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yoga diwas 2025 nepal योग जीवन जीने का दर्शन है
डॉ श्वेता दीप्ति, हिमलिनी अंक जून 025 । ‘योग’ शब्द का उद्गम संस्कृत भाषा से है और इसका अर्थ ‘जोडन, एकत्र करना’ है । योगिक व्यायामों का एक पवित्र प्रभाव होता है और यह शरीर, मन, चेतना और आत्मा को संतुलित करता है । योग हमें दैनन्दिन की माँगों, समस्याओं और परेशानियों का मुकाबला करने में सहायक होता है । योग स्वयं के बारे में समझ, जीवन का प्रयोजन और ईश्वर से हमारे संबंध की जानकारी विकसित करने के लिए सहायता करता है । आध्यात्मिक पथ पर योग हमको ब्रह्माण्ड के स्व के साथ वैयक्तिक स्व के शाश्वत परमानंद मिलन और सर्वोच्च ज्ञान को प्रशस्त करता है । योग सर्वोच्च ब्रह्मांडमय सिद्धान्त है । यह जीवन का प्रकाश, विश्व की सृजनात्मक चेतना है जो सदैव सजग रहती है और कभी सोती नहीं; जो हमेशा थी, हमेशा है और हमेशा रहेगी ।

शरीरिक स्वास्थ्य का जीवन में आधारभूत मूल महत्व है । जैसा कि स्विट्जरलैण्ड में जन्मे चिकित्सक, पैरासैलसस ने बहुत ठीक कहा है, “स्वास्थ्य ही सब कुछ नहीं है, किन्तु स्वास्थ्य के बिना सब कुछ शून्य है ।”स्वास्थ्य को बनाने और उसको संजोये रखने के लिए शारीरिक व्यायाम, आसन, श्वास व्यायाम (प्राणायाम और तनावहीनता, विश्राम, शिथिलता, आदि) तकनीकें हैं ।
योग का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के जीवन में अंधकार को दूर करना और प्रकाश की ओर ले जाना अर्थात समाज में सकारात्मक प्रदान करना है । आजकल के जीवन शैली में लोग अपनी शारीरिक और मानसिक अवस्था को नकारात्मकता के द्वारा बिगाड़ते चले जा रहे हैं, जिसका असर कहीं ना कहीं उनके मन शरीर और आत्मा तीनों पर पड़ता है । व्यक्ति ईश्वर के प्रति अपना विश्वास खोता चला जा रहा है ऐसे में योग व्यक्तियों को ईश्वर में विश्वास दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । व्यक्ति में आत्म साक्षात्कार करना और योग के माध्यम से व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर लेकर जाना, आसनों के द्वारा उनका शारीरिक विकास करना, प्राणायाम के द्वारा उनको प्राण शक्ति के बारे में बताना, और व्यक्ति को जीवन शक्ति के बारे में बताना ये सभी योग के महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं ।

योग शब्द भारत और नेपाल में एक आध्यात्मिक प्रकिया के रूप में प्रचलित है । जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है । यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म,जैन धर्म और हिंदू धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है । योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगतें लोग इससे परिचित हैं । ‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है । इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ– समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध । वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा । गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है ‘योगः कर्मसु कौशलम’ योग से कर्मो में कुशलता आती है । स्पष्ट है कि यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है । कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं । इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलंबी भी, जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं । यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं । पंतजलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’, चित्त की वृत्तियों के निरोध . पूर्णतया रुक जाने का नाम योग है । इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैंः चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं ।

परंतु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है । उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है । पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का निस्शेष हो जाना । यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा । क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा । निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ? योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो । विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों ।

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संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक रूप से समझना बहुत सरल नहीं है । संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से उसका समर्थन करता है । अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करता है । बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने संप्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं ।

इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिसपर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए । यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है । थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं ।

