पक्षाघात से पीडि़त थे, तब हम उन्हें भोपाल के लिए लेने पहुंचे । उस हालत में भी वो हड़बड़ा रहे थे कि इनके लिए क्या कर दिया जाए । कहने लगे, ‘आप मेरे मेहमान हैं । आप मेरे यहां क्यों नहीं ठहरेंगे, कोठारी के यहां क्यों ?’
कोठारी से भी शिकायत की, ‘क्यों साहब, यह क्या हरकत है ? इन्हें आपने रास्ते में क्यों रोक लिया ?’ इसमें बनावट नहीं थी । उनकी सच्ची ममता थी, उनके आंतरिक संस्कार थे ।
वे नयी से नयी वैज्ञानिक उपलब्धि से मुग्ध होते थे, पर परिवार–नियोजन के खिÞलापÞm थे । परिवार नियोजन को पूंजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति मानते थे ।
विचारों के मामले में जितने सधे हुए, जिÞंदगी की व्यवस्था में उतने ही लापरवाह । स्वास्थ्य के प्रति अत्यंत असावधान थे । संबंधों में लचीले मगर विचारों में इस्पात की तरह । कहीं कोई समझौता नहीं । पैसे–पैसे के लिए तंग रहते थे पर पैसे को लात भी मारते थे । कभी बिल्कुल निस्संग हो जाते कभी मोहग्रस्त ।
मुक्तिबोध विद्रोही थे । किसी भी चीज से समझौता नहीं करते थे । स्वास्थ्य के नियमों और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से भी नहीं । उनकी राजनीति है यह बात सर्वविदित थी ।
नागपुर में सरकारी नौकरियों में थे, तब उनके पीछे साम्यवाद विरोधी भूत लगे रहते थे । उनके विचारों ने कभी उन्हें नौकरी में ऊपर नहीं उठने दिया । राजनांदगांव के प्राइवेट कॉलेज की नौकरी उन्हें अनुकूल पड़ी । वहां उन्हें लोगों ने बड़े श्रद्धा–प्रेम से रखा ।
मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे । आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे । उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी । वे संत्रास में जीते थे ।
आजकल संत्रास का दावा बहुत किया जा रहा है । मगर मुक्तिबोध का एक–चौथाई तनाव भी कोई झेलता तो उनसे आधी उम्र में मर जाता । मृत्यु से दो साल पहले वे जबलपुर आए थे । रात–भर वे बड़बड़ाते थे । एक रात चीखकर खाट से फर्श पर गिर पड़े । संभले, तब बताया कि एक बहुत बड़ी छिपकली सपने में सिर पर गिर रही थी ।
उन दिनों उनकी पुस्तक ‘भारत ः इतिहास और संस्कृति’ पर प्रतिबंध लग चुका था । वह पुस्तक कोर्स में लग चुकी थी । उसके खिÞलापÞm आंदोलन करानेवाले मुख्यतः दूसरे प्रकाशक थे । आंदोलन में जनसंघ प्रमुख था ।
इसके साथ ही गैर–सांप्रदायिक पत्रों के भी बिके हुए संपादक थे । जनसंघ उनके पीछे पड़ गया था । राजनांदगांव में उसके स्वयंसेवक उन्हें परेशान करते थे । उस वक्त विद्वान लेकिन अधिकारहीन राज्यपाल था और भ्रष्ट तथा मूर्ख मुख्यमंत्री ।
राज्यपाल ने डेढ़ घण्टे बात की, बात मानी भी पर कहा– मैं क्या कर सकता हूँ ।
मुख्यमंत्री के पोर्टिको के पास मुक्तिबोध घण्टे–भर खड़े रहे । वह बंगले से निकला तो ये बात करने बढ़े । बात शुरू ही की थी कि बोला– उसमें अब कुछ नहीं हो सकता । इन्होंने कहा– पर आप मेरी बात को सुन लीजिए । वह बोला– मेरे पास इतना वक्त नहीं है । मुझे जरूरी काम है ।
जबलपुर लौटे तो बहुत टूटे हुए और बहुत क्रोधित । वह आदमी चट्टान जैसा था लेकिन इस घटना ने उनके भीतर भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर दी थी । वे बेहद उत्तेजित थे । इस प्रतिबंध से उनकी अपार क्षति हुई । यदि पुस्तक चलती तो उन्हें इतनी रॉयल्टी मिलती कि सारा संकट खत्म हो जाता । व्यक्तिगत क्षति का आघात तो था ही ।
