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ओली में संकीर्णता, आग्रह और प्रतिशोध की भावना है-सीपी मैनाली

हिमालिनी, मार्च अंक, 2018 । माओवादी आन्दोलन के जग में ‘प्रचण्ड’ के नाम राजनीति में पुष्पकमल दाहाल का उदय हुआ था, उसी तरह किसी समय में कामरेड ‘सुभाष’ के नाम से वाम आन्दोलन में नेपाल के पूर्वी क्षेत्र से जिस नेता का उदय हुआ था वो हैं– सीपी मैनाली । मैनाली वर्तमान में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी लेनिनवादी) के महासचिव हैं । एक समय था जब उनके अधीन में वर्तमान प्रधानमन्त्री तथा नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले)के अध्यक्ष केपी शर्मा ओली राजनीति किया करते थे । समय बदला और साथ ही बदला राजनीतिक चेहरा भी । किसी समय कमान्डर के निर्देशन में काम करने वाले ओली कालान्तर में पहली बार जब प्रधानमन्त्री हुए तो अपने कमान्डर को अपने मन्त्रीमण्डल में समावेश किया, और स्वयं कमान्डर बने । सुखानी हत्याकान्ड के बाद ये दोनों फिलहाल अलग अलग पार्टी में हैं । २०२७–०२८ साल से बनते बिगड़ते हालात में निरन्तर एक साथ काम करते आ रहे ये एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह से पहचानते हैं ।



सीपी मैनाली, महासचिव, नेकपा (माले)

वाम गठबन्धन से निर्वाचन जीत कर एकबार फिर एमाले अध्यक्ष ओली प्रधानमंत्री पद पर हैं और उनसे जनता की काफी अपेक्षाएँ भी हैं । जनता की अपेक्षा किस हद तक पूरी होती है या नहीं होती है इन सारी बातों के लिए एकबार वर्तमान प्रधानमंत्री के विगत को भी खंगालना आवश्यक है । इस विषय पर रातोपाटी के लिए नरेश ज्ञवाली की सीपी मैनाली के साथ हुई बातचीत का साभार अनुवाद आपके समक्ष है ।
० आपकी नजर में वर्तमान प्रधानमन्त्री तथा नेकपा (एमाले)के अध्यक्ष केपी शर्मा ओली के सबल और दुर्बल पक्ष कौन कौन से हैं ?
पहले सबल पक्ष की ही बात करूँ । उनकी एक आदत है कि वो उस विषय में बिल्कुल स्पष्ट होते हैं जिसमें उन्हें यकीन है और उसे वो साहस के साथ सामने रखते हैं । यह गुण राजनीतिक व्यक्तित्व को लोकप्रिय बनाता है । राष्ट्रीयता के विषय में उनकी सोच और नीति साथ ही यह कहना कि, मैं गाँव में पैदा हुआ हूँ, गाय भैंस चराई है । मैं गाँव का व्यक्ति हूँ । मेरी शारीरिक अवस्था ऐसी है कि अब मुझे जल्दी जल्दी काम करना होगा । इसलिए अब इस उम्र में बिना किसी लोभ के जनता और राष्ट्र के पक्ष में काम करना है, उन्हें जनता के समक्ष लोकप्रिय बनाता है और उनकी बात भी अच्छी है । परन्तु सवाल यह है कि वो राष्ट्र और जनता की समस्या को कितना समझते हैं और इसके लिए कया निर्णय लेते हैं यह देखना है और यही महत्तवपूर्ण है । अगर इन समस्याओं को सही तरीके से समझ नहीं पाएँगे और अपनी जिद के साथ रहेंगे तो समस्या का समाधान और नीति निर्माण में कठिनाई है । क्योंकि कुछ विवादित विषय भी उनके साथ जुड़े हुए हैं । इसलिए मैं चाहता हूँ कि वो विषय की संवेदनशीलता को समझे क्योंकि नेपाल भूराजनीतिक कारण से अत्यन्त ही संवेदनशील देश है ।
एकीकरण के बाद से ही नेपाल दो पत्थरों के बीच के पौधे के रूप में चित्रित हो चुका है । नेपाल एकीकरण के नेता पृथ्वीनारायण शाह का भी यही अनुभव रहा है । उन्होंने कहा था कि दक्षिण के सम्राट अर्थात ब्रिटिस भारत के साथ सतर्क रहें और चीन के साथ अच्छे सम्बन्ध रखें । सौभाग्यवश अथवा दुर्भाग्यवश यह बात आज भी अपनी जगह कायम है । इसलिए केपी कैसे परिस्थिति और घटना को समझ कर आगे बढ़ेंगे यह सोचने वाली बात है ।
