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वीपी जन्मशताब्दी विशेषः कोइराला कथा संसार की नारी पात्र

विजेता चौधरी , काठमांडू ,९ सेप्टेम्बर | ( साहित्य )
भारत के वाराणसी में वि.सं. १९७१ भाद्र २४ गते पैदा हुए बहुप्रतिभा सम्पन्न विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला का १०२ वाँ जन्मशताब्दी नेपाल में मनाया जा रहा है ।
कोइराला प्रजातान्त्रिक राजनेता के साथ साथ सिद्धहस्त नेपाली साहित्यकार भी हैं । ये बताने रहने की आवश्यकता नहीं कि कोइराला नेपाली साहित्य के एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कथा रचयिता हैं ।



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साहित्य की चर्चित विधा उपन्यास तथा कथा में कोइराला का योगदान अतुलनीय रहा है । उपन्यास से अधिक उनके कथाओं की अपनी ही विशिष्टता रही है । अगर देखा जाए तो कथा के माध्यम से व्यक्ति के रहस्यपूर्ण मन के भीतर पैठ कर पाठक की जिज्ञासाओं का समाधान करना कोइराला का अभिष्ठ रहा । मनोवैज्ञानिक चरित्र विश्लेषण उन के कथा का सशक्त पक्ष माना जाता है । मानव मन की जटिल ग्रन्थियों का विश्लेषण के कारण ही उनकी कथाओं ने श्रेष्ठता हासिल की है ।
मनोरोगी नेपाली नारी की मानसिक पीडा व वेदना का यथार्थ विश्लेषण और रहस्योदघाट्न कोइराला ने अपनी कथाओं में किया हेै । उनकी कथाओं ने सामाजिक कुरीति एवम् कुसंस्कारों का व्यङ्गपूर्ण चित्रण करने के साथ मानवीय जीवनेक्षाओं का वकालत भी किया है । उन्होंने वस्तुतः व्यक्ति के मन में उत्पन्न होनेवाले नकारात्मक व खराब असर एवम् घातक परिणाम का खोज किया है ।
उन्होंने अपनी संस्कृति, परम्परा व समाज की सापेक्षता में फ्रायडवादी चिन्तन को कथा में समायोजन किया । कोइराला का पहला आधुनिक मनोवैज्ञानिक कथा शारदा में प्रकाशित चन्द्रवदन, १९९२ हेै । प्रथमतः चार हिन्दी कथाओं के माध्यम से कथा लेखन की यात्रा शुरु करनेवाले कोइराला ने नेपाली में चन्द्रवदन १९९२ से एक रात २०३९ तक कुल २६ कथाओं की रचना की लिखे हैं । उनकी दो कथा संग्रह दोषी चश्मा वि. सं. (२००६) तथा श्वेत भैरवी वि.सं. (२०३६) प्रकाशित है ।
कोइराला एक यथार्थवादी कथाकार हैं । मनोलोकिय यथार्थ इन के कथाओं का मूलभूत आधार रहा है । मन का चेतन अचेतन तह तथा इद व अहम वृत्ति के बीच द्वन्द्व का उपस्थापन कर पात्र के अन्तस तक पहुँचने का प्रयास उन्होंने अपने प्रायः प्रत्येक नारी प्रधान कथा में किया है । यद्यपि पात्र के सन्दर्भ में देखा जाए तो पुरुष पात्र के चरित्र चित्रण से अधिक मनोविकृत नारी पात्र का चरित्र चित्रण में कथाकार का ज्यादा झुकाव देख सकते हैं ।
