Fri. Mar 29th, 2024

सर्वप्रथम तो ईश्वर को मानने की बात ही है । हम अपने जीवन में बहुत कुछ मानते ही है, हमारी व्यक्तिगत जानकारी नहीं होती है । यह मेरा भाई है, बहन है, माता है, पिता है आदि बचपन से सुनकर माना ही तो जाता है तो फिर वेद–वाणी से गुरु–वाणी से संतवाणी से सुनकर कि ईश्वर है, इसी में क्यों विकल्प और प्रश्न होता है ? मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ– यह एक प्रकार की ऐंठ ही है । वैसे अधिकांश यह तो मानते ही है कि एक कोई सता है, जो समस्त सृष्टि की रचयिता है, परंतु वही अपना संच्चिदानन्द स्वरुप ईश्वर है, परम कृपालु और सब का रखवारा हैं, यह स्वीकृति नहीं बन पाती ।

हमारे न मानने से उनकी सत्ता में कोई अन्तर नहीं होने का और हमारे न मानने पर भी वे परम उदार हमारे ऊपर क्या करना बन्द नहीं करते । ऐसा नहीं करते कि मुझे नहीं मानेंगे तो सांस नहीं लेने देंगे या इन्द्रियां काम नहीं करेगी आदि । उन्होंने हमें पूर्ण स्वधीनता दे रखी है कि हम उन्हें माने या न माने ।

पर यह तो हमारी अपनी आवश्यकता है कि हमें नित्य और सर्वत्र विद्यमान, सामथ्र्यवान और अहैतु की कृपा करनेवाले जो पात्र–कुपात्र का विचार किए बिना ही कृपा की अनवरत वर्षा करते हो, ऐसे ईश्वर का सहारा चाहिए । उनके होते हुए हम अनाथ और असह्य नहीं है, मात्र उनको स्वीकार करके अपने को सनाथ और समर्थ का सम्बल प्राप्त है– ऐसा अनुभव करेंगे ।
बस, इतना ही तो मानना है कि ईश्वर है– सर्वत्र है, सदैव है, सबके है, एश्वर्यवान है और अद्वितीय हैं । सदैव है, महिमावान है, महिमावान हैं और अपने जैसे एक ही हैं, वे हमें अपना जानते हैं और मानते भी है ।

हिमालिनी  अंक अगस्त , अगस्त 2019 |यह तो हमारी भूल हैं कि हम उनसे विमुख हैं । वे तो लालायित रहते हैं कि यह मेरा अपना कब मेरी और निहारे । वे तो पूर्ण है, उन्हें किसी चीज की आवश्यकता नहीं है । उन्हें तो मात्र प्रेम चाहिए । हमे तो उनकी सत्ता स्वीकार करके उनसे आत्मीय संबंध मानकर उनका प्रेमी बन जाना हैं । प्रेम में देना ही देना होता है, जहां चाह हुई कि वह भी हमें प्रेम करें तो वह प्रेम न होकर प्रेम का व्यापार हो गया । वे मेरे अपने हैं, बस इसीलिए वे मुझे प्यारे लगते हैं । वे मुझे प्यार करेगे या करते हैं कि नहीं, यह वे ही जाने, यह एक दृष्टिकोण की बाते हैं, अन्यथा वे हमें प्यार तो करते ही है, नहीं तो अहैतुकी कृपा की अनवरत वर्षा क्यों करते रहते ?

उनकी सत्ता स्वीकार करने पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि हम उन्हें अपना साध्य बनाए न कि संसारिक उपलब्धियों के लिए साधन । हम से यह भी भूल होती है कि हम अपनी संसारिक इच्छाओं, कामनाओं की पूर्ति के लिए उनसे कहते रहते हैं । अरे, क्या वे अज्ञानी है, क्या उन्हें हमारी आवश्यकताओं का पता नहीं है ? जो वे आवशयक समझेगें, वह हमारे मांगे बिना ही पूरी कर देंगे । और करते है, शरणागत के आवश्यक कार्य प्रभु स्वयं पूरा करते हैं और यह शरणागत साधकों का अनुभव भी हैं । प्रभु से कुछ भी न मांगना अन्यथा घाटे में रहोगे । कृष्ण–सुदामा का प्रसंग इसका सटीक उदाहरण है । द्वारका जाकर सुदामा जी ने कुछ नहीं मांगा तो उन्हें क्या नहीं मिला और यदि वह मांगे होते तो कदाचित यही कहते कि बड़ी गरीबी है, दो जून खाने का प्रबंध कर दो, तो मांगने पर घाटा ही तो होता ।
अगर उसने कुछ मांगना ही है तो मात्र यह कि प्रभु मुझे प्यारे लगो, मुझे अपना प्रेमी बना लो । क्यों ? क्योंकि प्रभु प्रेम से अधिक मूल्यवान कुछ और इस सृष्टि में है ही नहीं । कुछ और मांगेगे तो घाटे में ही तो रहेंगे ।

उनकी महिमा को स्वीकर करना आस्थावान में श्रद्धा उत्पन्न करता है । जब साधक स्वीकार कर लेता है कि उस महामहिम की महिमा का वारापार नहीं है तो उसमें स्वतः श्रद्धा की अभिव्यक्ति होती है ।
श्रद्धा के जाग्रत होते ही अन्य विश्वास, अन्य संबंध, अन्य चिन्तन नहीं रहता और फिर एक ही विश्वास, एक ही संबंध, एक ही चिन्तन रह जाता है । इस दृष्टि से आस्था, श्रद्धा, विश्वास पूर्वक साधक उस अद्वितीय सर्वसमर्थन से जातीय एकता तथा नित्य संबंध स्वीकार करता है और फिर स्वतः अखण्ड स्मृति जाग्रत होती है ।
विडम्बना यह है कि संसार जो अनित्य और परिवर्तनशील है, वह तो हमारी भूल से प्राप्त मालूम होता है और जो नित्य प्राप्त अविनाशी तत्व (ईश्वर) है, वह दूर मालूम होता है । संसार के पीछे दौड़ते है, फिर भी पकड़ में नहीं आता, तब निराश होकर अपनी भूल का अहसास करते हैं तो अपने ही में विद्यमान नित्य, अविनाशी, रसरूप जीवन की मांग का परिचय हो जाता है और उसकी प्राप्ति के लिए हम साधन–पथ अपनाते हैं । वह परमतत्व तो पहले से ही प्राप्त है । बस उससे जो विमुखता है, उसका अन्त होकर उसकी सम्मुखता हो जाती है ।
मनुष्य अनित्य वस्तुओं से सुख की आशा करके उनमें आसक्त हो गया है, इससे ही वह ईश्वर से विमुख हो गया है । उस परम प्रियतम को ही अपना माने, उसी पर विश्वास करे और उसी से प्रेम करें ।
(श्रद्धा विश्वास की हर हर महादेव)



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