कुछ मानवजन्य कमजोरी हैं उनमें । मैंने यह देखा है कि उन्हें अपनी पार्टी और अन्य राजनीतिक पार्टी के लिए जितना सहिष्णु होना चाहिए उतने वो सहिष्णु नहीं हैं । इस मामले में वो संकुचित हैं । खुशामद और दूसरों को पीछे करने में उन्हें संतोष होता है, प्रतिशोध की भावना भी उनमें रहती है । कई काम वो बदला लेने की नीयत से करते हैं । कोई भी निर्णय चाहे वो पार्टी के लिए हो या सरकार के नेतृत्व के सन्दर्भ में हो उस समय वो यह नहीं सोचते कि यह जनता के लिए क्या परिणाम लाएगा इससे अधिक उनकी सोच यह होती है कि निर्णय उनके अनुकूल या उनकी रुचि के अनुसार है या नहीं । जबकि ऐसा निर्णय दीर्घकालिक नहीं होता । ऐसे कई सन्दर्भ हैं । पर मैं उस ओर नहीं जाना चाहता ।
उस समय केपी ओली जानबूझकर महाकाली सन्धि के गलत प्रावधान के पक्ष में थे । बहुत समय तक वो भारत के गुड लीडर के रुप में रहे । अभी भी कई भारतीय नेता हैं जो यह कहते हैं कि केपी ओली हमारे अच्छे मित्र हैं । मित्र होना अच्छी बात है पर मित्र के हर सही गलत बात को माना नहीं जा सकता है । ओली के साथ हमारी यही चिन्ता है ।
मैं जब ०३५ साल में माले का महासचिव था तो कई उतार चढाव से गुजरा जिसमें ओली की सकारात्मक और नकारात्मक दोनों भूमिका थी । मैं उनके सरकार में भी रहा इसी दरमियान मैंने यह महसूस किया कि वो खुशामदी, संकीर्ण और देश तथा पार्टी हित से अधिक अपनी रुचि का काम करने वाले व्यक्ति हैं ।
० किसी समय ‘भारतमैत्री’ के आरोपित ओली अचानक ‘भारतविरोधी’ कैसे हो गए ?
देश और जनता के पक्ष में काम करने से पहले जनता के स्वार्थ और अपनी मिट्टी को समझने की आवश्यकता होती है । जैसे ५० के दशक में एकीकृत महाकाली सन्धि बहुत विवादास्पद है । उस समय एमाले में मेरे जैसे कई थे जो इस संधि के विपक्ष में थे । हम यह समझते थे कि यह संधि नेपाल के हित में नहीं है । इसी के साथ शारदा बैरेज में प्रयोग होने वाली भूमि के ‘रिप्लेसमेन्ट’ की बात, पानी के समान वितरण की बात पर हमारा विरोध था जो आज सही साबित हो रहा है । आज भी डीपीआर नहीं बन पाया है ।
पिछले समय में भारत की एक कम्पनी ने डीपीआर तैयार किया था जिसमें कुल पानी का २३ प्रतिशत पानी मात्र देने की थी । इसलिए हमने इसे असमान सन्धि कहा और इस पर हस्ताक्षर नहीं किया । हमने उस समय ‘हाई डैम’ के बदले ‘लो टेरिस डैम’ निर्माण की ओर जाने की बात कही थी पर यह नहीं हो सका । भारतीय पक्ष का ‘हाई डैम’ बनाने की अपनी रणनीति थी । सन्धि की उस धारा और प्रावधान को हटाने की आवाज को उस समय दबा दिया गया जिसमें केपी ओली की महत्तवपूर्ण भूमिका थी । ओली ने कहा था छ महीने में डीपीआर बनेगा और तत्काल कार्यान्वयन में जाएगा जिससे नेपाल को १ खर्ब २० अर्ब फाइदा मिलेगा ।
आज महाकाली सन्धि और उस आयोजना की अवस्था सभी को पता है । उस समय मुझे याद है इसे पास कराने के लिए तत्कालीन एमाले में मनमोहन अधिकारी जी के छद्म वोट का प्रयोग कर बहुमत सिद्ध किया गया था । उस समय भी ओली की जिद स्पष्ट थी, सटीक थी, दृढ़ थी, पर गलत थी । इसी लिए मेरा कहना है कि आप सीधा बोलते हैं या खरा बोलते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप हमेशा सही ही होंगे । राजनीति में वैचारिक सूझबूझ की आवश्यकता होती है । विषयवस्तु के प्रति कितनी समझ है यही अच्छे और बुरे परिणाम का निर्धारण करती है । देश को सही तरीके से अगर नहीं समझा जाय तो इसका परिणाम गलत हो सकता है ।
० आज के समय में ओली के हठ का मूल्याङ्कन कैसे करेंगे ?