कर्नेल का घोडा, कोइराला का एक उत्कृष्ट यौन मनोविश्लेषणवादी नारी चरित्रप्रधान कथा है । प्रस्तुत कथा में ४५ वर्ष का बूढा कर्नेल साहव व १९ वर्षीया तरुणी कर्नेल्नी का पारिवारिक जीवन के घटना विशेष को मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रण किया गया है । बूढा कर्नेल जवान पत्नी की यौनतुष्टि प्रदान करने में असफल है । उस की वासना के वेग का रोकथाम भी करने में असफल अपने पति के प्रति उसके मन में तिरस्कार की भावना उत्पन्न होती है । और अपनी असंतुष्ट यौनपिपासा शान्त करने के लिए जवान कर्नेल्नी तवेला में हिनहिना रहे हृष्टपुष्ट घोडा के प्रति अनायास आशक्त हो उठती हैं । ये विकृतिमय अनैसर्गिक आशक्ति प्रतिदिन बढ्ता ही जाती है । जो कार्य कर्नेल को पसन्द नहीं । मन की इच्छा तो पूरा नहीं कर सकती इसलिए घोडे की शुश्रुषा कर के आनन्द प्राप्त कर रहीं हुँ, ये देख कर इष्र्या करने वाले अपने पति के प्रति कर्नेल्लनी और विद्रोही बन जाती है । इस प्रकार कर्नेलनी के अचेतन में दमित यौनाशक्ति को घोडा जैसा ही हृष्ठपुष्ठ पुरुष को प्रेम के लिए विकल चरित्र के रुप में दर्शाया गया है । अपने पति को नीचा दिखाने के लिए कर्नेलनी घोडे की सेवा ही नहीं करती कर्नेल द्वारा चोट दिए गए घोडा को मलहम लगाना, चुम्बन करना तथा घोडे की सवारी करना यहाँ एक तरफ कर्नेल को हीन दिखाने का कर्नेलनी का अभिप्राय के रुप में आया है वहीं प्रतीकात्मक रुप में घोडा के प्रति अतिशय झुकाव उसकी यौन तुष्टि के रुप में दर्शाया गया है ।
पवित्रा कथा की प्रमुख पात्र पवित्रा शारीरिक रुप में कुरुपा व अपङ्ग अन्तर्मुखी चरित्र है । पवित्रा अकेले रह रहें केशवदेव का खाना बनाती है । लेकिन मालिक केशवदेव के प्रति पति जैसा प्रेम एवं सम्मान प्रदान करती आ रही है । वहीं केशवदेव प्रति एक प्रकार का अधिकार जमा चुकी है, जो अधिकार अव्यक्त रुप में मन में ही सिञ्चित रखती है । कपने कामकर्तव्य को वो एक पत्नी की ही तरह करती रहती है तथा मानसम्मान व बोली वचन में केशवदेव को हमेशा अपने पति के रुप में व्यवहार करती है । लेकिन जब वह सुनती है कि केशवदेव विवाह कर रहे हैं तो उस का अचेतन मन विक्षिप्त हो उठता है । पवित्रा मानसिक रुप में कुण्ठित होती है । कोइराला ने इस कथा में पवित्रा को टूटे हुए व्यक्तित्व के रुप में चित्रित किया है ।
होड पुरुष एवम् स्त्री मानसिकता को सहज व सरल ढंग से उतारी गयी नारी प्रधान कथा है । पति पत्नी के बीच तीसरे व्यक्ति द्वारा द्वन्द्व की सृजना कोइराला का प्रिय वस्ुत है । प्रस्तुत कथा में पति पद्म व पत्नी पद्मा नए दुलहा दुलहन हैं । हास परिहास के साथ साथ एकदिन दोनों के बीच वादविवाद शुरु हो जाता है । पद्म कहता हेै सभी पत्नी एक जैसी होती हैं हृदय की अस्थायी, उमंग में बहनेवाली, चरित्रहीन, शक्तिहीन ।
पति का ऐसा तर्क सुनने के बाद पद्मा क्रोधान्ध हो उठती है और कहती है ऐसे ही आक्षेप नहीं लगा सकते प्रमाण दो । उक्त विवाद हारजीत की पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है । पदमा कुछ ही दिन पहले विधवा हुई हरिकृष्ण की विधवा को भ्रष्ट करो तो मानू कहते हुए दुलहा को १५ दिन का समय देती है । दाम्पत्य मेें तीसरे व्यक्ति के आगमन से उत्पन्न होने वाले मनमुटाव, मनोमालिन्य पदमा को आहत बनाता है । पदम द्वारा ऐसे ही हरिकृष्ण का घर चला गया था कहने पर दोनो के बीच शक का गहरा पर्दा पड जाता है । चेतनमन स्वयम को सामान्य दिखाना चाहता है लेकिन अचेतन मन पद्मा को भीतर ही भीतर जला रहा होता है । हरिकृष्ण के विधवा के घर पदम का जाना ही पदमा को क्लान्त बना देता है । कोइराला ने इस कथा में मानसिक रुप से कमजोर पात्र के रुप में पद्मा को चित्रित कर नारी मनोवृत्ति का विलक्ष्ण चित्र प्रस्तुत किया है ।
