अंतहीन अराजकता की ओर बढता राष्ट्र
कुमार सच्चिदानन्द
सुशासन की प्रतिबद्धता लेकर राष्ट्र की बागडोर सँभाले डाँ. बाबूराम भट्टरर्ई महज एक साल की शासन-यात्रा में निराश हैं और उनकी यह निर ाशा लगातार गहा र ही है । इसीलिए वे शांतिपर्ूण्ा बर्हिगमन की बात सोच र हे हैं । लेकिन परि स्िथति इतनी सहज नहीं है । संसद और संवैधानिक रि क्तता के कार ण हालात उलझे हुए है । यह सच है कि उनकी जगह लेने के लिए यहाँ र ाजनैतिक द्वंद्व जार ी है । विपक्षियों द्वार ा जोर -शोर से उनका त्याग-पत्र माँगा जा र हा है । यह सच है कि इसके बाद का र ास् ता सहमति से खुलता है । लेकिन सहमति की जमीन क्या होगी, यह अज्ञात है और इस दिशा में र ाजनैतिक दलों के सकार ात्मक प्रयास भी नहीं हो र हे । यह सच है कि आज प्रधानमंत्री के उम्मीदवार अनेक हैं । हर बडÞे दल के प्रायः दो तीन नेता इस पद के लिए महत्वाकांक्षा पाल कर बैठे हैं । लेकिन यह भी सच है कि व्यक्ति चाहे कोई भी हो, जब तक दृष्टिकोण में गुणात्मक परिर् वर्तन नहीं होता, समस् याएँ और भी उलझेंगी । कमजोर और अस् िथर शासन देश को अर ाजकता की ओर खींचती है । इस बात को हम सभी बखूबी जानते हैं ।
संविधानसभा का विघटन होना था, हुआ । क्योंकि यह ऐसे महत्वाकांक्षियों की सभा थी जिनका उद्देश्य मूल लक्ष्य को प्राप्त कर ना नहीं अपितु अन्यान्य लक्ष्यों को प्राप्त कर ना था । यह महज संयोग है कि जिस समय संविधान सभा विघटित हर्ुइ उस समय सत्ता की बागडोर नेकपा माओवादी के हाथ में थी और इसके विघटन के बाद उसे कामचलाऊ घोषित कर ना र ाष्ट्र की आवश्यकता थी । र ातोंर ात किसी नई सर कार का गठन सम्भव नहीं था । आज परि स् िथतियाँ उलझी हर्ुइ हैं । लगभग तीन महीने गुजर चुके हैं और इस सर कार का विकल्प तलाशने की दिशा में कोई भी कार गर कदम उठाया नहीं जा सका है । इसलिए सत्ता कब्जा जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं । चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है । इसलिए इस विकल्प को चुनने के लिए हमार ी र ाजनीति को समग्र रूप में तैयार होना चाहिए । लम्बे समय तक शून्यता की यह स् िथति र ाष्ट्र के लिए हितकार ी नहीं । मगर समग्र रूप में देखा जाए तो ऐसी भी पार्टियाँ यहाँ हैं जो चुनाव के यथार्थ से दूर भाग र ही हैं और अपनी कमजोर ी छुपाने के लिए र ाष्ट्रपति को सत्ता की बागडोर सँभालने के लिए पे्ररि त कर र ही हैं । लेकिन इतना तो माना ही जा सकता है कि र ाष्ट्रपति लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई संस् था है मगर उनके शासन को लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता क्योंकि वह किसके प्रति प्रतिबद्ध होगा यह स् पष्ट नहीं । फिर यह सवाल भी महत्त्वपर्ूण्ा है कि अगर र ाष्ट्रपति स् वेच्छाचार ी हो गया तो उसका निदान क्या हो सकता है –
