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धृतराष्ट्र सत्ता ! शासन हमेशा अंधा ही होता है : बिम्मी शर्मा



बिम्मी शर्मा, वीरगंज , २९ मई | ( व्यंग्य) कहते हैं कि सन्तान मोह में मां, बाप अंधे हो जाते हैं । और यह मां, बाप देश के राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री हो तो धृतराष्ट्र और गांधारी बन जाते हैं । महाभारत के बलशाली और नेत्रहीन पात्र धृतराष्ट्र अपने कुपुत्र दूर्योधन और दुःशासन के प्रेम में इतने अंधे हो गए थे कि महाभारत का भीषण युद्ध ही हो गया था । इस युग के नेपाल नामक देश में भी आए दिन छोटे–बडेÞ युद्ध होते ही रहते हैं । अभी इस देश में स्थानीय तह निर्वाचन नाम का महाभारत शुरु हुआ है जो कब खत्म होगी किसी को नहीं मालूम । यह सत्ता का मात जितना लंबा चलेगा उतना ही भत्ता डकारने को मिलेगा सरकारी कारिन्दों को ।

देश में लंबे समय से चल रहा महाभारत का युद्ध में दानो पक्ष कौरव जैसे ही हैं । पांडवो जैसी दूरी खडी जनता इस युद्ध को देख कर ताली पीट रही है । शिखंडी और जयद्रथ जैसे नेता लडाईं का कमान संभाल रहे हैं । अंधा धृतराष्ट्र हाथ मल कर चहलकदमी कर रहा है । सत्ता के सारे सुख और अधिकार उसी के हात में है इसी लिए वह जो चाहे कर सकता है । इस महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी पति पत्नी नहीं है । यहां राष्ट्रपति गांधारी है जो अपने आंचल मे किसी की नजरें ईनायत से अनायास आ गिरे इस पद का भरपूर फायदा उठा रही है । इसी लिए गणतंत्र दिवस के अवसर पर बांटे गए पुरस्कार और पदक में छांट कर अपनो को दे रही है । बरसो पहले हुए एह हादसे में स्वर्ग सिधार चुके अपने पति को सम्मानित और पुरस्कृत करने का मन हुआ और झट से दिवंगत पति को पदक दे दिया और यह पदक ग्रहण करने या लेने का काम उन दोनों की बेटी ने किया । देखा चित भी अपनी और पट भी अपनी । अपना हाथ जगन्नाथ होने पर घी भात में ही गिर जाता है ।

जब पिता पद में हो और शक्तिशाली हो तब वह अपने बेटे को पद और पदक दोनों ही बांटेगा । आखिर बेटा है मरने के बाद चिता में आग वही देगा । बेचारे का हक बनता है पैतृक संपति में भी और सरकारी पद और पदक में भी । जब पिता के हात में कड़ाही, कलछुल और चम्मच तीनों है तब वह अपने बच्चो को ही बार–बार खिलाएगा पिलाएगा । भले ही उस बेटे का योगदान देश और समाज के लिए कुछ न हों । हां तीन तलाक की तरह उस उदारमना बेटे ने तीन बार शादी कर के तीन औरतों का जीवन सुधार दिया । आखिर में भगवान राम ने भी तो पत्थर बनी अहिल्या को अपने पैर से छू कर तार दिया था । उसी तरह इस रावण जैसे बेटे ने अपने पिता का नाम रोशन करते हुए बहू विवाह किया । अब देश के आम नागरिकों के लिए बहू विवाह भले अपराध हो पर खास नागरिक के लिए यह पुरस्कृत और सम्मानित करने का विषय है । इसी लिए एक पिता ने अपने बेटे को पदक से नवाज दिया । आखिर में प्रभावशाली पिता का पुत्र है तो जाहिर है घांस तो नहीं चरेगा न ?

