त्रिभुवन को ऐसे भगाया गया
बीएल शर्मा:नेपाल में उस समय मिर्ठाई व्यवसाय नहीं था । भारत के राजस्थान से आकर मेरे दादाजी ने नेपाल में यह व्यवसाय शुरु किया । उसी समय से हम लोगों ने श्री ३ सरकार और श्री ५ सरकार के लिए हलुवाई का काम किया । राजा, श्री ३ महाराज और उस समय के प्रधानमन्त्री से लेकर उच्च पदस्थ लोगों के विवाह-व्रतबन्ध में हम लोगों ने ही सेवा की है । जैसे जुद्ध शमशेर, पद्म शमशेर, त्रिभुवन, महेन्द्र, वीरेन्द्र और ज्ञानेन्द्र तक के राज घराने की शादी में हम लोगों ने ही भोज का सम्पर्ूण्ा इन्तजाम किया था । इसलिए ००७ साल में राजा त्रिभुवन ने जब भारत में शरण लिया, उस घटना को नजदीक से देखने का अवसर हमंे मिला । कुछ घटनाओं में तो मैं स्वयं संलग्न था ।
उस समय श्री ३ महाराज के दरबार प्रवेश के लिए पित्तल का पास मिलता था । उसी तरह नारायणहिटी दरबार में श्री ५ बैठते थे । वहाँ के लिए ताम्बे का पास मिलता था । छाती में पित्तल और ताम्बे का पास लटकाकर हम दोनों के दरबार में आते-जाते थे । राजा त्रिभुवन राजनीति को राणाओं की खानदानी गिरफ्त से मुक्त करना चाहते थे । इसीलिए कांग्रेस ने आन्दोलन का आहृवान किया था । दरबार के अन्दर राजा लगभग कैद में थे । अर्थात् उनपर राणा शासन की कडÞी निगरानी थी । बाहर के पहरेदार सिपाही राजा के मुलाकाती लोगों के पास कागज तक नहीं रहने देते थे ।
राजा को राणाशाही के पञ्जे से मुक्त करने की सलाहमसबिरा भारतीय राजदूत के साथ हो रहा था । लेकिन भारतीय राजदूत के पास पत्राचार और सूचना आदान-प्रदान के लिए कोई माध्यम नहीं था । उस कठिन घडÞी में मैंने दरबार में मिर्ठाई पहुँचाने के बाहने पत्रों को राजा और दूतावास के बीच लेजाने/लेआने का काम किया । समय-समय में महाराज त्रिभुवन से मिर्ठाई का अर्डÞर मिलता था । मिर्ठाई की मात्रा कुछ ज्यादा ही होती थी । जिसके चलते मिर्ठाई के अन्दर चिठ्ठी को छुपाकर मैं डाकियाँ का काम करता था । भारत से पंडित नेहरु द्वारा राजा त्रिभुवन को भेजा गया पत्र, भारतीय राजदूत चण्डेश्वर प्रसाद मुझे देते थे । बर्फी की किस्ती में चिठ्ठी को छुपाकर मैं महाराज को पहुँचाता था ।
उस समय गेटकीपर पूछते थे- क्या लेकर आए हो – मै कहता था- मिर्ठाई है । वे लोग कहते थे- इतनी सारी मिर्ठाईयाँ कौन खाएगा – फिर भी सामान्य जाँच के बाद मुझे अन्दर जाने दिया जाता था । मुझे कोई भी शक की नजर से नहीं देखता था ।
भीतर जा कर मैं महाराज को मिर्ठाई देता था । त्रिभुवन सरकार पत्र ले लेते थे । उसी मिर्ठाई के बीच में अपना जवाफ लिखकर वे नेहरु को भेजते थे और कहते थे- ये मिर्ठाई ठिक नहीं है, वापस ले जाओ । पेस्ता की दूसरी मिर्ठाई लाओ । बर्फी के साथ ही राजा का पत्र लेकर मैं भारतीय राजदूत चण्डेश्वर प्रसाद को पहुँचाता था । दूतावास के माध्यम से नेहरु के साथ लम्बा पत्राचार होने पर राजा को भारत भेजना तय हुआ ।