पर इस पूरे कांड को व्यापक राजनीतिक संदर्भ में देखकर वे बहुत त्रस्त थे । कहते थे– यह नंगा फासिज्म है । लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें, इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जा रही है । गला दबाकर आवाज घोंटी जा रही है ।
‘अंधेरे में’ कविता का यही रचनाकाल है । उन दिनों मुक्तिबोध बहुत आशंकाग्रस्त थे । छोटी–से–छोटी बात उन्हें विचलित कर देती थी । चाबी जिस जेब में रखी होने की उन्हें याद थी, अगर उस जेब में नहीं है तो वे ऐसे सशंकित हो उठते थे, जैसे कोई बड़ा षडयंत्र उन्हें घेर रहा है ।
उन दिनों वे बहुत उत्तेजित होकर घंटों बहुत जोर से बोलते रहते थे । गले की नसें तनी हुई साफ दिखती थीं । कनपटी लौकती थी, दम भर आता था और वे डबल स्ट्रॉन्ग चाय की मांग करते थे ।
अंतिम बीमारी के महीने–भर पहले वे जबलपुर आए थे । हाथ और पांव में एक्जिमा था । पांवों को धोकर नीम की पट्टी करते । बहुत दुर्बल हो गए थे । बहुत परेशान थे पर शारीरिक और आर्थिक कष्ट की बात लगभग नहीं करते थे ।
रात को उन्होंने हम लोगों को ‘अंधेरे में’ कविता सुनायी थी । डेढ़ घंटे के पाठ के बाद वे शिथिल होकर बिस्तर पर लुढ़क गए थे । हम लोगों ने उन्हें थोड़ी ब्राण्डी देकर सुला दिया था । सुबह बोले, ‘पार्टनर दवा बहुत अच्छी थी ।’ महीने–भर बाद ही उन्हें पक्षाघात हो गया । आदमी यह सोचने को मजबूर है कि अगर ऐसा हो गया होता, तो वैसा नहीं होता । बहुत–से मित्र यहां सोचते हैं अगर वे तभी जबलपुर रुक गए होते तो बीमारी न बढ़ती ।
यहां मेडिकल कॉलेज में उन्हें कुछ दिनों के लिए भर्ती करा देने का हम लोगों ने तय किया था । पर उन्हें बीमार पिताजी से मिलने नागपुर जाना था । वे कह गए थे कि महीने–भर में मैं लौटकर आता हूँ और कुछ दिन रहकर यहीं आराम करूंगा और इलाज करूंगा । पर महीने–बाद उन्हें पक्षाघात हो गया । दिल्ली से जब मैं चल ही रहा था कि श्रीकान्त के नाम उनके पत्र से यह खबर मिली ।
मुक्तिबोध अपनी बीमारी की भयंकरता जानते थे । वे जानते थे कि यह बीमारी प्राणांत भी कर सकती है । शारीरिक कष्ट उन्हें बहुत था । छोटे–छोटे बच्चों के भविष्य की चिंता भी थी । रात कराहते बीतती थी । भोपाल के मित्र रात–भर कमरे के बाहर बरामदे में बैठे आई ग (ओ मां) और अग (पत्नी को बुलाने के लिए) सुना करते थे ।
पर मुक्तिबोध का उत्साह कम नहीं हुआ था । वे टूटे नहीं थे । संज्ञाहीन होने के पहले तक वे बीमारी की शिकायत लगभग नहीं करते थे । वे साहित्य और राजनीति की बातें करते थे । खूब उत्साह से बोलते थे ।
कभी हम उन्हें स्वास्थ्य के बारे में झूठा भरोसा दिलाते तो वे पलकें नीची करके कहते– हां पार्टनर, ठीक तो हो ही जाएंगे । उनके भाव से हम समझने लगे थे कि यह आदमी जानता है कि ये लोग मुझे दिलासा दे रहे हैं । वे संकेत से बता देते थे कि मैं सब जानता हूँ । मुझे क्यों बहलाते हो !
अपनी तरफ बढ़ती हुई मृत्यु को जो साफ देख रहा था, उसकी जिÞंदगी की जकड़ कम नहीं हुई थी । यह किसी भी तरह जीवन से अटके रहने का घटिया मोह नहीं था । सिगरेट और चाय के लिए अलबत्ता वे बाल–हठ–जैसा करते थे ।
बाकी अपने बारे में कुछ नहीं । नेहरू जी की तबीयत कैसी है ? देश की राजनीति किस ओर से गुजर रही है ? साहित्य में इन दिनों क्या चला हुआ है ? यही सब बातें वे करते थे । पीड़ा होती तो कराह देकर वे फिर वैसे ही नॉर्मल हो जाते थे ।
बीमारी से लड़कर मुक्तिबोध निश्चित जीत गए थे । बीमारी ने उन्हें मार दिया, पर तोड़ नहीं सकी । मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अंत तक वैसा ही रहा । जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे । वे मरे । हारे नहीं । मरना कोई हार नहीं होती ।