वामगठबन्धन की राह आसान नहीं
वामगठबन्धन की बैचेनी अब भी शांत नहीं हो पा रही है और वो रोज निर्वाचन आयोग का चक्कर लगा रहे हैं, धमका रहे हैं तथा लांछन लगा रहे हैं । यहाँ तक कि आयोग को इस सम्बन्ध में विज्ञप्ति तक जारी करनी पड़ी है कि आयोग का मानमर्दन किया जा रहा है

भारत विरोधी वक्तव्य और मधेश आन्दोलन के समय हुए नाकाबन्दी को भारतीय नाकाबन्दी कह कर जो राष्ट्रवादी छवि उन्होंने बनाई थी उसका भरपूर फायदा उन्हें मिल चुका है । हालाँकि इस छवि को अपने पहले प्रधानमंत्रीत्व काल को वो सिर्फ दिवास्वप्न दिखाने के काम में ही ला सके और भारत के विरोध में चीन की ओर हाथ बढ़ाकर उस विकास की बात की जो नेपाल के भोगोलिक संरचना में कहीं भी फिट नहीं बैठती
देश के लोकतांत्रिक चुनाव का उत्साह समाप्त हो चुका है और साथ ही परिणाम का उत्साह भी अब ठंडा होता नजर आ रहा है । सरकार बनाने को तैयार वामगठबन्धन अब तक संवैधानिक जाल में उलझा हुआ है और अपनी इच्छा पूर्ति करने के लिए चाहकर भी राष्ट्रीय सभा गठन सम्बन्धी अध्यादेश को जारी होने से नहीं रोक पाया । वहीं राष्ट्रपति को बेमन से ही सही, इसे जारी करना पड़ा । अजीब बात तो यह है कि खुद के द्वारा जारी किए गए संविधान के विषयों और धाराओं को लेकर प्रमुख नेतागण आज तक असमंजस में हैं और एक दूसरे पर बेतुके इलजामों की झड़ी लगाए हुए हैं । संविधान संशोधन के विरोध में चिल्लाने वाले और संविधान को विश्व का उत्कृष्ट संविधान कहने वाले एमाले अध्यक्ष की बौखलाहट अध्यादेश जारी होने पर कैसी रही जरा एक नजर उनके ही शब्दों पर ज्यों का त्यों डालें—“अध्यादेश षड्यंत्रपूर्ण ढंग से, कपटपूर्ण ढंग से, अलोकतांत्रिक तरीके से, लोकतंत्र की मूल्य मान्यता, संविधान विपरीत ढंग से लाया गया है । अध्यादेश जारी करना असंवैधानिक नहीं है अध्यादेश के भीतर की बात असंवैधानिक है ।” हालांकि उन्होंने राष्ट्रपति को इल्जाममुक्त यह कह कर, कर दिया कि राष्ट्रपति ने चारो ओर से पड़े दवाब की वजह से अध्यादेश जारी किया है । उपर जिस षड्यंत्र, कपट, अलोकतंत्र आदि शब्दों की चर्चा उन्होंने की है, ये सारे शब्द उस वक्त बहुत ही शिद्दत से महसूस हो रहे थे, जब देश को एक लहुलुहान संविधान मिल रहा था । आज बनाने वाले, उसी संविधान की धाराओं में स्वयं उलझे हुए हैं और चाहकर भी इससे निकल नहीं पा रहे हैं । अंततोगत्वा सुवाष नेम्बांग जी को राष्ट्रपति को समझाना ही पड़ा कि अध्यादेश जारी करना ही आगे की राह को सहज करेगा । राष्ट्रीय सभा गठन सम्बन्धी अध्यादेश के जारी होने के साथ ही राजनीतिक गतिरोध की राह खुल गई है । पर वामगठबन्धन की बैचेनी अब भी शांत नहीं हो पा रही है और वो रोज निर्वाचन आयोग का चक्कर लगा रहे हैं, धमका रहे हैं तथा लांछन लगा रहे हैं । यहाँ तक कि आयोग को इस सम्बन्ध में विज्ञप्ति तक जारी करनी पड़ी है कि आयोग का मानमर्दन किया जा रहा है । खैर ये संवैधानिक बातें हैं और इसकी गहराई में हर आम नागरिक नहीं जा सकता और एक सत्य तो यह भी है कि अब तक नेता ही संविधान के पूर्ण पाठ से अनभिज्ञ हैं, तो बेचारी जनता इस धारा–उपधारा को कितना समझ पाएगी । उन्हें तो बस परिणाम चाहिए जो उनके हित में हो । सबकी नजर इस बात पर टिकी है कि आखिर सरकार कब बनेगी ? जैसे–जैसे चुनाव के परिणाम आ रहे थे, परिदृश्य स्पष्ट हो रहा था कि वामगठबन्धन की सरकार जल्द