Fri. Mar 29th, 2024



 

 

 

 

दिवस खरीदे मजदूरी ने
मजबूरी ने रात
शाम हुई नीलाम थकन को
कुंठाओं को प्रात
जिंदगी अपनी नहीं रही । 
काली सड़कों पर पहरा है
अनजाने तम का
नभ में डरा डरा रहता है
चंदा पूनम का
नभ के उर में
चुभी कील-सी
तारों की बारात
कौन सी पीड़ा नहीं सही ?
जिंदगी अपनी नहीं रही। 
रोज तीर सी चुभ जाती है
पहली सूर्य-किरन
सूरज
शेर बना फिरता है
मेरे प्राण हिरन
कर जाती है
धूप निगोड़िन
पल-पल पर आघात
जिंदगी आँसू बनी वही।
जिंदगी अपनी नहीं रही।

 

जिंदगी की लाश
ढकने के लिए
गीत के जितने कफ़न हैं
हैं बहुत छोटे । 
रात की
प्रतिमा
सुधाकर ने छुई
पीर यह
फिर से
सितारों सी हुई
आँख का आकाश
ढकने के लिए
प्रीत के जितने सपन हैं
हैं बहुत छोटे। 
खोज में हो
जो
लरजती छाँव की
दर्द
पगडंडी नहीं
उस गाँव की
पीर का उपहास
ढकने के लिए
अश्रु के जितने रतन हैं
हैं बहुत छोटे।

आँखों में सिर्फ़ बादल, सुनसान बिजलियाँ हैं,
अंगार है अधर पर सब साँस आँधियाँ हैं
रग-रग में तैरती-सी इस आग की नदी है।
यह बीसवीं सदी है। 
इक डूबती भँवर ने सब केशगुच्छ बाँधे
बारूद की दुल्हन को देकर हज़ार काँधे
हर पालकी दुल्हन से करने लगी वदी है।
यह बीसवीं सदी है । 
बीमार बाग-सी ही है यह अजीब दुनिया
इस प्राणवान तरू की मृतप्राय हम टहनियाँ
इक काँपती उदासी हर शाख पर लदी है।
यह बीसवीं सदी है। 
हर मोड़ पर गली के ये शर्मनाक बातें
टूटी हुई सड़क पर दुर्गंध की बरातें
हर डूबती सुबह ने फिर सुर्ख शाम दी है।
यह बीसवीं सदी है। 
हर सत्य का युद्धिष्ठिर, बैठा है मौन पहने
ये पार्थ, भीम सारे आए हैं, जुल्म सहने
आँसू हैं चीर जैसे हर आँख द्रौपदी है।
यह बीसवीं सदी है।



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