सखी कथा में चन्द्रकुमारी का यौन इच्छा अपने घर में केवल १५ दिनों के लिए भाडा में रहने के लिए आए युवक के प्रति आकर्षित है । उस के घर में बहाल में रहने आए असाधारण व्यक्तित्व वाले युवक के प्रति उसका मन खींचा चला जाता है । अचेतन में दमित यौनकुण्ठा चन्द्रकुमारी को युवक की तरफ धकेलता रहता है । वो बाहर से जितना भी पतिव्रता होना चाहें पर आन्तरिक रुप में अवचेतन मन में युवक के व्यक्तित्व से प्रभावित है । युवक का द्वारा हात पकडने पर पति को पता चल जाएगा इस डर से मात्र उसको तिरस्कार करति है वरना उस को युवक का स्पर्श बुरा नहीं लगा है । चन्द्रकुमारी का स्वभाव जानकर युवक उस से चुम्बन का आग्रह करता है । जल्द ही चले जाने वाले व्यक्ति को चुम्बन का चाह क्यों रखनी पडी ? कहते हुए एक छोटा सा चिट लिख कर युवक के कमरे में रख देती है । चिट पढने के बाद युवक उसके प्रति मतलब रखना छोड देता है ।
इस प्रकार आपनी यौनइच्छा तीव्र रही अवस्था में शान्त होकर लिखने का काम कर रहे युवक को देखना उसे असह्य होता है । उसे लगता है कि युवक उसका उपहास कर रहा है यह सोच कर पागलों की तरह युवक का कापी छीनकर फाड कर फेंक देती है । चन्द्रकुमारी अचेतन में युवक के प्रति आकर्षण के कारण असमान्य कार्य कर बैठती है । वहीं चेतन मन का विवेकमय आचरण से इच्छा पूर्ण करने के लिए प्रतिवन्धित है । इस प्रकार चेतन व अचेतन के भावों के बीच वो कुण्ठित होती है ।
स्वेटर कथा में जवान मैयाँ एवम् पडोस की उस की समवय की सहेलियाँ दोपहर के समय में ऊन व काँटा लेकर स्वेटर बुनने के लिए बैठती थीं । एक दिन मैयाँ काले में सफेद चितिरवितिर ऊन खरीदकर लाती है । ऊन को देख कर सभी लालायित हो उठती हैं । मैयाँ ने पूछा कितने घर बनाउँ ? उस की सहेली जानकी ने पूछा किस भाग्यवान का है क्या पता ? मैयाँ का अचेतन मन गजराज प्रति आकृष्ट है । लेकिन दुर्भाग्यवश स्वेटर जितना जितना तैयार होता है उतना ही उसका रुप बिगडता चला गया । अन्ततः दुःखित होकर मैँया स्वेटर अपने नौकर रामे को दे देती है ।
प्रस्तुत कथा में स्वरुप विगरा हुवा स्वेटर नौकर रामे को दिया गया प्रसंग सामान्य रुप में दिखाया गया है यद्यपि प्रतिकात्मक रुप में उक्त स्वेटर रामे को देना, उस के भीतर दबी हुई यौन कामना के रुप में आयी है । मैयाँ ने स्वेटर रामे को दे दी, इस बात को लेकर सहेलियों के बीच हसी के साथ समाज में भी हल्ला मच जाता है । एक दिन मैयाँ की पडोसन कहती है स्वेटर नौकर को देना ही था तो चुपचाप देती । इस बात पर मैँया ललककर कहती है क्या नौकर इन्सान नहीं ? इसप्रकार अभिजात वर्ग की मैयाँ ने एक नौकर के लिए ऊँचनीच का दहलीज पार करना वा उस के प्रति प्रेम भाव दर्शाना उस के भीतर दमित यौन उत्कण्ठा की पराकाष्ठा हैे । दूसरी तरफ घर पर मालकिन न होने की अवस्था में दूसरे नोकर रामे को छेडते हैं जो सुनकर भी मैँया कुछ नहीं कह पाती है, उस की शक्ति, क्षीण होती प्रतीत होती है । मैयाँ की अवस्था को उस के अचेतन में रहे यौन वितृष्णा को दर्शाता है ।
मधेसतिर कथा में चार लोग घरबार विहिन, भूख मिटाने तथा रोजगारी पाने के उद्देश्य से मधेस जा रहे हैं । उन के समूह में एक विधवा भी है जो घरबार जोड कर नया जीवनसाथी पाने की लालसा से मधेस जा रही है । चार पुरुष में जवान गोरे की तरफ विधवा की आशक्ति है । वो अपने भाग का खाना भी गोरे को खिलाती है । इतना ही नहीं मेरे साथ विवाह करो, मै अभी जवान हूँ, मैने अपना शरीर भी बचा के रखा है कहते हुए अपने पास कुछ सोना होने की बात भी गोरे को बताती है ।
रात में सभी साथ में सोते है पर जब सुवह उठते हैं तब गोरे नहीं होता है । विधवा अपने गहने की पोटली गायव देखकर बिलख बिलख कर रोने लगती है । गहना खोने की घटना कथा में मार्मिक मोड लेता है । विधवा की सम्पूर्ण आशा गहने के साथ जुडी थी जो टूट जाती है । उस गहना के भरोसे विधवा नया घरवार पति तथा बच्चे की कल्पना कर के मधेस जा रही होती है । इस प्रकार सोना खोने से विधवा का सारा सपना विखर जाता है । कोइराला ने प्रतीकात्मक रुप में पोटली खोने तथा उस के बिलख के रोने को विधवा के यौन अभिलाषा के उपर आघात पडने का संकेत किया है ।
श्वेतभैरवी कथा संग्रह में संकलित इस कथा को नारी यौन मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से अत्यन्त उत्कृष्ट माना गया है । प्रस्तुत कथा में कथाकार की नौकरानी लेलहा की बेटी फगुनी का केवट सँस्कृति के अनुरुप बचपन में ही चुमौन हो चुका है, एवम वह गौना की प्रतीक्षा में बैठी है । जवान हो चुकी फगुनी में यौन चेतना की वृद्धि हुई है जो चेतना दमित अवस्था में है । सानोबाबु के घर में काम करते वक्त सो यौन कामना ने प्रकटित रुप लिया है । एकान्त में सानोबाबु पूछता है फगुनी तुम्हारा दुल्हा कहाँ हैं ? इस पर वो कहती है तुम ही मेरे दुलहा हो । इसी प्रकार कथा में अविकसित आम का पेड को प्रतीकात्मक रुप मे यौन चाहना जो की अवसर नहीं पाए अवस्था को दर्शाता है । वहीं कोशी नदी की बहाव को भी कोइराला ने कथा में प्रतिकात्मक रुप से नारी यौन उन्माद के प्रतीक के रुप में दर्शाया गया है । मनोवैज्ञानिक हिसाव से फगुनी श्वेतभैरवी का रुप धारण कर सानोबाबु के उपर आक्रामक होती है जो असामान्य नारी यौन मनोविज्ञान का अभिव्यक्ति का उत्कर्ष क्षण है । कोइराला ने ‘श्वेतभैरवी कथा में गलत सामाजिक सँस्कार प्रति चुनौती देने के लिए उक्त कथा लिखा है । और इस में नारी के जीवन में दमित यौन इच्छा किस हद तक भयावह रुप ले सकता है इस बात को मनोवैज्ञानिकता के साथ समुदघाटित भी किया है ।