ही बागडोर सम्भालने वाली है । पर महीने गुजर गए और काँग्रेस अब भी सत्ता–लोभ के आरोप–प्रत्यारोप के बीच सत्ता पर काबिज है । इतना ही नहीं, इस बीच वामगठबन्धन की नींव कई बार हिलती हुई नजर आ रही है, पद और पावर को लेकर । इस बीच ओली और प्रचण्ड अलग–अलग वक्तव्य देते हए नजर आ रहे हैं । दावे तो अब भी गठबन्धन की मजबूती के किए जा रहे हैं पर एक अनदेखा सेंध तो कभी–कभार दिख ही जा रहा है । वैसे काँग्रेस भी अपनी ओर से कोई कोर–कसर नहीं छोड़ रही, क्या पता बिल्ली के भाग से छींका टूट ही जाय । सभी अपने–अपने दाँव को खेलने में लगे हुए हंै जो राजनीति की सबसे बडी खूबी होती है । शतरंज के खेल की तरह अंतिम चाल तक प्रयास जारी रहता है कि कब कौन सा पासा उल्टा पड़ जाय और बाजी अपनी ओर हो जाय । काँग्रेस प्रचण्ड के सामने प्रस्ताव रख चुकी है कि वो उन्हें पाँच वर्षों के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी देने को तैयार है । वैसे प्रचण्ड जनता की भावनाओं का हवाला देकर इसे मानने से मना कर चुके हैं । पर वामगठबन्धन में शक्ति के बटवारे को लेकर जो माहोल बना हुआ है, उस परिस्थिति में कब इनका मिजाज बदल जाय कहा नहीं जा सकता है ।
खैर, सरकार किसी की भी बने, देश स्थिरता की तलाश कर रहा है । जनता बँटवारे की राजनीति से उब गई है । हालाँकि इस स्थिरता के आसार नजर नहीं आ रहे क्योंकि कोई भी पूरे पाँच वर्षों के लिए धैर्य धारण करने वाली स्थिति में नहीं है । वैसे यह तो जाहिर है कि स्वयं एमाले अध्यक्ष ओली ने भी यह नहीं सोचा होगा कि निर्वाचन में इतने मजबूत परिणाम मिलने के बाद भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचना इतना कठिन होगा । भारत विरोधी वक्तव्य और मधेश आन्दोलन के समय हुए नाकाबन्दी को भारतीय नाकाबन्दी कह कर जो राष्ट्रवादी छवि उन्होंने बनाई थी उसका भरपूर फायदा उन्हें मिल चुका है । हालाँकि इस छवि को अपने पहले प्रधानमंत्रीत्व काल को वो सिर्फ दिवास्वप्न दिखाने के काम में ही ला सके और भारत के विरोध में चीन की ओर हाथ बढ़ाकर उस विकास की बात की जो नेपाल के भोगोलिक संरचना में कहीं भी फिट नहीं बैठती । पर आज भी पहाड़ उसी सपने के पीछे जाने को तैयार है, जहाँ वो ये नहीं समझ रहा है कि उनके काँधे को किसके विरोध में प्रयोग करने की तैयारी हो रही है । उस पर भरोसा और विश्वास जताया जा रहा है जिसे अपने देश की जनता पर ही विश्वास नहीं है । खैर अगर चीन ही नेपाल की डूबती नैया का पतवार बनने में सक्षम है तो ठीक ही है, क्योंकि यहाँ की एक मानसिकता तो जनमानस पर हमेशा हावी रही है कि भारत ने हमेशा नेपाल का सिर्फ फायदा लिया है दिया कुछ भी नहीं है और इसी मानसिकता की वजह से भारत के किसी भी प्रस्ताव को शक की दृष्टि से देखा जाता रहा है और इसके कारण कई योजनाएँ अधर में लटकी रह जाती हैं । ऐसे में अगर चीन बिना किसी स्वार्थ के नेपाल के साथ है तो इससे अच्छी बात तो कोई हो ही नहीं सकती । वैसे चीन की विस्तारवादी नीति को नेपाल भले ही अनदेखा करे पर विश्व इसे बखूबी समझ रहा है । नेपाल की जनता को तो विकास चाहिए भले ही कीमत कोई भी चुकानी पडेÞ । एमाले अध्यक्ष ओली और चीन की नजदीकी सभी जानते हैं और अब तो प्रचण्ड भी अपन गिले शिकवे भुलाकर देश हित के लिए ओली के साथ खड़े हैं । पर सवाल यह है कि अगर ओली प्रधानमंत्री बनते हैं, तो