मौजूदा प्रधानमंत्री ने अपनी निर ाशा को व्यक्त कर ते हुए चाभी अन्यत्र होने की बात अभिव्यक्त की थी । प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता छोडÞने पर पुष्पकमल दाहाल प्रचण्ड ने भी बदली हर्ुइ शब्दावली में लगभग इसी प्रकार की अभिव्यक्ति दी और कहा था कि हमार ा अधिकार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जितना भी नहीं । यद्यपि नेपाल की अन्दरुनी र ाजनीति में प्रत्यक्ष हस् तक्षेप की बात भार तीय र ाजनीति और कूटनीति स् वीकार नहीं कर ती लेकिन कहीं न कहीं इन नेताओं की मजबूर ी समझ में आती है । सवाल है कि जब हम अपनी समस् याओं को सुलझाने के लिए दूसर े का मुँह जोहते हैं तो वह अपनी रूचि और हितों की बात तो कर ेगा ही । हमार ी र ाजनीति की समस् या यह है कि वह र्समर्थन भी चाहती है और आलोचना कर ना भी जानती है । इसलिए अपना विश्वास भी गुमाती है और एक तर ह से अस् िथर ता के वातावर ण की सृजना कर ती है । विगत में झलनाथ खनाल की सर कार का पतन इसी असंतुलन के कार ण माना जा सकता है और प्रकार ांतर से उन्होंने भी इस बात को स् वीकार की थी । इसके बावजूद आज भी हमार े नेताओं द्वार ा पद की प्राप्ति के लिए दिल्ली की दौडÞ जार ी है और एक तर ह से समस् या का तात्कालिक समाधान भी ढँूढने का प्रयास जार ी है जो अर ाजकता का आमंत्रण है ।
वैसे भी नेपाल एक कमजोर अर्थव्यवस् था का र ाष्ट्र है और यहाँ विदेशी शक्तियाँ अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय हैं । उत्तर दक्षिण के साथ-साथ पश्चिमी देशों की भी यहाँ सक्रियता अधिक है । यह अस् वाभाविक भी नहीं क्योंकि कोई भी देश अपना कूटनैतिक सम्बन्ध अपने र ाष्ट्रीय हितों की र क्षा के लिए स् थापित कर ता है । इसलिए सर कार की नीतियों को प्रभावित कर ना उनकी प्रमुख र णनीति होती है । र ाजनैतिक अस् िथर ता और तर लता की स् िथति इन प्रवृतियों को और अधिक प्रश्रय देती है । इन प्रवृतियों को एकबार गी र ोका भी नहीं जा सकता । क्योंकि जब तक हम विभिन्ा दृष्टिकोणों से सशक्त नहीं होते और इनकी चालों-कुचालों की सम्यक् व्याख्या कर उसे काटने की क्षमता हासिल नहीं कर ते । लेकिन हमार ी र ाजनीति की यह विशेषता है कि वह कभी र ाजतंत्र की छाया में पली बढÞी है, इसलिए कभी उसका अभिभावकत्व उनके लिए आवश्यक था । आज र ाजतंत्र नहीं है इसलिए उसके अभिभावक की भूमिका में कभी देशी शक्तियाँ होती हैं तो कभी विदेशी शक्तियाँ । इनके इशार ों पर चलते-चलते वे भूल जाते हैं कि उनकी सही स् िथति क्या है । इस प्रयास में वे यह भी भूल जाते हैं कि र ाष्ट्रीय आवश्यकताएँ क्या हैं और उनकी प्रतिबद्धताएँ क्या होनी चाहिए ।
आज र ाष्ट्रपति-प्रधानमंत्री विवाद सतह पर है । दोनों ही संस् थाएँ एक दूसर े के आमने-सामने हैं । संसद और संविधानहीनता की स् िथति में एक शक्ति देश को समय और परि स् िथति अनुसार दिशा देना चाहती है, दूसर ी अपने अविभावकत्व के भाव से इतनी भर ी हर्ुइ है कि अपने अनुसार देश को दिशा देना चाहती है । आज सत्ता से च्युत लोग र ाष्ट्रपति को इस सर कार की बर्खास् तगी और नई सर कार के गठन के लिए उकसा र हे हैं या उनके निकट गुहार लगा र हे हैं । निश्चय ही उनके ये कदम एक ओर कमजोर होती र ाजनैतिक शक्तियों का परि चायक है, दूसर ी ओर इस तर ह वे उस संस् था को उकसा र हे हैं जिसकी अधिक सक्रियता लोकतंत्र के लिए किसी भी रूप में सहायक नहीं मानी जा सकती । यह सच है कि किसी भी देश का शासन संविधान के द्वार ा चलता है, लेकिन कभी-कभी परि स् िथतियाँ ऐसी भी आती हैं जब संविधान की धार ाएँ स् पष्ट नहीं होती, ऐसे में अतीत और पर म्पर ाएँ अधिक महत्व र खती है । इसलिए अगर इस तर ह हमार ी र ाजनैतिक पर म्पर ाएँ विकसित होती हैं तो भविष्य में कभी भी ये दोनो संस् थाएँ टकर ाव की स् िथति में आ सकती हैं जो देश के लिए किसी भी स् िथति में लाभदायी नहीं होगा ।