हिन्दू धर्मदर्शन और योग
मानव सभ्यता जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी योग की उत्पत्ति मानी जाती है, लेकिन इस तथ्य को साबित करने का कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं है । इस क्षेत्र में व्यापक शोध के बावजूद भी, योग की उत्पत्ति के संबंध में कोई ठोस परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं । ऐसा माना जाता है कि भारत में योग की उत्पत्ति लगभग ५००० साल पूर्व हुई थी । बहुत से पश्चिमी विद्वानों का मानना था कि योगा की उत्पत्ति ५००० साल पूर्व नहीं, बल्कि बुद्ध (लगभग ५०० ईसा पूर्व) के समय में हुई थी । सिंधु घाटी की सबसे प्राचीन सभ्यता की खुदाई के दौरान, बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य उभरकर सामने आए । खुदाई के दौरान, इस सभ्यता के अस्तित्व वाले साबुन के पत्थर (सोपस्टोन) पर आसन की मुद्रा में बैठे योगी के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं । मूल रूप से, योग की शुरूआत स्वयं के हित की बजाय सभी लोगों की भलाई के लिए हुई है ।
मूलतः योग का वर्णन सर्वप्रथम वेदों में ही हुआ है लेकिन यह विद्या वेद के लिखे जाने से १५००० ईसा पूर्व के पहले से प्रचलन में थी, क्योंकि वेदों की वाचिक परंपरा हजारों वर्ष से चली आ रही थी । अतः वेद विद्या उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ज्योतिष या सिंधु सरस्वती सभ्यता है । वेद, उपनिषद, गीता, स्मृति ग्रंथ और पुराणों में योग का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । योग की महिमा और यज्ञों की सिद्धि के लिए उसकी परमावश्यकता बतलायी गयी है । इसी सिद्धांत को ऋक् संहिता में स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है ।
यस्मादूते न सिध्यति यज्ञो विपश्चिपतश्चन ।
स धीनां योगमिन्वति ।। – (ऋक् संहिता मंडल १, सूक्त १८, मंत्र ७)
अर्थात योग के बिना विद्वान का कोई भी यज्ञकर्म नहीं सिद्ध होता, वह योग क्या है सो चित्तवृत्ति निरोधरूपी योग या एकाग्रता से समस्त कर्तव्य व्याप्त हैं, अर्थात सब कर्मों की निष्पत्ति का एकमात्र उपाय चित्तसमाधि या योग ही है ।

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वैदिक योग
वेदों के अनुसार, भारत में योग की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई है । सबसे प्राचीन योगिक शिक्षाएँ वैदिक योग या प्राचीन योग के नाम से मशहूर हैं और इसे चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में देखा जा सकता है । वैदिक योग से जुड़े अनुष्ठान और समारोह मन को तरोताजा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इसलिए, उस समय लोगों ने वैदिक योग को जीवन के बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू के रूप में अपनाया था । योग को अदृश्य दुनिया से जुड़ने और अपने आप को किसी के प्रति समर्पित करने का एक तरीका माना जाता है । उस समय समर्पण का उपयोग करके ही एक बात पर लंबे समय तक ध्यान केंद्रित किया जाता था । इसलिए, वैदिक योग को योग की जड़ माना जाता है । संस्कृत में ऋषि वैदिक योग के गुरू “सिद्ध पुरूष” के नाम से मशहूर थे ।
प्रारम्भिक–शास्त्रीय योग
वैदिक योग के बाद प्रारम्भिक–शास्त्रीय योग का युग आया और इसे उपनिषदों के निर्माण के रूप में चिन्हित किया गया था । इसकी अवधि लगभग २,००० वर्षों की थी और यह योग दूसरी शताब्दी तक चला था । इस योग के कई रूप हैं, लेकिन इस प्रारंभिक योग के अधिकांश योग, वैदिक योग के समान ही हैं ।
उपनिषद के तीन विषय – निर्णायक सत्य (ब्राह्मण), स्व अनुभवातीत (आत्मा) और इन दोनों के बीच के संबंध को, वेदों में समझाया गया है और इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि योग की उत्पत्ति उपनिषद् के साथ हुई है । हिंदुओं की एक अत्यंत महत्वपूर्ण पवित्र पुस्तक भगवद–गीता (भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का संग्रह), इस अवधि के उत्कृष्ट योग धर्मग्रंथों में से एक है । इसके अलावा रामायण और महाभारत (भगवद–गीता की तरह ही) में भी योग का समावेशन था । इस समय वाले योग में शरीर और मन को अपने वश में करके ध्यान केन्द्रित करने की कई तकनीक और आत्म यथार्थ की खोज करने के लिए दिव्य शक्तियाँ मौजूद थीं ।
इस अवधि का योग हिंदू धर्म के साथ–साथ बौद्ध धर्म से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि छठी शताब्दी ईसापूर्व में भगवान बुद्ध ने ध्यान के महत्व पर शिक्षण देना शुरू कर दिया था ।
शास्त्रीय योग
योग सूत्र में शास्त्रीय योग का प्रमाणीकरण किया गया था और पतंजलि ने दूसरी शताब्दी के आसपास शास्त्रीय योग के निर्माण के प्रतीक का व्याख्यान किया था । सूत्र शब्द का अर्थ “धागा” होता है, लेकिन यहाँ पर इसका अर्थ “स्मृति का धागा” है, जिसमें पतंजलि के छात्र पतंजलि के ज्ञान और बुद्धिमत्ता को बरकरार रखते हैं । १९५ वचन या सूत्र योग के आठ अंग – यम (नैतिक मूल्य), नियम (शुद्धता का व्यक्तिगत रूप से पालन), आसन (शारीरिक व्यायाम), प्रत्याहार (ध्यान के साधन की रचना), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (चिंतन) और समाधि (विमुक्ति) हैं ।
पतंजलि का मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति का निर्माण तत्व (प्रकृति) और आत्मा (पुरुष) से मिलकर होता है । योग के माध्यम से, इन दोनों को पृथक करके आत्मा का शुद्ध रूप में नवीनीकरण किया जा सकता है ।
पूर्व–शास्त्रीय योग
पूर्व शास्त्रीय योग का ध्यान वर्तमान पर केंद्रित था । इसमें पतंजलि योग–सूत्र के बाद, अस्तित्व में आने वाले योग के सभी अनुभाग निहित होते हैं । शास्त्रीय योग से विपरीत, पूर्व शास्त्रीय योग में सब कुछ कठोर एकाग्रता पर केंद्रित होता है । इस अवधि के दौरान योग ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया था, क्योंकि इस अवधि के योग शरीर के अंदर छिपी क्षमता की जाँच करने में सक्षम थे । इसलिए, शरीर का नवीनीकरण करने के लिए योग गुरुओं द्वारा साधनाओं की एक प्रणाली का निर्माण किया गया था । इससे परिणामस्वरूप वर्तमान योग के एक शौकिया प्रारूप हठ–योग की रचना हुई ।

