Fri. Mar 29th, 2024

डॉ. श्वेता दीप्ति:किसी भी सदी में यह क्षमता नहीं होती कि, वह एक निश्चित अवधि में समाज, साहित्य और संस्कृति को समझ ले । काल, समय अपनी अबाध गति में बहता है, बहुत कुछ अतीत से लेता है और बहुत कुछ विगत में नया जोड़ता चला जाता है । देश की नब्ज कुछ

पिछले दिनों में मधेश अपने ही देश में, अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है किन्तु, परिणाम के तौर पर अगर कुछ हिस्से में आया है तो मौत, अपमान और गालियाँ । सामाजिक संजाल गालियों से रंगे हुए हैं । लगता ही नहीं कि मधेश इसी देश का हिस्सा है । जहाँ तक इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाय तो यही नजर आता है कि, मधेश और वहाँ रहने वाली जनता वहीं की है । न तो वो शरणार्थी हैं और न ही भगौड़े, फिर क्यों हमेशा उनके पहनावे, उनके रंगरूप को अपमानित किया जाता रहा है ? क्यों कभी बिहारी तो कभी भारतीय कह कर गाली दी जाती है ? अगर इतिहास को माना जाय, तो यह स्पष्ट जाहिर होता है कि जो राष्ट्रवाद का मुहर अपने ललाट पर लगाकर राष्ट्रीयता का ढोल पीट रहे हैं, वही यहाँ के नहीं हैं ।
ऐसी ही गति से धड़क रही है । शोषित, शोषण और शोषक के बीच निरन्तर जंग जारी है । अस्रिुथररुता औरुररु असंतोरुष व्याप्त हैरु, जिद औरुररु जुनून नेरु देरुश कोरु विचलित कररु दिया हैरु, बावजूद इसकेरु सत्ता पक्ष की ढुलमुल औरुररु स्रुरुवार्थपररुक नीति मेरुं कोरुई बदलाव नजररु नहीं आ ररुहा हैरुरु। अगररु कुछ बदल भी ररुहा हैरु, तोरु वह सिर्फ उनकी सत्ता सिद्धि केरु लिए, जिसमेरुं सिर्फ उनका फायदा हैरुरु। विगत दोरु महीनोरुं मेरुं अगररु देरुश केरु एक हिस्रुरुसेरु नेरु कुछ देरुखा हैरु, तोरु वह हैरु अपनी अनदेरुखी, दमन औरुररु हिंसारु। पिछलेरु दिनोरुं मेरुं मधेरुश अपनेरु ही देरुश मेरुं, अपनी अस्रिुरुतत्व की लडथरता और असंतोष व्याप्त है, जिद और जुनून ने देश को विचलित कर दिया है, बावजूद इसके सत्ता पक्ष की ढुलमुल और स्वार्थपरक नीति में कोई बदलाव नजर नहीं आ रहा है । अगर कुछ बदल भी रहा है, तो वह सिर्फ उनकी सत्ता सिद्धि के लिए, जिसमें सिर्फ उनका फायदा है । विगत दो महीनों में अगर देश के एक हिस्से ने कुछ देखा है, तो वह है अपनी अनदेखी, दमन और हिंसा । पिछले दिनों में मधेश अपने ही देश में, अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है किन्तु, परिणाम के तौर पर अगर कुछ हिस्से में आया है तो मौत, अपमान और गालियाँ । सामाजिक संजाल गालियों से रंगे हुए हैं । लगता ही नहीं कि मधेश इसी देश का हिस्सा है । जहाँ तक इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाय तो यही नजर आता है कि, मधेश और वहाँ रहने वाली जनता वहीं की है । न तो वो शरणार्थी हैं और न ही भगौड़े, फिर क्यों हमेशा उनके पहनावे, उनके रंगरूप को अपमानित किया जाता रहा है ? क्यों कभी बिहारी तो कभी भारतीय कह कर गाली दी जाती है ? अगर इतिहास को माना जाय, तो यह स्पष्ट जाहिर होता है कि जो राष्ट्रवाद का मुहर अपने ललाट पर लगाकर राष्ट्रीयता का ढोल पीट रहे हैं, वही यहाँ के नहीं हैं । किन्तु यह सारी बातें बौद्धिक जगत के लिए मायने नहीं रखते । परिवर्तन सृष्टि का नियम होता है और मनुष्य यायावर है । वह भटकता है, बसता है और समाज, देश या राज्य का निर्माण करता है । यह हमेशा से होता आया है और होता रहेगा । इसलिए इन बातों को वर्तमान से जोड़कर विवाद का विषय बनाना मुर्खता से अधिक कुछ नहीं है ।mahila
नए संविधान की प्रतीक्षा देश का हर नागरिक कर रहा था । क्योंकि इससे उनकी उम्मीदें जुड़ी हुई थीं । कड़े संघर्ष और शहादत के बाद विगत के हुए समझौतों को जो अन्तरिम संविधान मे शामिल था, उसके कार्यान्वयन का इंतजार था मधेश की जनता को । किन्तु अप्रत्याशित रूप से मधेशी दलों को दरकिनार करते हुए चार दलों के बीच समझौता होना और उसके बाद जो मसौदा आया उसने मधेश को एक बड़ा झटका दिया । मधेशी जनता खुद को ठगा महसूस कर रही थी । मधेश की जनता ने पूरे तौर पर मसौदे को नकार दिया था । अगर सत्तापक्ष में दूरदर्शिता होती तो वह समय की चाल को जरुर पहचान जाते । किन्तु उन्होंने स्थिति की गम्भीरता को नहीं समझा, या फिर यूँ कहें कि, समझना नहीं चाहा । उन्हें शायद यह लगा था कि थोड़ी बहुत खलबली मचेगी और सब शांत हो जाएँगे । किन्तु इस बार मधेश की जनता ने एक अदम्य साहस का परिचय दिया है, जिसका अन्दाजा किसी ने नहीं किया था । बिना किसी नेतृत्व के जन सैलाब उमड़ा और अपने बृहत रूप में जनशक्ति का प्रदर्शन किया । जब–जब गोलियाँ चली तब–तब और भी जोश और अधिक संख्या के साथ लोग सामने आए । अपना कारोबार, अपने बच्चों का भविष्य और अपनी जिन्दगी सब दाँव पर लगा दिया । मधेश आन्दोलन के ४५ दिनों तक प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या कोई भी सरकारी अधिकारी, किसी ने भी मधेश की जनता को सम्बोधन करने की जरुरत महसूस नहीं की । टीकापुर घटना के ३३ दिनों के बाद प्रधानमंत्री को वहाँ की जनता की सुध आई । किन्तु यहाँ भी वो सफल नहीं हुए, उनके कार्यकर्ताओं और क्षत्री, ब्राह्मणों के अलावा कोई मिलने नहीं आया । सत्तापक्ष की हर सोच विफल होती गई । उन्हें यह लगा था कि, चंद लाशों का गिरना कोई मायने नहीं रखता । एक बार संविधान लागू हो जाएगा तो सब शिथिल हो जाएँगे । किन्तु ऐसा नहीं हुआ । संविधान जारी होने से पहले भी एमाले अध्यक्ष के.पी ओली के सामने मधेशी और थारु नेताओं ने जाकर कहा कि इतने लोग मारे गए हैं ऐसे में संविधान जारी करना उचित नहीं होगा ।

