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जीते जी करें बुजुर्गों का सम्‍मान, यही है सच्‍चा श्राद्ध : आचार्य विनोद झा वैदिक


जनकपुरधाम/मिश्री लाल मधुकर* । अपने बुजुर्गों के प्रति,पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा का भाव ही श्राद्ध कहलाता है। भाद्रपद की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या तक कुल सोलह दिनों की अवधि पितृपक्ष कहलाती है। इसे कनागत भी कहते हैं। इस समय सूर्य कन्या राशि में चला जाता है। इसीलिए इसे कन्यार्कगत या कनागत कहा जाता है।*



*ब्रह्म पुराण के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां से स्वतंत्र कर देते हैं ताकि वे अपनी संतान से पिंडदान के लिए पृथ्वी पर आ सकें।*

*कर्मपुराण के अनुसार पितर इन दिनों यह जानने के लिए पृथ्वी पर विचरण करते हैं कि उनके कुल के लोग उन्हें याद भी करते हैं या नहीं। यदि श्राद्ध के माध्यम से उन्हें स्मरणांजलि अर्पण नहीं की जाती है तो उन्हें दुख होता है तथा श्राद्ध न करने वाले ऐसे लोगों को पितर श्राप देकर यमलोक लौट जाते हैं।*

*इसके विपरीत श्राद्ध करने वाले व्यक्तियों को पितर दीर्घायु और धन, संतान, विद्या तथा विभिन्न प्रकार के सांसारिक सुखों का आशीर्वाद देकर प्रसन्नतापूर्वक अपने लोक में वापस जाते हैं।*

*परंतु यमराज के सभी पितरों को अपने यहां से स्वतंत्र करने की बात को स्वीकारने में बाधा भी है। भागवद्गीता के अध्याय दो में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है।’ इस तरह से जब नया शरीर धारण कर लेते हैं तो यमलोक में न होकर जीवात्मा नए शरीर में पृथ्वीलोक पर ही रहती है। ऐसे में पितरों की मुक्ति की बात हो या उन्हें श्राद्धपक्ष में तर्पण करने की, यह सवाल बचा रहता है कि आखिर सचाई क्या है? जीते जी अपने माता-पिता की अवहेलना और अनादर करने और मृत्योपरांत उनका श्राद्ध कर्म व तर्पण करने के आखिर क्या कोई मायने हो सकते हैं?*

*किसी कवि ने कहा है, ‘जीते जी होती नहीं पूजा, जग की उलटी रीति रही। मरने पर पूजा होती, यह कैसी रीति है?’ जिस माता-पिता ने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, पढ़ना-लिखना सिखाया और उसका पूरा जीवन निर्माण किया, उसी माता-पिता को वृद्धावस्था में अपमानजनक जिंदगी जीने को मजबूर करना कैसे उचित हो सकता है? ऐसा पुत्र अगर बाद में धूमधाम से श्राद्ध कर्म करें तो भी वह आडंबर, दिखावा व ढोंग ही है। अच्छा होगा जीते जी बुजुर्गों को सम्मान दें, उन्हें प्रेम दें। तब जो श्रद्धा होगी वही श्राद्ध का रूपक होगी, जीते जी खुश करके आशीर्वाद प्राप्त करना।*

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*श्राद्ध से सीधा तात्पर्य है अपने पितरों को याद करना, स्मरणांजलि अर्पित करके उनके एहसानों को याद करना और जीते जी कभी भी दुखित न करना। आज की स्वार्थ भरी दुनिया में बुजुर्गों का आदर घटता जा रहा है और मृत्योपरांत श्राद्ध करके यह बताने का प्रयास किया जाता है कि वे कितने पितर-भक्त हैं। यह तो श्राद्ध की, या यूं कहें कि अपने पितरों की तौहीन है।*

*यदि सचमुच, तहेदिल से जीते-जागते मां-बाप व बुजुर्गों की सेवा की जाए तो मृत्योपरांत अपने मृत परिजनों को स्मरणांजलि प्रस्तुत करना श्राद्ध के माध्यम से सार्थक है। श्राद्ध का औचित्य, श्राद्ध की सार्थकता इसी में निहित है कि बुजुर्गों को जीते जी प्रथम सम्मान मिले, भरपूर प्रेम व प्यार से उनकी सेवा-सुश्रूषा हो जिससे उनकी आत्मा प्रसन्न हो और उनका आशीर्वाद प्राप्त हो।*



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