महादेवी के करूण क्रन्दन में, अन्तःकरण का शान्त स्पन्दन है : श्वेता दीप्ति
पुण्यतिथि विशेष
छायावाद में जहां एक ओर रहस्यवाद दिखाई देता है वहीं दूसरी ओर विरह की अनुभूति भी दिखाई देती है । विरह कई स्तरों पर दिखाई देता है । दरअसल परिवार, समाज अथवा जहां भी प्रेम, करुणा होता है वहाँ विरह भी विद्यमान होता है । छायावाद की एक मात्र प्रतिनिधि महिला कवयित्री महादेवी वर्मा के काव्य में विरहानुभूति सर्वोत्तम सफल अभिव्यक्ति है, उन्होंने अपने काव्यगीतों के माध्यम से क्षणभंगुर तथा नाशवान मानव हृदय की अमर पीड़ा को अपनी वाणी के द्वारा अमरत्व प्रदान करने का सफलतम प्रयास किया है । विरह महादेवी की चिरसंगिनी है, जो जीवन के प्रत्येक क्षण उनको आच्छादित किये रहती है, बुद्धत्व के प्रति अनुराग और सामाजिक करुणा का महादेवी के हृदय पर साम्राज्य था, जिसके प्रभाव के कारण महादेवी के हृदय पर वेदना के असीम गहरे रंग परिलक्षित होते है । आपके काव्य में लौकिक और पारलौकिक वेदना की प्रमुखता रही है, महादेवी वर्मा आत्मिक सुख के प्रमुख आधार असीम वेदना को ही मानती है ।
महादेवी वर्मा हिन्दी की प्रतिभावान कवयित्रियों में से एक है जिनकी गणना छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भों में की जाती है। अनुभूतियां जब तीव्र होकर कवि हृदय से उच्छलित होती है तो उन्हे कविता के रूप में संजोया जाता है। महादेवी वर्मा ने मन की इन्ही अनुभूतियों को अपने काव्य में मर्मस्पर्शी, गंभीर तथा तीव्र संवेदनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। महादेवी जी ने अपना काव्य वेदना और करूणा की कलम से लिखा उन्होने अपने काव्य में विरह वेदना को इतनी सघन्नता से प्रस्तुत किया कि शेष अनुभूतियां भी उनकी पीड़ा के रंगों में रंगी हुई जान पड़ती है। महादेवी का विरह उनके समस्त काव्य में विधमान है। वे वेदना से प्रारंभ करके वेदना में ही अपनी परिणति खोज दिखाई देती है। महादेवी जी की वेदनानूभूति संकल्पात्मक अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति है। उनकी काव्य की पीड़ा को मीरा की काव्य पीड़ा से बढकर माना गया है। महादेवी के काव्य का प्राण तत्व उनकी वेदना और पीड़ा रहे। वे स्वयं लिखती है,’ दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है जो सारे संसार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखता है।’ महादेवी की विरह वेदना में परम तत्व की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। उनके काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य प्रिय से बिछुडना और उसे खोजने की आतुरता है। महादेवी जी ने अपने काव्य में आत्मा और परमात्मा के वियोग को विरहानुभूति के रूप में प्रस्तुत किया है।
करूणा और पीड़ा महादेवी वर्मा की चिर संगिनी है। उनके व्यक्तित्व का निर्माण करूणा की भावुकता तथा दार्शनिकता की आधार शिला पर हुआ है। हिन्दी साहित्य में जिस किसी ने अपने काव्य में करूणा, विरह एवं वेदना को चित्रित किया है तो उसमें महादेवी जी का नाम सर्वोच्च है। उनके काव्य में पीड़ा, वेदना, कसक, टीस जैसे भाव ही अधिक मुखरित हुए हैं। महादेवी जी को पीड़ा से बहुत प्रेम है क्योंकि यह वेदना साधारण न होकर अपने प्रिय का दिया हुआ वरदान है। इसीलिए वे इस पीड़ा से क्षण भर भी पृथक होना नहीं चाहती। वर्मा जी की यह विरहानुभूति अध्यात्म प्रधान है किन्तु वह मनुष्य के जीवन से अधिक जुड़ी है, अलौकिक और लौकिक प्रणयानुभूति का सामंजस्य उनकी भावना की सफल अभिव्यक्ति करता है।
