तुमतक पहुँचती कहाँ है वादी-ए-सबा गुंचा-ए-दिल,अपनी आरजू लिखूँ, चाहे अपना इन्तजार लिखूँ
प्रणय दिवस पर संजय सिंह की गजल
तुम कहो ,तो मेरी जाँ मैं अपने अर्ज में प्यार लिक्खूँ।
मैंने जो बसर की जिन्दगी उसे खुद पे उधार लिक्खूँ।।
तुम तक पहुँचती कहाँ है वादी-ए-सबा गुंचा-ए-दिल।
अपनी आरजू लिक्खूँ, चाहे अपना इन्तजार लिक्खूँ।।
लौट के फिर आ गयी है भटकती हुई सी वही प्यास।
सोचता हूँ लब-ए-जाँ पानी का क्या किरदार लिक्खूँ।।
तुम्हारे शहर में तो किसी की कोई पहचान नहीं रही।
मौसम-ए-गुल लिक्खूँ कि बारिश का इजहार लिक्खूँ।।
ये बात दीगर है कि कहे से हर मतला शेर नहीं होता।
रेत के दिल पे फिर कैसे अपना वही इसरार लिक्खूँ।।
ये सुबह से शाम तक क्या तो है,जो जलाता है मुझको।
दिल मोम का एक घर,क्यों वही दुख बार बार लिक्खूँ।।