किन्तु उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और कहा कि ये चंद लोगों द्वारा की जा रही गतिविधियाँ हैं, जो बहुत जल्द शांत हो जाएँगे । बाबूराम भट्राई भी समय–समय पर अपना असंतोष व्यक्त करते रहे । किन्तु बहुमत के मद में मस्त सत्ता ने ह्विप जारी कर के, जो विश्व इतिहास में अनूठा और अवैज्ञानिक है, संविधान को लागू किया गया । संविधान का लागू होना और पड़ोसी राष्ट्र भारत का असंतोष व्यक्त होना, इसने अचानक नेपाल की राजनीति की शिथिलता जो मधेश आन्दोलन को लेकर बनी थी उसे दूर कर दिया । मधेश का आन्दोलन तो शिथिल नहीं हुआ, हाँ सत्तापक्ष की शिथिलता जरुर दूर हो गई । मधेश के प्रत्येक सीमा पर मधेशी जनता की नाकाबन्दी ने सत्ता के गलियारों में हलचल मचा दिया । अब स्थिति ऐसी नहीं थी कि सेना परिचालन कर के और गोलियाँ बरसा कर नाका से गाडि़यों को ले आया जाय क्योंकि सीमा पर गोली बारी की नहीं जा सकती और मधेश की जनता दिनरात सीमा पर डटी हुई है । महज एक सप्ताह में देश की या यूँ कहें कि काठमान्डू की गति बदल गई है । अधैर्य और असंयमित पहाड़ी समुदाय अपने शासकों की कमी को न देखकर भारत को लगातार गालियाँ देती आ रही है । सवाल उनको अपने शासकों से पूछना चाहिए था कि किसी भी आपातकालीन अवस्था से लड़ने के लिए उनकी नीति क्या है ? क्यों दो चार दिनों में ही देश की अवस्था इतनी लड़खड़ा गई ? क्यों सरकार ने देश के एक हिस्से को नजरअंदाज किया ? खरबों का घाटा किस आधार पर सरकार ने होने दिया ? पर नहीं, जो जनता डेढ़ महीने से खामोश थी, अचानक मुखर हो गई, किन्तु अफसोस कि यह मुखरता सिर्फ गालियों और असंयमित व्यवहार तक ही सीमित रह गई, अपनी समस्या सरकार तक पहुँचाने की अपेक्षा अपना रोष पड़ोसी राष्ट्र को गाली देकर उसके राष्ट्रीय झन्डे को जलाकर, भारतीय मीडिया या चैनल को प्रतिबन्धित कर के निकालते रहे । अभाव ने अधैर्य को इस कदर जन्म दिया है कि अपनी कमजोरियाँ ही नजर नहीं आ रही है । राजधानी में मधेशी मूल के नेताओं को पीटना, गाडि़यों में सफर करती मधेशी लड़कियों को अपशब्द कहना, दुकानों में मधेशियों को भारतीय कहकर सामान नहीं देना और चन्द्रनिगाहपुर में दो समुदायों के बीच द्वन्द्ध होना आखिर इन सबका जिम्मेदार कौन है ? मधेश आन्दोलन के डेढ़ महीनों में मधेश की जनता ने अपने धैर्य की परीक्षा दी है । कहीं से कोई ऐसी घटना सामने नहीं आई जहाँ मधेशियों ने किसी समुदाय विशेष के साथ कुछ गलत किया हो । अगर कुछ गलत हुआ भी है तो वह प्रहरी और सेना की संलग्नता में समुदाय विशेष की ही ओर से । किन्तु इस ओर न तो दृष्टि है और न ही सवाल ।
