आम आदमी की बातें करतीं दुष्यंत कुमार की रचनाएँ ।

एक बच्चा था हवा का झोंका
साफ़ पानी को खँगाल आया है
एक ढेला तो वहीं अटका था
एक तू और उछाल आया है
कल तो निकला था बहुत सज-धज के
आज लौटा तो निढाल आया है
ये नज़र है कि कोई मौसम है
ये सबा है कि वबाल आया है
हम ने सोचा था जवाब आएगा
एक बेहूदा सवाल आया है
दुष्यंत कुमार नई कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं । नई कविता के अधिकांश कवियों को अज्ञेय द्वारा ‘सप्तकों’ से पहचान मिली । दुष्यंत कुमार ‘सप्तक’ के कवि नहीं हैं, बावजूद इसके उनकी ख्याति इन कवियों से कम नहीं है । जहाँ उस दौर के अधिकांश कवि नयेपन के नाम पर अपनी हताशा और कुंठा को काव्यात्मक रूप दे रहे थे, वहीं ‘करोड़ों लोगों’ को अपने भीतर रखनेवाले कवि दुष्यंत कुमार स्वातंत्र्योतर जनविरोधी व्यवस्था की अमानवीयता को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे । उनकी चेतना के केंद्र में आजादी की त्रासदी और पूँजी परिचालित समाज व्यवस्था की विसंगतियों को झेलने वाला सामान्यजन इस कदर बस गया कि उनकी लेखनी अपने समकालीनों से अलग राह पर निकल पड़ी । उनकी कविताओं में किसान–मजदूरों की यातनापूर्ण जिन्दगी के चित्र हैं, बेरोजगारी झेलते हताश, दिशाहीन युवकों की मार्मिक व्यथा है, लोकतंत्र की निरर्थकता को जाहिर करती हुई घटनाएँ है, महँगाई की मार झेलता मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की चिंताएँ और पूँजीवादी षड्यंत्र का यथार्थ है, नैतिक क्षरण और सांस्कृतिक विघटन की सच्चाई है । समकालीन राजनीतिक तथा आर्थिक–सांस्कृतिक–साहित्यिक दुर्दशा को कवि दुष्यंत ने बेबाक और बेखौफ होकर जितनी व्यापकता और ईमानदारी से चित्रित किया है, वह उस दौर के रचनाकारों में विरल है । दुष्यंत कुमार व्यंग्यात्मक तेवर के साथ तत्कालीन जन विरो/ाी घटनाओं पर, एक सरकारी मुलाजिम होते हुए, जिस अंदाज में बेबाक टिप्पणी करते हैं, वह उनकी जन प्रतिबद्धता का प्रमाण है । उन्होंने समाज की वास्तविकता को केवल चित्रित ही नहीं किया, अपितु अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए तीखे तेवर के साथ समाज–व्यवस्था की अमानवीयता की आलोचना भी की ।