तुम लिखो तो गीत बनता, मैं लिखूँ तो बात बनती : जयप्रकाश अग्रवाल
* एक नज़्म *
तुम लिखो तो गीत बनता, मैं लिखूँ तो बात बनती ।
दो नयन, रस धार बहती, नेह की बरसात बनती ।
जिधर देखो उधर झगड़े, माफ़ कर दे जान तगड़े,
हार कर तुम जीतती हो, जीत मेरी मात बनती ।
ज़िंदगी है चाल चलती, मगर क्यों यह बात खलती ।
तौलता उम्मीद को जब, उमर यह ख़ैरात बनती ।
बहुत दौड़ा पकड़ लूँ मैं, हर किसी से झगड़ लूँ मैं,
वो नज़र से ग़ज़ब ग़ायब, रात यों बदजात बनती ।
सब कहें मैं ख़ूब पागल, जागता रोता चलाचल,
बिन मिले ही बहुत तड़पा, याद भी सौग़ात बनती ।
छोटा हुआ जब दायरा, बन गयी तुम शायरा ।
धोखा दिया फिर सोच ने, सोच ही जज़्बात बनती ।
पेट सबका नहीं भरता, लूट लूट बस मन करता ।
जरूरतें तो बेहिसाब, मुफ़लिसी हालात बनती ।
मुझ बिना ही हर तराना, क्यों बना दुश्मन ज़माना,
खो गया था महफ़िलों में, ख़ाक की बारात बनती ।
न गोटियाँ ना ही पासे, उधार की ही ले साँसें ।
खेलता मैं तो अकेला, अपनी ही बिसात बनती ।