मोटर के रास्ते लेजाना राणाओं के चलते असम्भव था । उस समय नेपाल में हवाईजाहाज की सेवा नहीं थी । राजा को कैसे भारत भेजा जाए, इस बारे में विचार-विमर्श करने के लिए राजदूत ने मुझे बुलाया । राजा को जैसे भी इन्डिया भेजना है, मोटर से भेजना सम्भव नहीं है, राणाओं को पता चलने पर यह योजना धरी रह जाएगी, इसलिए प्लेन से ही उन्हें भारत भेजना निश्चित हुआ । लेकिन जहाज अवतरण के लिए विमानस्थल नहीं था ।
श्री ३ मोहन शमशेर के बेटे विजय के साथ मेरी अच्छी दोस्ती थी । उनको प्रभावित करके पहले विमानस्थल बनाना तय हुआ । और इस काम की जिम्मेवारी राजदूत चण्डेश्वर प्रसाद ने मुझे ही दी । उस समय मिर्ठाई के लिए अनेक सामग्री भारत से ही लाई जाती थी । इसीलिए ‘विमानस्थल बनाना चाहिए’, ऐसा कहने में मुझे आसान हुआ । मैंने विजय शमशेर से बिन्ती कि- मुझे सामान लाने में बडÞी दिक्कत हो रही है, अब विमानस्थल बनवाना जरुरी है ।
२००७ साल आषाढÞ का महीना था । मेरे अनुरोध को विजय शमशेर ने सहज ही स्वीकार कर लिया । मेरे परिचित ज्यानबहादुर इन्जीनियर थे । उनका सहयोग मुझे मिला । गौचरण को विमानस्थल बनाने की स्वीकृति मिलने के २२ दिन में मैंने अपने ही खर्च पर विमानस्थल तैयार किया । ५ सौ गज लम्बाई और र्ढाई सौ गज चौर्डाई का विमानस्थल तैयार हुआ । रामदल गण से भी सुरक्षा की व्यवस्था हर्ुइ थी ।
विमानस्थल का निर्माण जब शुरु हुआ, उसके २३वें दिन दिल्ली से एक जहाज आया । उस में १५-१६ आदमी सवार थे । उन सभी को चण्डेश्वर सरासर शीतल निवास ले गए । भारतीय राजदूतावास लैनचौर में था । लेकिन वहाँ जगह की कमी से राजदूत चण्डेश्वर वर्तमान राष्ट्रपति भवन शीतल निवास में रहते थे । दिल्ली से जहाज में आए नये लोग पञ्जावी भेष-भूषा में दिखाई दिए । उनका खास परिचय किसी को पता नहीं था । राजदूत के सहयोगी के रुप में उन लोगों का परिचय दिया गया ।
विमानस्थल बनाने का मुख्य उद्देश्य राजा को भारत भेजना ही था । जहाज से राजा को भारत भगाने के लिए किसी विश्वासी आदमी का विमानस्थल में होना जरूरी था । मुझे जहाज के बारे में टेक्निकल जानकारी नहीं थी, लेकिन जैसे भी विमानस्थल में बैठना ही होगा, इस आदेश के चलते मुझे एजेन्ट बनने का सुझाव चण्डेश्वरप्रसाद ने दिया । लेकिन एजेन्ट बनने के लिए राणाओं की स्वीकृति अनिवार्य थी । अब मुझे एजेन्ट की नौकरी मांगने के लिए राणाओं के पास जाना पडÞा । उस समय चाँदी के सिक्के को नजरना स्वरुप देकर श्री ३ से कुछ कहा-सुना जा सकता था । यदि नजराना रख लिया जाता तो उस का अर्थ था आप ने जो मांगा वे आपको मिल गया । मैंने भी नौकरी के लिए विजय शमशेर को नजरना स्वरुप एक रुपया रखा । उन्होंने पूछा, किस लिए तुमने ऐसा किया – मेरा जवाफ था- सरकार, अब नेपाल में जहाज आ गया । अब मुझे विमानस्थल में एजेन्ट होकर काम करने की अनुमति दी जाए ।