अब तक कोई निष्कर्ष सामने नहीं आ रहा । प्रधानमंत्री कौन बनेगा और कब बनेगा यह खेल जारी है । सब अपनी–अपनी गोटी फिट करने में लगे हुए हैं । प्रधानमंत्री कोईराला अब तक पदमोह में ही फँसे हुए नजर आ रहे हैं । वार्ता का माहोल बन रहा है और कुछ हद तक सकारात्मक भी दिखाई दे रहा है । मधेश की माँगों में से एक माँग सेना की वापसी पूरी हो चुकी है । मधेश आन्दोलन के क्रम में शहादत प्राप्त परिवार को सरकार ने दस लाख की राशि देने की बात मान ली है किन्तु शहीद घोषित करने की बात अब तक अटकी हुई है । मृतकों के परिवारों को क्षतिपूर्ति, आन्दोलन के क्रम में घायल हुए लोगों के उपचार, गिरफ्तार हुए लोगों की रिहाई की माँग आदि बातों पर कोई निष्कर्ष सामने नहीं आया है । २०६३ में हुए आठ सूत्रीय सहमति में स्वायत्त मधेश प्रदेश के आधार पर संघीय सीमांकन, जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र, समानुपातिक समावेशी के आधार पर प्रतिनिधित्व आदि बातें शामिल थीं । मंत्री परिषद् के बैठक में जनसंख्या के आधार पर चुनाव क्षेत्र और समानुपातिक समावेशी प्रतिनिधित्व से सम्बन्धित विषयों पर संविधान में संशोधन करने का निर्णय तो किया है किन्तु सबसे विवादित विषय सीमांकन पर अभी भी असमंजसता की स्थिति बनी हुई है । मधेशी मोर्चा का यह मानना है कि जब तक सीमांकन पर कोई सही बात सामने नहीं आती तब तक आन्दोलन जारी रहेगा । उनकी अगली रणनीति असहयोग आन्दोलन की है । तराई, मधेश में जितने भी सरकारी कार्यालय, कर कार्यालय और वित्तीय संस्था हैं उनसे सरकार को जो कर प्राप्त होता है उसे रोकने की योजना बनाई जा रही है ।
बात बहुत लम्बी खींच गई है । अगर मधेश के प्रति सरकार गम्भीर होती तो आज स्थिति इतनी भयावह नहीं होती किन्तु, सरकार ने मधेश के मनोबल को कम आँका, फलस्वरूप मधेश की जनता, देश और सरकार दोनों पर से अपना यकीन खोती जा रही है । सरकार अपने जिस अहंकार के लबादे को ओढ़कर देश का भविष्य निर्धारण कर रही थी, वही आज की विषम परिस्थिति का कारक बना हुआ है । शासक वर्ग की बोली और प्रवृत्ति में जहाँ अहंकार और दमन का अंश शामिल हो जाता है, वहाँ तानाशाही प्रवृत्ति जन्म लेती है और यह प्रवृत्ति कभी भी किसी भी देश के लिए ना तो चिरस्थायी हुई है और ना ही फलदायी । कहते हैं आप जो बोयेंगे वही काटेंगे । सबल पक्ष हमेशा सोचता है कि हम मसीहा हैं और हम हीं जनता के भाग्यविधाता । हम जो करेंगे, जैसा करेंगे जनता को मानना पड़ेगा । किन्तु आज का वक्त बदल गया है । अधिकार और अस्मिता की पहचान आम जनता को हो गई है । तानशाही कुछ वक्त के लिए भले ही मनोबल को कमजोर कर दे, किन्तु यह वह बीज है जो एक बार अगर जम गई तो कभी सूखती नहीं । जरा भी समय अनुकूल हुआ तो प्रस्फुटित हो जाती है । मधेश ने अपना मनोबल गोलियों के सामने डटकर और बृहत मानव श्रृंखला के रूप में विश्वपटल पर दाखिल करा लिया है । अब इसे न तो नकारा जा सकता है और न ही नजर अंदाज किया जा सकता है, इस बात को अब भाग्यविधाताओं को भी समझ लेना होगा ।



About Author

आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: