हे मानव तुम उदार बनो
रवीन्द्र झा ‘शंकर’/p>
जो प्रसन्न र हता है , वही उदार है । मनुष्य में प्रसन्न र हने की इच्छा स् वाभाविक है , परंतु अज्ञानी मनुष्य यह नहीं पहचानता कि सच्ची प्रसन्नता क्या है – वह अंजानवश प्रसन्नता का नाम ले -ले कर उस रो कने वाली वस् तुओं की इच्छा कर बै ठता है औ र अप्रसन्नता को अपना ले ता है । जिन वस् तुओं को पाने से इन्द्रियों को सुख औ र न पाने से दुःख हो ता है । अज्ञानी मनुष्य उन वस् तुओं को पाकर थो डी दे र के लिए अपने को प्रसन्न मान ले ता है औ र उनके नष्ट हो जाने पर फिर दुःखी हो ने लगता है । थो डी दे र का सुख ही तो संसार का वह दुःख है , जिसने सुख के स् वाँग बना र खा है औ र सारे संसार को ठग र खा है । इस थो डी दे र के सुख की चाह ही मनुष्य जीवन की सुंदर ता को नष्ट कर डाली है । थो डी दे र की प्रसन्नता ही मनुष्य की ठगिनी है । यही अप्रसन्नता का सच्चा रुप है । थो डÞी दे र की प्रसन्नता ने ही संसार की प्रसन्नता छीनी है । यदि मनुष्य इस थो डी दे र की झूठी प्रसन्नता के पीछे न पडता, तो उसे सच्ची प्रसन्नता हाथ लग जाती । अज्ञानी ने भूल से यह मान लिया कि संसार के पदाथोर् ं मे ं मनुष्य को प्रसन्न कर ने की शक्ति है , पर ंतु सच्ची बात यह है कि उनमे ं मनुष्य को प्रसन्न कर ने की शक्ति नहीं है । अपने को प्रसन्न र खने की शक्ति तो मनुष्य के ही मन मे ं है औ र वह शक्ति उसकी शुद्धता है । संसार कान खो लकर सुन ले कि मन को शुद्ध र खे बिना संसार मे ं कोर् इ भी कभी लाख प्रयत्न कर के भी प्रसन्न नहीं र ह सकता ।
जब मनुष्य भूल से कुछ पल अपने को प्रसन्न कर ने की मान ले ता है , तब वह उन्हे ं अपनाकर सदा दुखः ही दुख भो गता र हता है । वह मधु मे ं लिपटी हर्ुइ मक्खी के समान अपने को पदाथोर् ं के साथ लिपटा ले ता है औ र उनके बन्धन मे ं बँधकर दुःख भो गता र हता है । अज्ञानी को लुभाने वाली बस् तुएँ इस संसार मे ं र्सवत्र भर ी पडÞी है ं । यहाँ उनकी कोर् इ न्यूनता नहीं है । अज्ञानी पद-पद पर लो भ मे ं फँसता चला जाता है । वह जिधर आ“खे डालता है , उधर ही उस लुभाने वाली वस् तुएं दिखती है ं । वे उसे अपनी औ र खींचती है , वह उसे बुलाती है , वह उनके जाल मे ं फ“स जाता है औ र सदा दुःखी र खती है । लुभाने वाली वस् तुएँ संसार मे ं र हते तो इसलिए कि मनुष्य उन्हे ं दे खकर उत्पन्न हो ने वाली अधीर ता से लडÞा कर ता, धीर ज र खना सीखता औ र प्रसन्न र हा कर ता, पर ंतु अज्ञानर्ीर् इश्वर की जगत र चना कर ने वाली इस शुभ इच्छा को नहीं पहचानता । उसने उन्हे ं दे खकर अपना मन ढीला छो डÞ दिया । उसने अपने को उन्हे ं भो गने के लिए विवश मान लिया । उसने के वल एक बात दे खी औ र उनके जाल मे ं वहाँ गया कि यह पदार्थ आ“खो ं से दे खने मे ं अच्छा लगते है ं, हाथ से छुने मे ं सुखदायी प्रतीत हो ते है ं औ र जीभसे चखने मे ं स् वादिष्ट जान पडते है ं । वह के वल इन ऊपर की बातो ं पर मो हित हो गया औ र आगे सो चना छो डकर इन्हीं मे ं फ“सा र ह गया ।