उस दिन तक मैं विश्वम्भरलाल शर्मा था । दादा को महाराजजी कहा जाता था । इसलिए हम लोगों को भी महाराजजी सम्बोधित किया जाता था । मैंने एजेन्ट के लिए ‘दाम’ चढÞाकार विजय शमशेर से एजेन्ट की नौकरी प्राप्त की । उन्होंने कहा- तुम्हारी नौकरी अब पक्की हर्ुइ, आज से तुम्हारा नाम ‘बीएल शर्मा’ हुआ । उस समय काठमांडू से पटना का हवाई किराया ५० रुपये थे । पटना होते हुए दिल्ली तक का किराया १ सौ २३ रुपये थे ।
इस बीच श्रावण महीने में ही राजा को भारत भेजने की कोशिश की गई । लेकिन हम लोग सफल नहीं हुए । राणाओं ने राजाओं को चारों ओर से सैनिक घेराबन्दी में रखा था । जहाज टेकअप लेते समय पीछे से महाराज को चढÞाकर दिल्ली भेजने की हमारी योजना सफल नहीं हर्ुइ । एक रोज दूतावास से मुझे चिठ्ठी मिली- सबेरे ७ बजे दूतावास आईए । मेरे वहाँ पहुँचने के आधे घण्टे के अन्दर ठीक साढे ७ बजे पाँच गाडिÞयो का एक काफिला तेजी से दूतावास के अन्दर घुसा । वे गाडिÞयां नारायणहिटी दरबार से आई थी । बीच की गाडÞी में राजा त्रिभुवन थे । देश भर में चारों ओर त्यौहार की चहल-पहल थी । राणा लोग जुवा खेलन में मग्न थे । उसी समय महाराज त्रिभुवन छुपते-छुपाते दूतावास पहुँचे । तत्कालीन प्रथा अनुसार नगारा बजाकर जुवा खेलने की अनुमति दी जाती थी तो नगारा बजाकर ही जुवे को बन्द भी किया जाता था । उसी में राणा लोग उलझे हुए थे । ‘राजा दूतावास चले गए हंै’, इसका उन्हें पता नहीं था । नारायण नरसिंह नामक एक आदमी को राणाओं ने राजा त्रिभुवन के एडिसी में रखा था । राजदबार के बाहर रामदल गण पुलिस तैनात थी । उन से बचते हुए दूतावास जाने पर बाद में राणाओं ने नारायण नरसिंह को नौकरी से निकाल दिया था । एडीसी सहित १७ सुरक्षाकर्मी राजा के साथ ही दिल्ली गए थे ।
दरबार से दूतावास आते समय त्रिभुवन शिकारी के पोशाक में थे । दूतावास में आते ही चण्डेश्वर प्रसाद ने मेनगेट बन्द करवा दिया । मैं भी दूतावास परिसर में ही था । इससे पहले जहाज में आए हुए पञ्जावी जैसे दिखे लोग तो एकाएक भारतीय मिलिट्री पोशाक में दिखाई दिए । कुछ ही देर पहले वे राजदूत के सहयोगी थे । अब वे लोग राजा त्रिभुवन को सुरक्षा प्रदान कर रहे थे । ‘राजा दूतावास गए है’, यह सुनते ही राणाओं की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । कुछ ही देर में बाहर से सैनिकों ने दूतावास को घेर लिया । इधर राजदूत ने मुझसे कहा- तुम इन्द्र चौक में जा कर ‘महाराजधिराज दिल्ली भाग गए’ ऐसा हल्ला मचा दो । तब उन्होंने श्री ३ मोहन शमशेर को फोन किया- आप के महाराज हमारी शरण में हैं ।’ उन्होंने नेहरु को भी फोन में कहा- राजा हमारी शरण में हैं, हम क्या करें – उधर से नेहरु ने कहा- घबराने की कोई बात नहीं है, राजा को भारत लिवा लाने का प्रबन्ध होगा ।