छायावादी काव्य में वेदना और पीड़ा का जो उत्कर्ष महादेवी जी के गीतों में मिलता है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। उनके सम्पूर्ण काव्य में प्रेम की गहनता विद्यमान है। वेदना व करूणा उनके काव्य का प्राणतत्व माना गया है । आँखो में अश्रुधारा एवं ह्नदय में असीम वेदना लिए हुए वे उस अज्ञात प्रियतम से मिलने को व्याकुल है।
‘‘जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश,
पथ में बिछ जाते वन पराग
गाता प्राणों का तार – तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आंसू लेते वे पद पखार।
हंस उठते पल में आर्द्र नयन
घुल जाता होठो से विशाद
छा जाता जीवन में बसन्त,
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखे देती सर्वस्व वार।’’
महादेवी जी की काव्य गत प्रणयानुभूति आध्यात्मिक है। आश्चर्य यह देखकर होता है कि जो भावात्मक तीव्रता अन्य कवियों को यथार्थ प्रणयानुभूति के अश्लीलता आ जाने पर भी नही आती वह इनकी कल्पित प्रणयानुभूति में उन्नत आध्यत्मिक स्तर पर भी पाई जाती है। महादेवी जी ने अपनी आत्मा आध्यात्मिक स्तर पर भी पाई जाती हैं । महादेवी जी ने अपनी आत्मा को चराचर विश्व को आवृत्त करने वाला विस्तार देकर भी अपनी प्रणयानुभूति को उर्जस्वित रूप दिया है। उनके सुख – दुःख, जड़ – चेतन के सुख – दुःख बनकर सारी प्रकृति पर छा जाते हैं, सबको प्रभावित करते हैं। व्यापक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट झलकता है कि जो विश्वव्यापी सहानुभूति जायसी ने केवल विरह को प्रदान की थी वही महादेवी जी ने मिलन व विरह दोनों को दी। इनकी इसी विषिष्टता से प्रभावित होकर आलोचना सम्राटआचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं ‘‘छायावादी कहे जाने वाले कवियो में महादेवी वर्मा जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही इसके ह्नदय का भाव केन्द्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ कूट – कूट कर झलक मारती है। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है । उसी के साथ वह रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलन सुख को वे कुछ नही गिनती ।
वेदना जीवन का अनिवार्य भाव है. इसीलिए आदिकाल से ही वेदना और काव्य का अविच्छिन्न सम्बन्ध रहा है। वेदना काव्य को स्पन्दन देती आई है। महादेवी वर्मा की वेदना हिन्दी साहित्य की सर्वोत्कृष्ट निधि है, इनकी विरह वेदना के कारक तत्वों के विषय में हिन्दी आलोचक एक मत नहीं है।
डॉ. नगेन्द्र इस संदर्भ में लिखते हैं-सामयिक परिस्थितियों के अनुरोध से जीवन से रस और माँस न ग्रहण कर सकने के कारण वह एक तो वांछित शक्ति का संचय न कर पाई, दूसरे एकान्त अन्तर्मुखी हो गई। इन उदाहरणों से यही निष्कर्ष निकलता है कि महादेवी की विरह वेदना का मूल कारण तो मौलिक ही है जो उदात्त बन कर रहस्यवादी या आलौकिक बन गया है। महादेवी वर्मा का इस विषय में कहना है सुख-दुख की धूपछाँही डोरों से बुने हुए जीवन में मुझे केबल दुःख गिनते जाना क्यों प्रिय है, यह बहुत लोगों के लिए आश्चर्य का कारण है। जीवन में मुझे बहुत आदर और बहुत मात्रा में सब कुछ मिला है, उस पर पार्थिव दुख की छाया न पड़ी। कदाचित यह उसी की प्रतिक्रिया है कि बेदना मुझे इतनी मधुर लगने लगी है।