निर्वाचन जीतने जैसा सहज क्या देश चलाना होगा ? कुर्सी मिलने से लेकर कुर्सी बचाने की जद्दोजहद उनके सामने होगी । वैसे तो कुर्सी बचाने के लिए सबसे अच्छा उपाय मंत्रीपद का प्रलोभन है, जिसका उदाहरण अपने मंत्रीत्वकाल में वो दे चुके हैं और जिसके पदचिन्हाें पर वर्तमान सरकार भी ईमानदारी से चल रही है । बावजूद इसके क्या एमाले अध्यक्ष वामगठबन्धन के सभी नेताओं को संतुष्ट कर पाएँगे ? ऐसा आला ही कोई होगा जो मंत्री बनने के सपने नहीं देख रहा होगा । चलो अगर यह सीढी भी वो तय कर लेते हैं तो क्या गारंटी है कि उनकी सरकार स्थिरता दे पाएगी ? भले ही आज माओवादी केन्द के अध्यक्ष पदत्याग कर रहे हों या, जनता की भावनाओं का हवाला दे रहे हों, पर कब तक वो अपनी महत्वाकांक्षा पर बंदिश लगा पाएँगे, वो भी उस हालत में जबकि उन्हें अभी ही प्रधानमंत्री पद की राह दिखाई जा रही है ? ऐसे में जिस स्थिरता की बात और दावे गठबन्धन ने जनता के समक्ष किया था वो सिर्फ चुनावी नारे नहीं थे तो और क्या थे ? इसे सच मान लेना चाहिए क्योंकि चुनाव परिणाम के बाद जो परिदृश्य देखा जा रहा है, वो तो यही आइना दिखा रहा है कि इतनी आसानी से पदमोह से मुक्त नहीं हुआ जा सकता है । तो क्या एकबार फिर किश्तों की सरकार देश को मिलने वाली है ?
तीसरी जो सबसे बड़ी चुनौती नई सरकार के पास होगी, वो यह कि अगर एमाले अध्यक्ष के नेतृत्व में सरकार का गठन होता है, तो वाम सरकार मधेश मुद्दों को लेकर अपनी पुरानी नीति को ही लेकर आगे बढ़ेगी या उसमें कोई परिवर्तन करेगी ? वैसे संविधान की कमजोरी तो अब उन्हें भी समझ आने लगी होगी, तो शायद संविधान संशोधन के लिए मानसिकता बन जाय । परन्तु इसमें भी उनका अपना स्वार्थ ही निहित रहेगा क्योंकि संविधान की धाराओं को भी अपने अनुरूप ही बनाए जाने की कोशिश की गई है, पर वो भी अभी वर्तमान में गले का फाँस बनी हुई है ।
इन सबके बाद देश के विकास की नीति, विदेश नीति, भ्रष्टाचार उन्मूलन नीति इन सबकी सुदृढ योजनाओं को बनाना और फिर उसको कार्यान्वयन में लाना सबसे अहम चुनौती होगी नई सरकार के समक्ष, क्योंकि यही देश को विकास की धार पर ला सकता है, जिस विकास का चेहरा देखने के लिए समग्र नेपाली जनता प्रतीक्षारत है । यह सब तभी सम्भव होगा जब देश के नेता अपनी स्वार्थ नीति को तिलांजलि देंगे और देश हित की बात सोचेंगे । हालाँकि ये सारी बातें आदर्शों की बातें हैं, राजनीति के मैदान में इनकी कोई खास अहमियत नहीं रह जाती है ।
नेपाल की वर्तमान राजनीति में जहाँ वामगठबन्धन की जद्दोजहद जारी है वहीं मधेशी दलों का गठबन्धन भी अपनी उम्र गिन रहा है और मधेशी जनता साँसें रोक कर अगले परिदृश्य का इंतजार कर रही है । दो प्रमुख घटक राजपा नेपाल और ससफो अब तक किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाई है । न तो पार्टी एकता की ही बात हो रही है और न ही प्रदेश नम्बर दो की बागडोर किसे सौंपी जाएगी, इस संदर्भ में कोई विचार विमर्श ही हो रहा है । एकबार फिर इन पर परिवारवाद हावी हो रहा है (वैसे इसमें अन्य प्रमुख दल भी पीछे नहीं हैं), जो शायद मधेशी दलों के पूर्व इतिहास की ही पुनरावृति होगी और यह भी तय है कि इससे सिर्फ व्यक्तिगत फायदा होगा न कि, इसका फायदा मधेश या मधेश की जनता को मिलने वाला है । जनता तो बलि का बकरा बनती ही है और उस पर स्वार्थ की रोटी पकती ही है ।