पिता ने बेटे के लिए पदक घोषणा की तो बेटी के लिए सरकारी पैसे पानी की तरह बहा कर भरतपुर से मेयर के उम्मीदवार के रूप में खडा किया । अब जब बेटी को उम्मीदवार बनाया तो उसको जितवाना भी तो एक पिता का धरम है । जैसे गांधारी जैसी राष्ट्रपति ने अपने पद मे रहने के समय में ही राष्ट्रपति भवन से अपनी बेटी की शादी सरकारी संपति का ब्रम्हलूट कर के धूमधाम से किया । जब बेटी की शादी सरकारी भवन से की जा सकती है तो एक पिता वह भी प्रधानमंत्री अपनी बेटी को मेयर के चुनाव में कोई नहीं उठा सकता और अपने बेटे को पदक भी क्यों नहीं बांट सकता ? दूध से धुले तो कोई भी नहीं है राजनीति में । राजनीति कोई साधू, सन्यासी बनने के लिए तो नहीं करता । राजनीति कर के नेता, मंत्री और प्रधान मंत्री बन कर अपने भूखे, नंगे सात पुस्तो को संपन्न बनाने के लिए ही तो चुनाव में भाग लिया जाता है । और चुनाव में अनेक तिकडम कर के जीतने के बाद इन के वारे, न्यारे हो जाते हैं । अब बेटी को भी पिता की शक्ति और वैभव देख कर चुनाव में खडे हो कर जीतने की ईच्छा बलवती हुई । एक पिता अपनी पुत्री की ईच्छा पूरा करे कौन सा गुनाह कर रहा है ।

शासन हमेशा अंधा ही होता है । आंख और विचार को ढक कर पद लोलुपता और पावर से यह देखने और समझने की शक्ति छीन लेती है । शासक धृतराष्ट्र ही होता है इसी लिए वह अपना राज्य और पद बचाने के लिए हर सही और गलत काम करने के लिए तैयार हो जाता है । कोई शासन सत्ता में हो और उसका दुरुपयोग न करे यह हो ही नहीं सकता । पहले के शासक राज्य, नगर और गाँव बांटते थे अभी के शासक पैसा, पद और पदक बांटते हैं । महाभारत में दूर्योधन ने भी अपने हीत चिंतक और परम मित्र कर्ण को अंग देश का राज्य पुरस्कार के रूप में दे कर कर्ण को अनुग्रहित किया था । हमारे देश के महाभारत मे भी हर पात्र अपना चाल बडे ही मनोयोग से चल रहा है । पर महाभारत का मूख्य पात्र और निर्णयकर्ता श्री कृष्ण ही नहीं है । इसी लिए महाभारत तो चालू है पर यह किसी निष्कर्ष पर पहुंच नहीं पा रहा है । भला भगवान श्री कृष्ण जैसी चालाकी और सुझबुझ इनमें कहां ?

अधर्मी दूर्योधन का नमक खा कर भीष्म ने अपनी न्याय प्रियता और सही और गलत के परख को ही गंगाजी में तिलाजंली दे दिया था । जिस का हश्र उन्हें महाभारत के युद्ध में आत्म ग्लानि के शर सैय्या में सो कर करनी पड़ी थी । इस देह की न्याय व्यवस्था भी भीष्म की तरह अधर्मी का नमक खा कर अचेत अवस्था में हैं । देश के बौद्धिक वर्ग को राष्ट्रीयता का भांग ऐसे पिलाया गया गया है कि वह उसी के नशे में झूम कर तथाकथित राष्ट्रीयता और देश प्रेम का जयकारा कर रहे हैं । इस महाभारत में भीम भी है, घटोत्कच भी है पर युद्ध के कारे में दूध का दूध और पानी का पानी कर के बताने वाला बार्बरिक जैसा पात्र ही नहीं है । इसी लिए इस देश की सत्ता धृतराष्ट्र और गांधारी की अंधे मोह में फंस कर दलदल बन गयी है । जहां अपने संतानो का तो प्रवेश में स्वागत है पर अन्य का प्रवेश वर्जित हैं । इसी लिए योग्यता के नाम पर पिता और माता के पद की छांया के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं ।

