Fri. Mar 29th, 2024

प्रो. नवीन मिश्रा:आज देश बंद रास्ते -डेड इन्ड) पर खडा है । झूठा ही सही, लेकिन पहले नेताओं और राजनीतिक दलों के द्वारा शान्ति प्रक्रिया, संविधान निर्माण, संघीयता की चर्चा गाहे-बगाहे सुनने को मिल जाती थी । लेकिन आज कल तो इन विषयों की चर्चा भी नहीं होती । सत्ता कब्जा से अभिभूत राजनीतिक दलों के बीच बस इसी की होडÞ लगी है । समस्या का समाधान किसी के पास नहीं है । सत्ताधारी दल सत्ता त्याग करने के मूडÞ में नहीं हैं और विपक्षी दल उन्हें हटा कर सत्ता पर कब्जा जमाने की कोशिश में लगे हैं । सत्ताधारी दल चुनाव की बात कर रहे हैं । लेकिन प्रश्न यह है कि क्या विरोधी दलों को विश्वास में लिए बिना चुनाव सफल होगा – दूसरी ओर विपक्षी दल सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं लेकिन प्रधानमन्त्री बनने के लिए किसी एक व्यक्ति पर उन लागों में सहमति बन नहीं पाई है । इसी होडÞबाजी में दोनों ही पक्ष सभा और पर््रदर्शन कर अपनी अपनी शक्ति पर््रदर्शन में लगे हुए हैं । इसी शक्ति पर््रदर्शन के कारण अगर विभिन्न गुटों में टकराव उत्पन्न हुआ तो स्थिति और भी भयानक हो सकती हैं । यह सब देख जनता स्तब्ध है, गम में डूबी है, उदास है कि अब देश का क्या होगा और जनता की स्थिति क्या होगी –



असहमति की राजनीति के अर्थ/अनर्थ
असहमति की राजनीति के अर्थ/अनर्थ

विपक्षी दलों का आरोप है कि वर्तमान सरकार से प्रजातन्त्र को खरता है, इस कारण डा. भट्टर्राई को त्यागपत्र दे देना चाहिए । उनका मानना है कि वर्तमान भट्टर्राई सरकार निरंकुश, र्सवसत्तावादी, आततायी, भ्रष्टाचारी और न जाने क्या क्या है, इसलिए इसे सडÞक आन्दोलन के द्वारा जडÞ से ही उखाडÞ फेंकना जरुरी है । ऐसा होने पर ही प्रजातन्त्र पुनः स्थापित हो सकेगा । विपक्षी दल सरकार को इस कारण भी असक्षम मान रही है कि वह मार्गशर्ीष्ा ७ गते तक चुनाव नहीं करा सकी । जबकि वर्तमान सरकार का तर्क है कि महामहिम राष्ट्रपति के द्वारा अध्यादेश नहीं पास होने के कारण चुनाव नहीं हो सका । इसके लिए सरकार पर दोषारोपण करना गलत है । फिर भी विपक्षी दल सरकार की दलील को किनारा करते हुए सहमति की सरकार गठन करने की आवश्यकता जता रहे हैं । इसी बीच दो और अहम मुद्दे सामने आए है, जिस को लेकर विपक्षी दलों ने सरकार पर हल्ला बोल दिया । इस में पहला है- पत्रकार डेकेन्द्रराज थापा की माओवादी के द्वारा हत्या, दूसरा- कर्नल राजु लामा की गिरफ्ारी, वह भी इंग्लैन्ड में । थापा हत्याकाण्ड के सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री भट्टर्राई द्वारा इस घटना को सत्यनिरुपण आयोग द्वारा जाँच कराने की बात कही गई । इतना ही नहीं प्रधानमन्त्री भट्टर्राई ने महान्यायाधिवक्ता को एक पत्र लिख कर यह आग्रह किया कि इस मामले की सुनवाई शान्ति सम्झौता तथा अन्तरिम संविधान के अनुरुप होनी चाहिए । प्रधानमन्त्री के इस कदम को न्यायपालिका के कार्य में सीधा हस्तक्षेप करार दिया गया । प्रधानमन्त्री पर कानून का भक्षक होने तक का आरोप लगाया गया । जबकि प्रधानमन्त्री और उनके दल का तर्क था कि इस मामले में उनकी मंशा पीडित को न्याय दिलाना था, न कि इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देना, जैसा कि हुआ । खैर, न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बाद इस मामले में कार्यवाही आगे बढÞी है और प्रधानमन्त्री को न्यायलय जाकर इसका जबाव भी देना पडÞा । दलों के बीच विद्यमान असमझदारी को देखते हुए नहीं लगता है कि निकट भविष्य में इनके बीच सहमति बन पाएगी ।
