जिन्दगी
-लक्ष्मी जोशी
जिन्दगी तू इतनी दुखी नहीं होती
इतने तनाव में नहीं होती
इतने अभाव में नहीं होती
अगर वो मानव का मुखौटाधारी
नाग तुझे अपने जाल में उल्झाये
न रखता
हर बार तुझे गिराकर हँसता रहा
तेरे दामन को खीचता रहा
तेरे सपनों को तोड़ता रहा
तेरे अपनों को विखेरता रहा
तू पहचान न सकी
उसकी फितरत है लोगों को
अपना गÞुलाम बनाने की
अपने पेट के लिए दूसरों का
गला काटकर खÞून चूसने की
खुद आजÞाद रहकर दूसरों को
बंदी बनाने की तुम बार–बार
उसका सामना करके भी पहचान
न सकी
हाँ पहचानती भी कैसे
मुखौटाधारी जो है
तेरे साथ रहता है
तेरे ही साथ खाता है
तेरे ही सपनों को पूरा
करने की हर बार चर्चा जो
करता है तुम्हें उसने आभास
तक नहीं होने दिया और बंदी
बना लिया
तुम अपनी असफलता का
रोना रोती रही और उस
जÞहर को भी गले में लटकाकर
पल पल मरती रही
एक बात कहूँ हैरान न होना
मैं भी कई सालों तक इसका
शिकार बन चंूकी हूँ पर अब नहीं
अब तो ये मुझे देखकर डर से भागता है
जानती हो क्यों ??? क्योंकि
मैने अपने सर पर काले रंग का कफÞन
बाँध लिया है विद्रोह का कफÞन
ये कफÞन मुर्दों को जिंदा करता है
इसलिये ये लाल नहीं काला होता है
जीवित मुर्दे अगर इसे सर पर बाँध ले
तो कैसा भी विषैला (नाग) क्यों न हो
रास्ता बदल ही लेता है