आज मौजूदा सर कार कामचलाउ की स् िथति में है और देश एक संवैधानिक जटिलता में फँसा हुआ है । सवाल यह उठता है कि आज सर कार बदलना अधिक जरूर ी है या संवैधानिक जटिलता को दूर कर ना । सर कार के पास संवैधानिक विवादों को दूर कर ने की कौन सी चाभी है – वास् तव में सर कार बदलने की बात तो एक बहाना मात्र है, सच यह है कि विगत चार -पाँच वर्षों में पार्टर्ीी हिस् सेदार ी के आधार पर चल र हा देश कहीं न कहीं उन लोगों को नई सर कार में अपनी सहभागिता के लिए प्रेरि त कर ती है जिन्हें अभी अवसर से चूकने का त्रास है । जिस सहमति की सर कार की बात की जा र ही है, उसकी व्याख्या भी बदलते सन्दर्भों में बदलने लगी है । आज चार बडÞे दलों के बीच की सहमति को र ाष्ट्रीय सहमति का नाम दिया जाने लगा है । लेकिन यह भी सच है कि अन्य र ाजनैतिक शक्तियाँ भी यहाँ सक्रिय हो चुकी हैं, जिनकी उपेक्षा किसी भी रूप में आगामी संविधान की र्सवमान्यता पर प्रश्नचिहृन खडÞा कर ेगी और यह स् िथति एक तर ह से फिर अर ाजकता को निमंत्रित कर ेगी । इस संभावित स् िथति से हमार ी र ाजनीति को सचेत र हना होगा । अन्यथा हमार ी स् िथति ‘ढÞाक के तीन पात’ की तर ह होगी ।
आज सर कार बदलने के नाम पर अनेक पार्टियाँ सडÞक आन्दोलन की बात कर र ही हैं । सही मायने में जनान्दोलन-२ के बाद सडÞक आन्दोलन नेपाल में सत्ता परिर् वर्तन की चाभी मानी जाने लगी है । लेकिन इसके आग्रही यह नहीं समझ पा र हे कि वह आन्दोलन निर ंकुश र ाजतन्त्र के प्रति था न कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सर कार के प्रति । आज अगर सर कार के विर ोध में विपक्षी दल सडÞक आन्दोलन का आह्वान कर ती है तो सर कार के र्समर्थक भी सडÞक पर उतर सकते हैं । अगर ऐसी स् िथति आती है तो इसे नियंत्रित कर पाना किसी के लिए भी मुश्किल होगी । सर कार के र्समर्थक दलों ने मिलकर एक वृहत लोकतांत्रिक मोर्चा का गठन किया है । इस मोर्चे के गठन की पृष्ठभूमि में दो बातें प्रबल र ही हैं- उन नई र ाजनैतिक चेतना को संगठित कर उसे संवैधानिक अधिकार दिलाना और सडÞक आन्दोलन जैसी धमकियों का सशक्त प्रतिकार कर ना । इसलिए आज के सर्न्दर्भ में किसी भी सडÞक आन्दोलन का सूत्रपात अर ाजकता के सिवा देश को और कुछ नहीं देगा । समस् या यह है कि सहमति की सर कार बनाने की कोई चाभी र ाष्ट्रपति के पास नहीं और इसकी सही व्याख्या भी नहीं । दूसर ी ओर सहमति के लिए जिस वैचारि क लचीलेपन की आवश्यकता है, वह र ाजनैतिक दलों में नहीं । इसलिए टकर ाव की यह स् िथति बेहतर भविष्य के संकेत नहीं हैं ।
आज देश प्रसव-वेदना से गुजर र हा है और इससे इसे उबार ने की जिम्मेदार ी सम्मिलित रूप से हर संस् था और हर र ाजनैतिक दल का है । श्रेय लेने की महत्त्वाकांक्षा पाल लेने से और दूसर े का महत्त्व कम कर ने का मनोविज्ञान लेकर हम किसी लक्ष्य पर नहीं पहुँच सकते । सत्ता और अवसर का संर्घष्ा तो लोकतन्त्र की विशेषता होती है । इसलिए लोकतन्त्र को संस् थागत कर ना हमार ी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए । त्र