दूसरी ओर सत्ताधारी दलों का आरोप है कि विपक्षी दल प्रजातन्त्र सुदृढÞ करने की आडÞ में सत्ता प्राप्त करने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं । प्रधानमन्त्री ने अभी हाल ही में कहा है कि तीस वर्षों के पंचायतकाल तथा बीस वर्षों के प्रजातान्त्रिक काल में इन्हीं दलों का देश में शासन रहा है और अब एक डेढÞ वर्षसे इन लोगों के हाथों से सत्ता क्या छिन गई, ये लोग बौखला गए हैं ।
सत्ताधारी और विपक्षी दलों के बीच बढÞती असमझदारी के कारण आज देश अराजकता, असुरक्षा तथा आर्थिक संकट की ओर उन्मुख है । लोकतन्त्र तथा आधुनिक सभ्य समाज में राज्य संचालन तथा राजनीतिक दलों की स्वतन्त्रता, स्वाधीनता, अखण्डता, स्वाभिमान की रक्षा तथा जनता के राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक अधिकार का संरक्षण तथा सर्म्वर्द्धन करने में ही प्रजातन्त्र की सफलता निहित होती है । विगत में हुए लंबे समय तक राजनीतिक अस्थिरता तथा हिंसात्मक द्वन्द्व से भी हम आज सबक नहीं ले रहे हैं । सभी समस्याओं की जडÞ यही है । देश में जननिर्वाचित संस्थाओं का अभाव है, जिसके कारण देश और जनता के समक्ष अत्यन्त ही गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है ।
सत्ताधारी प्रमुख दल एमाओवादी का जिस दिन हेंटौडा सम्मेलन का समापन था, उसी दिन प्रमुख विपक्षी दलों के द्वारा काठमांडू में विरोध सभा का आयोजन किया गया था । एमाओवादी द्वारा प्रस्तावित प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में चुनाव करवाने के प्रस्ताव को विपक्षी दलों ने सिरे से खारिज कर दिया । इन दोनों ही आयोजनों में दोनों गुटों की कुछ खास कमजोरियाँ भी उभर कर सामने आई । एक बात निश्चित है कि जनता में प्रमुख दलों के नेताओं के प्रति आक्रोश है । एमाओवाद सम्मेलन में बीबीसी नेपाली सेवा के अनुसार प्रधानमन्त्री की पत्नी के पचास हजार रुपए के जैकेट पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि नेताओं की जिन्दगी विलासितापर्ूण्ा हो गई है जबकि हमारे बहुत से कार्यकर्ता ऐसे भी हैं- जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती है । दूसरी ओर विरोधी दलों के विरोध सभा में कार्यकर्ताओं का ही जमाबडÞा देखने को मिला, आम जनता की उपस्थिति नगण्य भी । न्यायाधीश के नेतृत्व में सरकार गठन करने की बात पर जब महामहिम राष्ट्रपति के द्वारा सहमति जुटाने का प्रयास शुरु किया गया है तो अब एमाओवादी अध्यक्ष पुष्पकमल दाहाल द्वारा यह कह कर पैंतरा बदला जा रहा है कि यह कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं था । इस आलेख के लिखे जाने तक प्रधानन्यायाधीश के नेतृत्व में चुनावी सरकार गठन करने के लिए जोरदार मशकत्त जारी है । लेकिन अभी भी सहमति बन पाएगी या नहीं कहना मुश्किल है । कभी न्यायाधीश महोदय को दलों की शर्तों पर आपत्ति होती है तो कभी विभिन्न दलों के बीच की असमझदारी उभर कर सामने आती है । इसके अतिरिक्त इस प्रकार की सरकार गठन करने के रास्ते में बहुत सारे कानूनी और संवैधानिक अडÞचने भी हैं । जिन्हें दूर करना होगा । मुझे तो लगता है कि इस प्रकार की या तो सरकार का गठन ही नहीं हो पाएगा और हो भी गया तो यह अपने उद्देश्य में सफल हो पाएगी, या नहीं यह कहना मुश्किल है । वास्तव में अगर ऐसा हुआ तो यह दुनियाँ की एक अजूबी सरकार होगी । कार्यपालिका और व्यववस्थापिका पर नियन्त्रण कायम रखने के लिए न्यायपालिका एक सर्वोच्च संवैधानिक निकाय है । और आप न्यायपालिका के हाथों कार्यपालिका या व्यवस्थापिका की शक्ति सौंप रहे हैं । ऐसे में अगर न्यायपालिका स्वेच्छाचारी हो जाए तो उसे कौन नियन्त्रित करेगा – अतः राजनीतिक सिद्धान्त की दृष्टि से भी यह बिल्कुल ही अनुचित प्रयास है । मेरे विचार में तो अगर करना ही था तो र्सवप्रथम