बालको ं ! तुम उदार बनने के लिए प्रसन्न र हो औ र प्रसन्न र हने के लिए चाह को अपने मन मे ं मत र हने दो । चाह को छो डने के लिए सिवा दूसर ा प्रसन्न र हने का कोर् इ मार्ग आजतक संसार मे ं नहीं नि कला । जो मनुष्य सुख की माँग पूर ी कर ने के काम मे ं फँस जाता है , फिर उसे कोर् इ मनुष्यो चित कर्तव्य नहीं सूझता । फिर उसे अच्छा काम तक नहीं पाता । सुख की माँग वह र ाक्षसी है , जो निर पर ाध सुखे च्छाने ही संसार मे ं अश ा न्ित फै ला र खी है । यदि संसार मे ं शा न्ित लानी हो तो मनुष्यो ं का अप नी-अपनी सुखे च्छा दबानी पडे Þगी । सुखे च्छा र हित लो गो ं के बल से ही संसार मे ं औ र समाज मे ं शा न्ित र ह सकती है । अच्छे काम, के वल उस मनुष्य को ज्ञात है , जो अपनी सुखे च्छा की दासता को छो ड दे ता है । पहले तो अपने मन मे ं इच्छा उत्पन्न हो ने दे ना औ र फिर उसे मिटाने मे ं लग जाना, यह र्व्यर्थ का या मूढता का काम है । यह तो ऐ सा काम है , जै से कोर् इ पहले तो कीचडÞ लगा ले औ र फिर उसे धो ता फिर े । अच्छा हो कि कीचडÞ पहले ही न लगाया जाए । जिस वस् तु को मिटाना पडे Þ उसे उत्पन्न न हो ने दे ना बडÞी बुद्धिमता का काम है । जो मनुष्य अपनी इच्छा मिटाने के स् वार्थ को ले कर दूसर ो ं के साथ दवाब कर ता है , वह उन्हे ं -दूसर ो ं को ) भी अपनी चाह मिटाने का साधन बना ले ता है । वह दूसर ो ं से भौ तिक लाभ उठाने के पीछे इतना विवे कहीन हो जाता है कि उनसे अपनी चाह मिटाने की वस् तु छीन ले ना चाहता है ।
इस प्रकार की भावनाएँ ‘स् वार्थ’ कहलाती है ं । स् वार्थ औ र मन की चाह एक ही बात है औ र अप्रसन्नता भी उसे ही कहा जाता है । स् वार्थ के मिटने से ही उदर ता आती है । मनुष्य अपने मन मे ं चाह र खकर उसे मिटाने के लिए जितने पदार्थ इकठ्ठे कर ते है , उनसे उनकी चाह नहीं मिटती, अपितु औ र अधिक बढÞ जाती है । चाह को पालने वाले मुनष्य धन- सम्पत्ति इकठ्ठा कर के अपना सुख बढÞाने मे ं लगे र हते है ं । सुख बढÞाने मे ं लगे हुए मनुष्य कुछ पदाथोर् ं को अपने सुख के साधन मानकर उन्ही से लिपटकर बै ठ जाते है ं । वह उनके नष्ट हो ने के डर से दुःखी र हते है ं औ र नष्ट हो ने पर तो बहुत ही दुःखी हो ते है ं । ऐ से मनुष्य बडे Þ-बडÞे मकान बनाते है ं, बहुत से अच्छे वस् त्र पहनते है ं, बहुत से र मणीक, स् वादिष्ट तथा इन्द्रियो ं को सुखद ायक समझे हुए पदार्थ इकठ्ठे कर के सुखी हो ना चाहते है ं । मनुष्य सुखी हो ने के नाम से जिन-जिन वस् तुओ ं को अपनाते है ं, उनसे उन्हे ं सुख नहीं मिलता, किंतु सुख को बढÞाने की इच्छा जाग उठती है । जो अपना सुख बढÞाने की इच्छा कर ता है , वह दुःखी र हता । अपना सुख अधिक करुँ इच्छा से मनुष्य सदा ही दुःखी र हता है । सुख पाकर भी मनुष्य को शा न्ित नहीं मिलती, किंतु सुख बढÞाने की इच्छा हो ती है । जबकि सुख पाने से भी शा न्ित नहीं मिलती, उससे उसकी इस इच्छा औ र अधिक भडÞक उठती है । तब यह बात मनुष्य की समझ मे ं आ जानी चाहिए थी कि सुख की चाह मे ं सुख ही नहीं है अर्थात सुख चाहने से सुख नहीं मिले गा । क्यो ंकि यह चाह तो मनुष्य को चंचल औ र पागल बना डालती है । शान्ति का न आना ही तो सच्चा दुःख है । यह दुःख पशुओ ं को नहीं हो ता यह दुःख ही मनुष्य की अशान्ति है । यह अशान्ति पशुओ ं मे ं नहीं है । संसार के मर्ूख लो ग सुख बढाने की इच्छा या चिन्ता नाम के दुःख से घायल है ं । चिन्ता मे ं मनुष्य का शर ीर मर ने के पश् चात जलता है किंतु चिन्ता मे ं वह जीवनभर जलता र हता है । अर्थात सुख की चाह मानव को उदार र हने नहीं दे ती ।