आज भी मधेस केन्द्रित दल और विभिन्न जनजाति के नेताओं द् वारा उठाइ गई बात थोड़ी संकीर्ण है और अपने समुदाय के पक्ष में मात्र है फिर भी कुछ वास्तविक समस्या को भी उन्होंने उजागर किया है । उन्होंने पहचान का जो प्रश्न उठाया है वह बिलकुल जायज है । मुझे लगता है पहचान माँगने की बात अपनी भाषा, धर्म, संस्कार, संस्कृति के लिए राष्ट्रीय मान्यता माँगना है । इसलिए पहचान देना जरुरी है । परन्तु केपी ओली के पहले चरण में स्पष्ट मान्यता नहीं थी । उन्होंने पहचान की समस्या के समाधान के लिए न तो कोई अग्रसरता दिखाई और न ही उसे स्वीकारा ।
मैंने एमाले और केपी ओली के गलत बात का विरोध तो देखा पर इसके निकास की बात नहीं देखी । ओली ने राष्ट्रीयता के विषय को जिस तरह समझा और उसके पक्ष में जिस तरह निकासविहीन ढङ्ग से एकपक्षीय रूप में खड़े हुए वह कभी भी देश को फायदा नहीं दे सकता है । बल्कि इस जिद से देश कमजोर ही होगा ।
समुदाय के पहचान देने के सवाल को उन्होंने जिस तरह अस्वीकार किया उसकी वजह से आज देश में ध्रुवीकरण बढ़ गया है । ऐसा तभी कोई कर सकता है जब वह देश की वस्तुस्थिति को नहीं समझे या वो किसी के दवाब में हो । नहीं तो पहचान को संविधान के द्वारा सुनिश्चित कर हम समस्या का समाधान कर आगे बढ सकते थे । संविधान के द्वारा पहचान सुनिश्चित करने के सवाल में यदि विदेशी के दवाब में ओली हैं इस बात को भुला दें तो उनके निर्णय के पीछे नेपाल के लिए अज्ञानता और गलत सोच भी है । ओली का निकासविहीन विरोध हुआ । पर देखिए आज भी वो अपनी बात पर कितने अडिग और स्पष्ट हैं परन्तु यह गलत होने पर आखिर किसका फायदा और नुकसान होगा ?
० पहली बार जब ओली प्रधानमन्त्री बने तो आप उनकी सरकार में उपप्रधानमन्त्री थे । उनका वह प्रधानमन्त्रीत्वकाल काफी चर्चित और विवादास्पद रहा । उस समय ओली ने हर घर में गैस पाइप, महासागर में नेपाली ध्वजावाहक जहाज, हवा से बिजली निकालने जैसे दावे किए । उन्होंने जो जो दावे किए क्या आपको लगता है कि वो सभी सच हो सकते हैं ?
उन्होंने देश की समस्या को नहीं समझा है इसलिए वो ऐसे दावे करते हैं । उन्होंने यहाँ की जातीय समस्या और जटिलता को नहीं समझा । आज भी अगर यही सोच रही तो गलत निष्कर्ष ही सामने आएगा । मुझे लगता है कि ओली वर्तमान नीति से विदेशियों को ही फायदा होगा । उन्होंने जिस बात पर हठ किया है वही नेपाल में ध्रुवीकरण और द्वन्द्व बढ़ाएगा और यही तो विदेशी चाहते हैं ।
दूसरी बात राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा सपना दिखाना और सम्भावनाओं की बात करना अच्छी बात है । हमारे पास क्या क्या संसाधन है, हमारे पास गैस, पेट्रोलियम और जो सामग्री हैं उनका प्रयोग किस आधार पर किया जाय यह अलग बात है पर एक दो जगह गैस मिलने पर उसे अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से प्रचार करना गलत बात है क्योंकि किसी बड़े गैस का भंडार हमें नहीं मिला है ।
० अतिश्योक्तिपूर्ण प्रचार विरोधियों के द्वारा हुआ या एमाले के द्वारा ?
