अफ़ग़ान पर रुस समर्थित तालिबान का क़ब्ज़ा और फिसड्डी अमेरिका-चीन-पाक : अनुज अग्रवाल
अनुज अग्रवाल । बिना बड़े रक्त संघर्ष के बाद आसानी से अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़े के बाद तालिबान ने अमेरिका को धमका दिया है कि निर्धारित समय सीमा 31 अगस्त तक अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेनाओं की वापसी कर ले अन्यथा अंजाम अच्छा नहीं होगा। कौन सी ताक़त है तालिबान की इस धमकी के पीछे? चीन और पाकिस्तान? नहीं भाई इसके पीछे है रुस। सन नब्बे के आसपास जब अमेरिका सोवियत संघ के टुकड़े टुकड़े कर और बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था थोपकर अफ़ग़ान से वापस गया था तो शक्ति संतुलन स्थापित करने के लिए उसने व नाटो देशों ने चीन को बड़ा सहयोगी बनकर उसमें प्रचुर मात्रा में निवेश किया जिससे एक दशक में ही चीन बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया , इधर रुस भी एक दशक बाद विभाजन के झटकों से उभरकर खड़ा होने लगा और अफ़ग़ानिस्तान में मिली पुरानी मात को जीत में बदलने के लिए तालिबान को सहयोग व हथियार देने लगा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए तालिबान को भी रुस का साया भा गया। उधर दक्षिण पूर्व के देश जापान व दक्षिण कोरिया आदि भी तेज विकास करने लगे तो दक्षिण एशिया में भारत भी उछाल मारने लगा। इन सब कारणो से अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देशों को एशिया से अपनी पकड़ ख़त्म होती दिखने लगी। इसी कारण अपने पिट्ठू आतंकी संगठन “अल क़ायदा” की मदद से अमेरिका ने न्यूयार्क के टूइन टावर ( जिसमें अधिकतर कार्यालय जापान, कोरिया अरब देशों व चीन की कंपनियों के थे) को उड़वाया व अल क़ायदा को समाप्त करने व आतंकवाद को जड़ से मिटाने के नाम पर अपना व नाटो देशों के भारी सेन्य बल लेकर इस देश में आ धमका और अपने पक्ष में शक्ति संतुलन स्थापित कर लिया। अलक़ायदा के प्रमुख आतंकियों को निबटाने के बाद भी अपनी उपस्थित को लंबे समय तक सही ठहराने के लिए लिए वहाँ प्रगतिशील कठपुतली सरकार की स्थापना की गयी व अफ़ग़ान के पुनर्निर्माण के स्वाँग रचे गए। दो दशकों की कोशिशों के बाद भी बमुश्किल 15% अफ़ग़ानी ही आधुनिकता व विकास के खेल में शामिल हो पाए और यह मात्र शहरों तक ही सीमित रहा और कट्टरपंथी इस्लाम रुस के साये में ग्रामीण अफ़ग़ान में बेखोफ पनपता रहा। सच तो यह है कि अमेरिका व रुस में एक मौन संधि बनी रही और अमरीका का कठपुतली सरकार के माध्यम से शहरों पर व रुस का तालिबान व अन्य आतंकी गुटों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा बना रहा।
ध्यान रहे तालिबान को खड़ा करने में अमेरिका, साउदी अरब और पाकिस्तान का हाथ रहा है। अस्सी के दशक में सोवियत संघ के साम्यवाद के प्रसार को इस्लामिक देशों में रोकने के लिए इस्लामिक देशों का नेता साउदी अरब ने नाटो देशों की रणनीतिक सलाह के अनुरूप “ इस्लाम ख़तरे में है” के नारे के साथ कट्टर व आतंकी इस्लाम को फ़ंडिंग करना प्रारंभ किया और तबसे अफ़ग़ान ही नहीं पूरी दुनिया में अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देश साउदी अरब के कंधे पर बंदूक़ रखकर वहाबी इस्लाम के नाम पर और साम्यवाद के विरुद्ध हर उस देश में कट्टरवादी गुटों को फ़ंडिंग करते आए हैं जो पूँजीवादी देशों के हितों के ख़िलाफ़ खड़ा होता है।
