ज़िंदगी में और भी कुछ ज़हर भर जाएगी रात,अब अगर ठहरी रग-ओ-पै में उतर जाएगी रात : सुरुर
ज़िंदगी में और भी कुछ ज़हर भर जाएगी रात
अब अगर ठहरी रग-ओ-पै में उतर जाएगी रात
जो भी हैं पर्वर्दा-ए-शब जो भी हैं ज़ुल्मत परस्त
वो तो जाएँगे उसी जानिब जिधर जाएगी रात
अहल-ए-तूफ़ाँ बे-हिसी का गर यही आलम रहा
मौज-ए-ख़ूँ बन कर हर इक सर से गुज़र जाएगी रात
है उफ़ुक़ से एक संग-ए-आफ़्ताब आने की देर
टूट कर मानिंद-ए-आईना बिखर जाएगी रात
हम तो जाने कब से हैं आवारा-ए-ज़ुल्मत मगर
तुम ठहर जाओ तो पल भर में गुज़र जाएगी रात
रात का अंजाम भी मालूम है मुझ को ‘सुरूर’
लाख अपनी हद से गुज़रे ता-सहर जाएगी रात
चमन में लाला-ओ-गुल पर निखार भी तो नहीं
ख़िज़ाँ अगर ये नहीं है बहार भी तो नहीं
तमाज़त-ए-ग़म-ए-दौराँ से फुंक रही है हयात
कहीं पे साया-ए-गेसू-ए-यार भी तो नहीं
ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत बजा सही लेकिन
अब अपने दिल पे हमें इख़्तियार भी तो नहीं
कभी तो जान-ए-वफ़ा है कभी है दुश्मन-ए-जाँ
तिरी नज़र का कोई ए’तिबार भी तो नहीं
ब-ईं तग़ाफ़ुल-ए-पैहम सितम तो ये है ‘सुरूर’
मैं उस की ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार भी तो नहीं