कथाकार कोइराला ने श्वेत भैरवी कथा संग्रह में संगृहित राइटर बाजे कथा में नारी मनोविज्ञान के साथ नियतिवाद के रुप में पाठक के सामने पेश किया है । प्रस्तुत कथा में सडक से उठा के राइटर बाजे ने भोटिनी को आश्रय ही नहीं दिया पत्नी ही बना के रखा । और बिमार पति के सेवा में भोटिनी ने फिर शरीर बेच कर उसका इलाज करवाया और पति की मृत्यु पश्चात संसार से अलग घर के एक कोने में मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए अपने विगत की मीमांशा करती है । कथाकार कोइराला ने प्रस्तुत कथा में नियतिवाद का चित्र प्रस्तुत किया है ।
चन्द्रवदन कोइराला का एक उत्कृष्ट यौन विश्लेषणवादी नारी चरित्रप्रधान कथा हैे । १९ वर्षीया चन्द्रवदन का पति जेल में पड जाने के बाद का समय निरसता पूर्वक कठिनाई से व्यतीत करती रहती है । इतने में सामने के मकान के वरामदे में एक गुण्डा जैसा जुल्फीवाला दिखता है । अपने को संयमित करते हुए भी रोज रोज के देखा देखी से चन्द्रवदन २५ वर्षीय जुल्फी वाले के प्रति आर्कर्षित होती चली जाती है । बरामदे में बार बार आना, हर जगह जुल्फीबाला दिखना तथा चन्द्रवदन द्वारा जुल्फीवाले की प्रतीक्षा करना इस बात को कथाकार ने असामान्य नारी यौन मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति में उत्कृष्ट क्षण के रुप में प्रस्तुत किया है । वहीं मनोवैज्ञानिक रुप में मनोरोगी नारी पात्र में रहें असामान्य यौन मानसिकता को सहज कला अभिव्यक्ति प्रदान किया है ।
कोइराला का प्रेम पहिलो कथा में धनाढय बाप की बेटी राजकुमारी की उमर हो जाने के बाद भी विवाह नहीं हुआ है और उस में योैन अचेतन असमान्य रुप में विकससित है । इसी उन्माद में सभी जात अभिजात का पर्दा उठाते हुए राजकुमारी अपनी खिडकी से दिखने वाले गरीब ब्राह्मण को एक रात अपना सर्वस्व सौप आती है । यौन इच्छा पूर्ण होने के बाद वहीं ब्राह्मण राजकुमारी को रुग्न व फूहड नजर आता है ।
कोइराला ने उक्त कथा में नारी के मन के भीतर दब कर रहे यौन इच्छाओं को सहज रुप में विश्लेषण किया है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से रुग्ण नारी मनोग्रन्थि को सुक्ष्म विश्लेषण भी किया हेै । प्रस्तुत कथा में राजकुमारी ने ब्राह्मण को आलिङ्गन की गई स्थिति को उसकी असमान्य मानसिक अवस्था का विश्लेषण करता है वहीं राजकुमारी द्वारा ओढा गया काला दोसल्ला यौन प्रतीक के रुप में प्रस्तुत हुआ है ।
इस प्रकार कोइराला के कथा की नारी पात्र मनोविश्लेषण के आधार में बृहत आयाम विस्तार की हुई है । वहीं उन के कथा की सहयोगी स्त्री पात्रों की उपस्थिति भी सशक्त रही है । कोइराला ने अपनी कथाओं में नारी पात्रों की असामान्य मानसिक तथा यौन मानसिक गहराई तक पहुँचने का प्रयास किया है । उनकी कथाओं में नेपाली सामाजिक, सांस्कृतिक, रुढि एवम अन्ध परम्परा से पीडित नारी का मानोविशलेषण हुआ है । इतना ही नहीं मानवीय तत्व तथा मानसिक संवेग का कलात्मक वर्णन किया गया है ।



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