महादेवी वर्मा की कविता का संसार विस्तृत है। उसमें विविधता है परन्तु एक निश्चित उद्देश्य भी है जो प्रिय के अदृश्य रूप के प्रति निवेदित है । एक निश्चित स्वप्न लेकर वे कविताएँ लिखी गई है। जीवन को अधिक समृद्ध अधिक सार्थक तथा उपयोगी बनाने की कामना ये वह बार-बार जीवन के लक्ष्य की ओर संकेत करती है। इस प्रकार उनकी कविता जीवन के निकट है वह उन्हें दुख के दोनों रूप प्रिय हैं-
एक यह जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बंधन में बांध देता है और दूसरा वह जो काल एवं सीमा के बंधन में पडे हुए असीम चेतन के क्रंदन को स्वीकारता है । हिन्दी आलोचकों का महादेवी पर यह आक्षेप है कि इनका प्रियतम काल्पनिक है, इनकी विरह-वेदना भी अवास्तविक और काल्पनिक है। स्वयं कवयित्री इस आक्षेप का खंडन करते हुए कहती है-
जो न प्रिय पहचान पाती?
दौड़ती क्यों प्रति शिरा में प्यास विद्युत से तरल बन?
क्यों अचेतन रोम गाते चिर-व्यायमय सजग जीवन?
किसलिए हर साँस तम में सजल दीपक राग गाती?
जो न प्रिय पहचान पाती?
इससे स्पष्ट है कि कवयित्री का प्रियतम उसके लिए जाना-पहचाना है, जिसके विरह में वह रात-दिन दीपक की भाँति जलती रहती है। उसने प्रकृति के कण-कण में अपने प्रियतम का आभास पाया है संसार के प्रत्येक प्रकाश में उसकी ज्योति देखी है। पर फिर भी वह प्रियतम उसकी विरह वेदना को मिटा नहीं सकता है, बल्कि उसने तो निरन्तर उसकी वेदना को बढ़ाया ही है-
जीवन है उन्माद तभी से निधियों प्राणों के छाले.
माँग रहा है विपुल बेदना के मन प्याले पर प्याले।
विरह की पीड़ा जब उनके मानस में स्मृतियों को जगाती है तब उनका ह्नदय किसी भी स्मृति आकुल – व्याकुल हो उठता है। तो वे प्रिय की मधुर स्मृति गा उठती हैं –
‘‘मधुर – मधुर मेरे दीपक जल
युग – युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिफल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम सा घुल से मृदु तन
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल – गल
पुलक – पुलक मेरे दीपक जल
सिहर – सिहर मेरे दीपक जल’’
महादेवी जी की विरहानुभूति में गहन प्रेम वेदना का गांभीर्य भरा है, वह करूणा से लहराता हिलोरे मारता, नाना उमंग – तरंगे उत्पन्न करता सागर है। इनका विरह दुःख नारी सुलभ सात्विक व्यथा धारा से प्रवाहमान है। उसमें अन्तःकरण की विविध कामदशाओं की क्रीड़ा भरी हुई है वह विरह की आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हैं। यही नहीं वह केवल कामदशाओं का दिग्दर्शन ही नहीं कराता अपितु उसमें भक्ति भावना की तन्मयता भरी हुई है और वही कवयित्री के सदय ह्नदय में अजस्र गति से प्रवाहित हो रही है इसलिए इस विरह में ही मिलन का आनन्द है। इस पीड़ा में ही संयोग – सुख है, वेदना में ही हर्ष की सिहरन है और इस करूण क्रन्दन में ही अन्तःकरण का शान्त स्पन्दन है।