कहते हैं कि सन्तान मोह में मां, बाप अंधे हो जाते हैं । और यह मां, बाप देश के राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री हो तो धृतराष्ट्र और गांधारी बन जाते हैं । महाभारत के बलशाली और नेत्रहीन पात्र धृतराष्ट्र अपने कुपुत्र दूर्योधन और दुःशासन के प्रेम में इतने अंधे हो गए थे कि महाभारत का भीषण युद्ध ही हो गया था । इस युग के नेपाल नामक देश में भी आए दिन छोटे–बडे युद्ध होते ही रहते हैं । अभी इस देश में स्थानीय तह निर्वाचन नाम का महाभारत शुरु हुआ है जो कब खत्म होगी किसी को नहीं मालूम । यह सत्ता का मात जितना लंबा चलेगा उतना ही भत्ता डकारने को मिलेगा सरकारी कारिन्दों को ।

देश में लंबे समय से चल रहा महाभारत का युद्ध में दानो पक्ष कौरव जैसे ही हैं । पांडवो जैसी दूरी खडी जनता इस युद्ध को देख कर ताली पीट रही है । शिखंडी और जयद्रथ जैसे नेता लडाईं का कमान संभाल रहे हैं । अंधा धृतराष्ट्र हाथ मल कर चहलकदमी कर रहा है । सत्ता के सारे सुख और अधिकार उसी के हात में है इसी लिए वह जो चाहे कर सकता है । इस महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी पति पत्नी नहीं है । यहां राष्ट्रपति गांधारी है जो अपने आंचल मे किसी की नजरें ईनायत से अनायास आ गिरे इस पद का भरपूर फायदा उठा रही है । इसी लिए गणतंत्र दिवस के अवसर पर बांटे गए पुरस्कार और पदक में छांट कर अपनो को दे रही है । बरसो पहले हुए एह हादसे में स्वर्ग सिधार चुके अपने पति को सम्मानित और पुरस्कृत करने का मन हुआ और झट से दिवंगत पति को पदक दे दिया और यह पदक ग्रहण करने या लेने का काम उन दोनों की बेटी ने किया । देखा चित भी अपनी और पट भी अपनी । अपना हाथ जगन्नाथ होने पर घी भात में ही गिर जाता है ।

जब पिता पद में हो और शक्तिशाली हो तब वह अपने बेटे को पद और पदक दोनों ही बांटेगा । आखिर बेटा है मरने के बाद चिता में आग वही देगा । बेचारे का हक बनता है पैतृक संपति में भी और सरकारी पद और पदक में भी । जब पिता के हात में कड़ाही, कलछुल और चम्मच तीनों है तब वह अपने बच्चो को ही बार–बार खिलाएगा पिलाएगा । भले ही उस बेटे का योगदान देश और समाज के लिए कुछ न हों । हां तीन तलाक की तरह उस उदारमना बेटे ने तीन बार शादी कर के तीन औरतों का जीवन सुधार दिया । आखिर में भगवान राम ने भी तो पत्थर बनी अहिल्या को अपने पैर से छू कर तार दिया था । उसी तरह इस रावण जैसे बेटे ने अपने पिता का नाम रोशन करते हुए बहू विवाह किया । अब देश के आम नागरिकों के लिए बहू विवाह भले अपराध हो पर खास नागरिक के लिए यह पुरस्कृत और सम्मानित करने का विषय है । इसी लिए एक पिता ने अपने बेटे को पदक से नवाज दिया । आखिर में प्रभावशाली पिता का पुत्र है तो जाहिर है घांस तो नहीं चरेगा न ?