प्रधानमन्त्री वस्तुस्थिति को नहीं समझ कर और कल क्या करना सम्भव है इस बात को स्पष्ट नहीं कर के अति आशावादी बात की । दूसरे ने प्रचार नहीं किया है । सपना देखना जरुरी है, अपने साधन स्रोत पर आत्मनिर्भर होना भी आवश्यक है । पर नेताओं को सपना और वर्तमान के बीच के रेखा को स्पष्ट करना भी आवश्यक है । जो ओली नहीं कर पाए ।
० ओली ने पहले प्रधानमन्त्री काल में भारत में अपना जन्मदिन मनाया और केक काटा, दूसरी बार प्रधानमन्त्री बनने पर बालुवाटार में २५ किलो का केक काटा गया । इसको आप किस तरह लेते हैं ?
ऐसे व्यक्तिगत बातों को प्राथमिकता देना और हाइलाइट करने के पक्ष में मैं नहीं हूँ । जब हम खुद के जन्मदिन को महत्व देने लगें और उसे उत्सव के रूप में मनाने लगे तो यह आत्मश्लाधा ही कहलाएगी ।
० ०३५ साल में जब आप पार्टी महासचिव थे उस समय के ओली और आज के ओली में क्या अंतर है ?
०३५ साल में हमने भूमिगत रूप में नेकपा (माले)की पुनस्र्थापना की थी, उस समय केपी ओली, आरके मैनाली, मोदनाथ प्रश्रित आदि साथी जेल में थे । सुखानी हत्याकाण्ड के बाद फागुन चैत में ओली झापा में नहीं थे । वो भारत के किसी जगह पर थे । बाद में वहाँ से लौटने पर ०३३ साल में मोहनचन्द्र अधिकारी और ओली रौतहट से गिरफ्तार हुए । हमने जब माले की स्थापना की तो मोहनचन्द्र अधिकारी, आरके मैनाली, केपी ओली और मोदनाथ प्रश्रित जो जेल में थे उन्हें केन्द्रीय कमिटी में नहीं रखा पर उनकी हैसियत केन्द्रीय कमिटी के सदस्य जैसी ही थी । जो भी हो पर केपी ओली की राष्ट्रीयता को समझने में समस्या है ।
० आप दोनों तो जेल में एक साथ ही थे न ?
०३२ साल में मुझे हिरासत में लेकर झापा से सेन्ट्रल जेल सुन्धारा लाया गया था । वैशाख से असोज तक मुझे गोलघर में रखा गया । उसके बाद नख्खु जेल चलान किया गया । हम दोनों सुन्धारा के सेन्ट्रल जेल में सिर्फ ५–७ दिन साथ थे । वहाँ उस वक्त केपी, आरके, मोहनचन्द्र आदि साथी भी थे । पर बाद में प्रशासन ने आरके और केपी को वहाँ से दूसरी जगह भेज दिया । बाद में हमने ०३३ साल चैत १२ में नख्खु जेल ब्रेक किया । हम सब रात १२ से १ बजे के बीच में सुरंग बना कर जेल ब्रेक किया था । उस समय वो जेल में नहीं थे ।
० झापा आन्दोलन से लेकर आज तक ओली की चरित्र और शैली में क्या अन्तर आया है ?
०२७–०२८ साल से ०२९ सालतक हमारा सहकार्य हुआ । उसके बाद वो पकड़े गए । बाद में हम सब भी पकड़े गए । जेल से निकलने के बाद हम अलग अलग जगहों से सहकार्य करते रहे । उस वक्त हम युवा थे हममें जोश तो था पर परिपकवता की कमी थी । इसलिए उस समय के ओली और आज के ओली में परिवर्तन आना स्वाभाविक है ।
पर तब से अब तक ओली में संकीर्णता है, प्रतिशोध की भावना है । उनकी नीति व्यक्तिगत होती है । कोई भी निष्कर्ष राष्ट्र के पक्ष में कितना है वो आज भी यह नहीं देखते । मुझे लगता है खास कर केपी ओली की तरफ से हमारी राजनीति समाप्त करने की कोशिश की गई । उनमें सङ्कीर्णता, आग्रह और प्रतिशोधी विचार बहुत है ।
० क्या केपी ओली की ‘राष्ट्रवादी छवि’ के पीछे प्रचण्ड का हाथ है ? आप उनके सम्बन्ध को कैसे लेते हैं ?