प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में संविधानसभा का गठन कर संविधान निर्माण की प्रक्रिया को अंजाम तक पहुँच्ााना ज्यादा जरुरी था, जो अभी समय की मांग है । और इसी नए संविधान के अनुरुप चुनाव, नए सरकार का गठन होना चाहिए था । न्यायपालिका के द्वारा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के कार्यों का संपादन करना व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की विफलता का परिचायक है । यह एक असफल राष्ट्र की निशानी नहीं तो और क्या है – सभी शक्तियों का एक ही जगह पर केन्द्रीकरण चाहेे वह न्यायपालिका ही क्यों न हो, स्वेच्छाचारी या तानाशी व्यवस्था के जनक का परिचायक है । शक्ति पृथकीकरण की अवधारणा के तहत ही शक्तियों को तीन भागों में विभाजित कर सरकार के तीन अंगों की व्यवस्था प्रजातान्त्तिक अवस्था के अर्न्तर्गत की जाती है- व्यवस्थापिका, कार्यापालिका और न्यायपालिका । इतना ही नहीं, अवरोध और संतुलन के सिद्धान्त को भी व्यवहार में लागू किया जाता है, जिससे कि अगर सरकार का कोई एक अंग अपने अधिकारों का अतिक्रमण करे तो दूसरा अंग उस पर नियन्त्रण स्थापित करे ।
आज जरुरत इस बात पर ध्यान देने की है कि देश के संवैधानिक निकाय पदाधिकारिविहीन हैं । स्थानीय निकायों का चुनाव लंबे समय से नहीं हुआ है । सर्वोच्च न्यायालय में भी न्यायाधीशों की कमी के कारण कामकाज ठप्प हैं । देश की आर्थिक अवस्था दिनों दिन जर्जर होती जा रही है । रिमिटेन्स के द्वारा देश में पैसा तो आ रहा है लेकिन सरकारी नीतियों के अभाव में इन पैसों का सदुपयोग उत्पादनशील क्षेत्रों में नहीं हो पा रहा है । सिर्फघर या आँटोलोन जैसे उत्पादित क्षेत्रों में ही इन पैसों का उपयोग किया जा रहा है ।
देश में शासन प्रशासन का दुरुपयोग धडÞल्ले से जारी है । आर्थिक अनुशासन और प्रशासनिक मर्यादा तो तेजी से लोप हो रही है । राष्ट्रीय स्रोतों के सदुपयोग तथा राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील विषय भी उपेक्षित हंै । इन्हीं सभी कारणों से अन्तर्रर्ाा्रीय स्तर पर भी देश की छवि धूमिल हर्ुइ है । अधिकांश लोग कानूनी शासन की स्थापना की बात करते हैं लेकिन खुद ही कानून का उल्लंघन करते हैं । दिशाविहीन देश की स्थिति देख जनता त्रसित है ।
निरंकुश शासन व्यवस्था के विरुद्ध ऐतिहासिक जनआन्दोलन संचालन पश्चात्, विस्तृत शान्ति सम्झौता द्वारा शान्ति प्रक्रिया स्थापना, संविधानसभा राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री के निर्वाचन की व्यवस्था के लिए ही राजनीतिक दलों को देश के नागरिकों ने अपना जनर्समर्थन दिया था । ऐसे में जनता द्वारा राजनीतिक दलों से आशा और अपेक्षा रखना स्वभाविक है । लेकिन आज राजनीतिक दल के अधिकांश नेता राष्ट्रिय हित तथा जनता के अधिकार की सुरक्षा के दायित्व से विमुख नजर आते हैं । नेताओं को समझना होगा कि उन्हें इतिहास ने जो जिम्मेदारी सौंपी है, उसे पूरा करना होगा ।
देश में अभी भी अनिश्चितता की स्थिति कायम हैं । चुनावी सरकार का नेतृत्व करने के लिए जब प्रधान न्यायाधीश ने अपनी सहमति दे दी है तो अब बार एशोसिएसन इसके विरोध में उठ खडÞा हुआ है । उल्लेखनीय है कि इस सम्बन्ध में एक केस भी न्यायालय में लंबित है, जिस पर फैसला आगामी २४ गते आने की उम्मीद है । माओवादी वैद्य समूह तथा मातृका यादव समूह द्वारा राष्ट्रीय सरकार गठन की मांग को लेकर विरोध सभा का आयोजन किया गया है । आगामी सरकार गठन के सम्बन्ध में राजनीतिक दलों के भीतर भी व्यापक विरोध की खबर आ रही है । अब देखना यह है कि ऊँट किस करवट बैठता है और समाधान का क्या रास्ता निकलता है ।



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