महाराज दूतावास में जाने के बाद ही राणाओं ने बाहर से पानी और खाद्य सप्लाई बन्द कर दिया । हम लोगों को पता था- वे लोग ऐसा ही करंेगे । इसीलिए मैंने आवश्यक खाद्यान्न की व्यवस्था की थी । खाद्यान्न की व्यवस्था होने पर भी सोने के लिए जगह की कमी हर्ुइ । त्रिभुवन ने मुझ से कहा- शर्मा जी, बिस्तर की व्यवस्था कीजिए । मेरे पास पैसे नहीं थे । ‘जी अच्छा’ कहकर मैं बहार तो निकल गया, लेकिन मैं कैसे व्यवस्था मिला पाऊँगा, इसी असमंजस में था । असन चौक में एक व्यापारी को, जो मेरा परिचित था, मैंने सारी बात बताई । उसने मुझ पर विश्वास करके ओढÞना-बिछौना का पूरा इन्तजाम कर दिया । उस समय नेपाल में सिर्फडाँक गाडÞी चलती थी । उसी में बिस्तर रख कर दूतावास तक पहुँचाया गया ।
मेरे पहुँचते ही महाराज ने कहा- मेरे पास स्लिपिङ डे्रस नहीं है, क्या किया जाए – आप अपना ही ले आईए । मेरे पास ६ पिस स्लिपिङ डे्रस थे । मैंने सब पहुँचा दिया । युवराज महेन्द्र का कोट दरबार से निकलते वक्त कहीं पर फट गया । ‘शर्मा जी कोट तो फट गया, अब क्या किया जाए -‘ महाराज बोले । इन्द्र चौक में जाकर मैं उस कोट को रफू करा लाया । सभी प्रबन्ध होने पर भी कुछ न कुछ का अभाव वहाँ रहता ही था । दूतावास में आने के बाद दूसरे ही रोज महाराज की सिगरेट समाप्त हो गई । वे जिस ब्रान्ड की सिगरेट पीते थे, वह सब जगह नहीं मिलती थी । मैंने फिर उसका प्रबन्ध किया । सभी के लिए खाने-पीने की व्यवस्था मेरे द्वारा ही होने के कारण राणाओं ने कभी भी मुझे अपने काम में व्यवधान नहीं दिया ।
चार दिनों तक महाराज दूतावास की शरण में रहे । पाँचवें दिन नेहरु का फोन आया । उन्होंने कहा- कल महाराज को ले जाने के लिए एयरफोर्स आ रहा है । उधर मोहन शमशेर को फोन कर दिया गया- किसी किसिम का खतरा होने पर जिम्मेवार आप लोग होंगे । दूसरे रोज मेरी गाडÞी सहित ६ गाडियों में महाराज को पहुँचाने के लिए हम लोग विमानस्थल गए । इस में कांग्रेस का भी र्समर्थन था । उस समय विमानस्थल में लगभग २५ हजार नेपाली जनता उपस्थित थे । मैने तुरन्त एक चहकदार माला उन को पहनाना चाहा । उन्होंने कहा- शर्मा जी, इसका महत्त्व तब होगा, जब हम लौट कर आएंगे । आप उधर ही आइए, भारत में ही आप से मिलेंगे । उस समय उपस्थित जनता की आँखों में राजा के प्रति स्नेह के आँसु दिखाई दिए ।