केपी ओली की राष्ट्रवादी छवि निर्माण में प्रचण्ड की भूमिका है ऐसा मुझे नहीं लगता है । ये दोनों दो अलग अलग पृष्ठभूमि से आए हुए व्यक्ति हैं । जहाँ तक प्रचण्ड की बात है उनका सबसे बड़ा दोष यह है कि उन्होंने नेपाल के सिद्धान्त से अधिक विदेशपरस्त माक्र्सवाद लागू करने का प्रयत्न किया । इसलिए अभी जो देश में प्रगतिशील राष्ट्रवादी सोच है, वह प्रचण्ड ने जो प्रयोग किया था उस नीति के विरुद्ध है । इसलिए केपी ओली की राष्ट्रवादी छवि निर्माण में प्रचण्ड जी का सहयोग नकारात्मक कोण से ही सिर्फ हो सकता है सकारात्मक कोण से नहीं ।
असोज १७ के गठबन्धन से पहले वो दोनों इस विषय पर अलग अलग सोच के हैं । अभी क्या हो रहा है यह नहीं कह सकता क्योंकि उनकी गठबन्धन किस आधार पर बनी है यह उनहोंने स्पष्ट नहीं किया है । जनता भी असमंजस में है । अब देखना है कि वो कैसे आगे बढते हैं ।
० वर्तमान ओली सरकार के साथ जनता की काफी अपेक्षाएँ हैं आपको क्या लगता है कि ये स्वाभाविक है या अस्वाभाविक ?
ओली नेतृत्व की पहली सरकार ने नाकाबन्दी के सवाल में अपनी अडिगता जाहिर की और चीन के साथ अपने रिश्तों को आगे बढाया इसलिए जनता उनसे काफी अपेक्षा रख रही है जो स्वाभाविक है । दूसरी बात की दो विपरीत दलों ने निर्वाचन में गठबन्धन किया और जो नारा दिया है उसके लिए जनता उनसे बहुत कुछ अपेक्षा रख रही है । पर कैसे इसे पूरा किया जाएगा यह तो समय बताएगा ।
० किसी समय क्रान्तिकारी नेता कामरेड ‘सुभाष’ के साथ मिलने, बोलने के लिए लोग लालायित रहते थे । वो कामरेड सुभाष आज सिर्फ सीपी मैनाली हैं, जिन्हें आज हेय दृष्टि से देखा जाता है । इस रूपान्तरण में ओली की क्या भूमिका रही ?
नेपाल में आज शक्ति की पूजा का संस्कार है । यह बात राजनीतिक रूप से संस्थागत हो चुका है । एकीकरण के बाद शक्ति का केन्द्र दरबार होता था । वहाँ जिस तरह से एक दूसरे को समाप्त करने की परम्परा थी उसने जनता की मानसिकता को भी प्रभावित किया । इसलिए आज हमारे पास शक्ति नहीं होने पर लोग हमसे दूर हैं । यह बात मैं भी समझता हूँ । पार्टी के आन्तरिक सङ्गठन में अथवा पार्टी, पार्टी के बीच में राजनीतिक, वैचारिक सङ्घर्ष, प्रतिस्पर्धा स्वभाविक है । पर एक परिवार के भीतर शत्रुतापूर्ण ढंग से निषेध की नीति अपना कर व्यवहार करना अनुचित है ।
केपी ओली नेकपा (माले)के प्रति ऐसी ही दृष्टिकोण रखते हैं । इसके पीछ कई कारण हैं जो धीरे धीरे पता चलेगी । पर जिस तरह केपी ओली के नेतृत्व ने हमारे साथ व्यवहार किया वह प्रायः नकारात्मक ही है । पर प्रमुख कारण तो हम ही हैं । किन्तु यह सच है कि हमें कमजोर बनाने में एमाले की प्रशस्त भूमिका है ।
० अन्त में सम्माननीय प्रधानमन्त्री तथा एमाले अध्यक्ष केपी शर्मा ओली आपकी नजर में राष्ट्रवादी हैं कि राजनेता हैं ? अथवा साधारण क्षमता वाले नेता हैं ?
वो प्रशस्त कमजोरी वाले राष्ट्रवादी हैं ।



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