पिता ने बेटे के लिए पदक घोषणा की तो बेटी के लिए सरकारी पैसे पानी की तरह बहा कर भरतपुर से मेयर के उम्मीदवार के रूप में खडा किया । अब जब बेटी को उम्मीदवार बनाया तो उसको जितवाना भी तो एक पिता का धरम है । जैसे गांधारी जैसी राष्ट्रपति ने अपने पद मे रहने के समय में ही राष्ट्रपति भवन से अपनी बेटी की शादी सरकारी संपति का ब्रम्हलूट कर के धूमधाम से किया । जब बेटी की शादी सरकारी भवन से की जा सकती है तो एक पिता वह भी प्रधानमंत्री अपनी बेटी को मेयर के चुनाव में कोई नहीं उठा सकता और अपने बेटे को पदक भी क्यों नहीं बांट सकता ? दूध से धुले तो कोई भी नहीं है राजनीति में । राजनीति कोई साधू, सन्यासी बनने के लिए तो नहीं करता । राजनीति कर के नेता, मंत्री और प्रधान मंत्री बन कर अपने भूखे, नंगे सात पुस्तो को संपन्न बनाने के लिए ही तो चुनाव में भाग लिया जाता है । और चुनाव में अनेक तिकडम कर के जीतने के बाद इन के वारे, न्यारे हो जाते हैं । अब बेटी को भी पिता की शक्ति और वैभव देख कर चुनाव में खडे हो कर जीतने की ईच्छा बलवती हुई । एक पिता अपनी पुत्री की ईच्छा पूरा करे कौन सा गुनाह कर रहा है ।

शासन हमेशा अंधा ही होता है । आंख और विचार को ढक कर पद लोलुपता और पावर से यह देखने और समझने की शक्ति छीन लेती है । शासक धृतराष्ट्र ही होता है इसी लिए वह अपना राज्य और पद बचाने के लिए हर सही और गलत काम करने के लिए तैयार हो जाता है । कोई शासन सत्ता में हो और उसका दुरुपयोग न करे यह हो ही नहीं सकता । पहले के शासक राज्य, नगर और गाँव बांटते थे अभी के शासक पैसा, पद और पदक बांटते हैं । महाभारत में दूर्योधन ने भी अपने हीत चिंतक और परम मित्र कर्ण को अंग देश का राज्य पुरस्कार के रूप में दे कर कर्ण को अनुग्रहित किया था । हमारे देश के महाभारत मे भी हर पात्र अपना चाल बडे ही मनोयोग से चल रहा है । पर महाभारत का मूख्य पात्र और निर्णयकर्ता श्री कृष्ण ही नहीं है । इसी लिए महाभारत तो चालू है पर यह किसी निष्कर्ष पर पहुंच नहीं पा रहा है । भला भगवान श्री कृष्ण जैसी चालाकी और सुझबुझ इनमें कहां ?

अधर्मी दूर्योधन का नमक खा कर भीष्म ने अपनी न्याय प्रियता और सही और गलत के परख को ही गंगाजी में तिलाजंली दे दिया था । जिस का हश्र उन्हें महाभारत के युद्ध में आत्म ग्लानि के शर सैय्या में सो कर करनी पड़ी थी । इस देह की न्याय व्यवस्था भी भीष्म की तरह अधर्मी का नमक खा कर अचेत अवस्था में हैं । देश के बौद्धिक वर्ग को राष्ट्रीयता का भांग ऐसे पिलाया गया गया है कि वह उसी के नशे में झूम कर तथाकथित राष्ट्रीयता और देश प्रेम का जयकारा कर रहे हैं । इस महाभारत में भीम भी है, घटोत्कच भी है पर युद्ध के कारे में दूध का दूध और पानी का पानी कर के बताने वाला बार्बरिक जैसा पात्र ही नहीं है । इसी लिए इस देश की सत्ता धृतराष्ट्र और गांधारी की अंधे मोह में फंस कर दलदल बन गयी है । जहां अपने संतानो का तो प्रवेश में स्वागत है पर अन्य का प्रवेश वर्जित हैं । इसी लिए योग्यता के नाम पर पिता और माता के पद की छांया के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं ।



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