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आधुनिक योग
माना जाता है कि वर्ष १८९३ में शिकागो में आयोजित धर्मों की संसद में आधुनिक योग की उत्पत्ति हुई थी । स्वामी विवेकानंद ने धर्मों की संसद में, अमेरिकी जनता पर स्थायित्व से परिपूर्ण प्रभाव डाला था । उसके फलस्वरूप वह योग और वेदांत की ओर छात्रों को आकर्षित करने में काफी सफल हुए । उसके बाद, दूसरे योगगुरू परमहंस योगानन्द को माना जाता है । वर्तमान समय में, पतंजली योग पीठ ट्रस्ट के स्वामी रामदेव ने भारत के प्रत्येक घर में और यहाँ तक विदेशों में भी योग का प्रसार करने में कामयाबी हासिल की है ।

योग वास्तव में भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है और इतिहास के साथ–साथ योग में भी परिवर्तन देखने को मिले हैं । बावजूद इसके योग की महत्ता सदैव थी सदैव रहेगी । सवाल सिर्फ इतना है कि बदलना हमे स्वंय को है हमें ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करनी होगी । शरीर को बदलो मन बदलेगा । मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी । बुद्धि बदलेगी तो आत्मा स्वतः ही स्वस्थ हो जाएगी । आत्मा तो स्वस्थ है ही । एक स्वस्थ आत्मचित्त ही समाधि को उपलब्ध हो सकता है । जिनके मस्तिष्क में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही े रहते हैं । उन्हें जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं । योग से समस्त तरह की चित्तवृत्तियों का निरोध होता है– योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंतस्करण । चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंतस्करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है । योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना और विश्वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बहुत ही खिलाफ है । योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो और सदैव मानसिक तथा शारीरिक रूप से स्वस्थ रहो । योग जीवन जीने का दर्शन है । योग से मन शांत, शरीर स्वस्थ और आत्मा सुद्ध होती है । आधुनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए योग का अभ्यास करना बेहद जरुरी है । योग को अपनाएँ, इसे अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाएं और अपने भीतर छिपी असीम शांति और शक्ति का अनुभव करें ।

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