महाराज के दिल्ली जाने के बाद एक दिन रात के १२ बजे मोहन शमशरे ने मुझे बुला कर कहा- ‘तुमने दूतावास में बहुत काम किया है, वहाँ क्या-क्या हुआ, सब मुझे बतायो ।’ मैंने कहा- सरकार, मैं पढालिखा आदमी नहीं हूँ, मुझे एबिसिडी भी नहीं आती । उहाँ सब लोग अंग्रेजी में बात करते थे । वहाँ की बात मैं क्या बताऊँ – उसके बाद उन्होंने मुझे वापस कर दिया । दूसरे रोज मेरे घर में दरबार की ओर से तलाशी हर्ुइ । मेरे पास जहाज का एक टाइमटेबुल था । उस के अलावा और कुछ नहीं था । उसे लेकर वे लोग चले गए ।
महाराज त्रिभुवन जब दिल्ली में थे, मैं चार-पाँच बार उनसे मिलने गया । एक बार महाराज के पास पैसे की कमी है, ऐसी खबर मिली । उस समय वीरगन्ज के बडÞा हाकिम सोम शमशेर के पास राजश्व का २५ लाख रुपैया जमा था । कांग्रेस ने वही लूट कर २२ लाख राजा त्रिभुवन के पास भेज दिया । त्रिभुवन को पैसा भेजने के लिए तारणी कोइराला के नेतृत्व में तीन आदमी गए थे । त्रिभुवन पाँच महीने के बाद नेपाल लौटे ।
त्रिभुवन जब भारत में थे, ब्रिटिश ने नेपाल में ज्ञानेन्द्र को राजा बनाकर रखना चाहा । मगर भारत त्रिभुवन को ही राजा बनाना चाहता था । ज्ञानेन्द्र और त्रिभुवन में से जनता किस के पक्ष में है, यह समझने के लिए एक ब्रिटिश टोली नेपाल आई थी । टोली आने से पहले राजदूत ने त्रिभुवन की तस्वीर के साथ पर्चा बनाकर चारों ओर प्रचार करने के लिए कहा । कांग्रेस ने भी पर्चाबाजी किया । जगह-जगह में जनता के अतिरिक्त ब्रिटिस गाडी में भी हम लोगों ने पर्चा पहुँचाया । जनता की ओर से ‘हमारे राजा को वापस करो’ कहते हुए ब्रिटिश गाडÞी को तोडÞफोडÞ किया गया । त्रिभुवन के प्रति सकारात्मक सोच बनाने के लिए मैंने सफाई करनेवाले लोगों के माध्यम से ब्रिटिश दूतावास के शौचालय में भी त्रिभुवन का पर्चा भेजवा दिया । ‘यहाँ की जनता राजा त्रिभुवन क पक्ष में हैं’, ऐसा सन्देश ब्रिटिस टोली ने अपने देश में भेजा ।
राजा पाँच महिना के बाद नेपाल वापस आए थे । उस समय मेरी शर्मा एण्ड कम्पनी थी । ‘राजा आनेवाले हैं’, यह जान कर उन्हें लाने के लिए मैंने २ लाख २३ हजार रुपये में सीबीसी जहाज खरीदा था । राजा त्रिभुवन जब विमानस्थल उतरे, उस समय वहाँ लगभग ३५ हजार जनता उनके स्वागतार्थ उपस्थित थी । मोहन शमशेर भी विमानस्थल पहुँचे थे । भीडÞभाडÞ में मोहन शमशेर का चश्मा फूट गया । राजा त्रिभुवन जहाज से बिलकुल सहज रुप में उतर रहे थे । रक्सौल के मदन गुप्ता नामक पत्रकार ने उस समय राजा को कहा- महाराज, हाथ उठाया जाए । उसी समय बहुत सारे पत्रकारों ने उनकी तस्वीर ली । महाराज का वही हाथ उठाया हुआ चित्र अभी तक अखबारों में देखने को मिलता है ।
प्रस्तुतिः प्रतिमा सिलवाल और रामशरण बजगाईं
-साभारः सौर्य दैनिक)
-हिन्दी रुपान्तरणः मुकुन्द आचार्य)