अपने पिट्ठू रहे आतंकी गुटों व तालिबान को रुस के पाले में जाते देख अमेरिका ने पाकिस्तान व चीन की सहायता से नए तालिबान का गठन करवाया और दोनो तालीबानी गुटों में लड़ाई भी छिड़वाई ताकि ग्रामीण क्षेत्रों पर भी उसकी व उसकी कठपुतली सरकार की पकड़ बन जाए। किंतु ऐसा हो न सका और अहम के इस खेल में अमेरिकी रक्षा बजट का बड़ा हिस्सा खर्च होने लगा जिससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर बड़ा बोझ पड़ने लगा और अमेरिकी जनता के बीच इसका कड़ा विरोध होने लगा व राजनीतिक दलो विशेषकर रिपब्लिकन पार्टी को को बड़ा नुक़सान होने लगा। इसी कारण डेमोक्रेटिक पार्टी ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर चुनाव जीती और सेना की वापसी तय कर दी। अमेरिकी राष्ट्रपति बाईडेन के कहने पर ही चीन व भारत सीमाओं से सेना पीछे हटाने पर सहमत हुए व भारत व पाक के बीच सीसफ़ायर के उल्लंघन की घटनाए बंद हो पायी। इसके लिए अमेरिकी पहल पर अनेक गोपनीय बैठक दुबई में की गयीं और फिर अमेरिकी सेनाओं की वापसी का कथानक लिखा गया। यानि वर्तमान में अफ़ग़ान में जो हो रहा है वह पहले से तय गोपनीय योजना व समझोतो के अंतर्गत हो रहा है ।
अमेरिका व नाटो देशों की कोशिश है कि उसके जाने के बाद अफगानिस्तान पर रुस समर्थित तालिबान की जगह चीन- पाक ( ऊपर से प्रतिद्वंदी मगर अंदर से मित्र) समर्थित तालिबान को बढ़त मिले ताकि उसकी पकड़ इस क्षेत्र में बनी रहे। फ़िलहाल तो अफगानिस्तान पर रुस समर्थित तालिबान का क़ब्ज़ा हो चुका है और रुस की सेनायें भी अफ़ग़ान सीमा पर तैनात हैं।चीन व पाकिस्तान ने अपने वाले तालिबान व अन्य आतंकी गुटों के हज़ारों आतंकी भी अफ़ग़ान में घुसेड़ दिए है जिस कारण स्थिति उलझी हुई है व अनेक जगह दोनो पक्षों में परस्पर संघर्ष के बीच मिली जुली सरकार बनाने की बातें साथ चल रही हैं। रूसी तालिबान ने अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए पाकिस्तान को झाड़ भी पिलाई है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति इस समय चरम पर है और सब अपने अपने दांव खेल रहे हैं महाशक्तियों के इस खेल में अफ़ग़ान की जनता और इस्लाम दोनो दाँव पर लगे हैं। विचित्र स्थिति में भारत है । उसने लगातार इस्लामिक आतंक से बचने के चक्कर में अमेरिका व नाटो देशों का साथ दिया व हज़ारों करोड़ रुपए भी अफ़ग़ान में खर्च किए किंतु हाथ कुछ ख़ास नहीं आया। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देशों को लग रहा है कि वे रुस को दबाव में लेकर अपनी अधिकतर शर्तें मनवा लेंगे , इसी कारण अमेरिका समर्थित मीडिया अतिरंजित रिपोर्टिंग कर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है । पर ऐसा हो पाएगा, लगता नहीं। अपनी भारी भरकम सैन्य ताक़त की उपस्थित में जब वे कुछ नहीं करा पाए तो बिना सेना के क्या करा पाएँगे। निश्चित रूप से चीन – पाक की कोशिश रहेगी के वे अमेरिकी सेनाओं के जाने के बाद रुस के साथ शक्ति संतुलन बनाने की कोशिश करें और इसके लिए रुस समर्थित तालिबान से वे संघर्ष भी करने की कोशिश करेंगे किंतु पलड़ा रुस का ही भारी रहने वाला है। अंतत: चीन -पाक भी अमेरिका की तरह हाशिए पर ही जाएँगे । भारत तो हाशिए पर है ही , हाँ कट्टरपंथी ताक़तों के अफ़ग़ान में हावी हो जाने के कारण अफ़ग़ानी जनता विशेषकर महिला व बच्चे भी हाशिए पर आ जाएँगे। तालीबानी लड़ाकों को अब सेना में भर्ती का लिया जाएगा , जिस कारण उनके आतंकी बने रहने व पड़ोसी देशों में घुसने की संभावना कम ही है।