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नेपाल-चीन सम्बन्ध सिर्फ विकास को लेकर है या भारत को घेरने की रणनीति : श्वेता दीप्ति

श्वेता दीप्ति, काठमांडू | नेपाल और चीन की बढती घनिष्ठता कई सवालों को जन्म देती है । जिसके परिप्रेक्ष्य में नेपाल और भारत के सम्बन्धों को भी तौला जा रहा है । नेपाल और भारत का सम्बन्ध सिर्फ राजनैतिक नहीं है इस सम्बन्ध की नींव संस्कृति पर टिकी है । दो अलग राष्ट्र होने के बावजूद इन दो रिश्तों की घनिष्ठता ऐसी है कि इसे संस्कृति की धरातल पर अलग कर के देखना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है । नेपाल की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में भारत और भारत की धरती ने हमेशा साथ दिया है ठीक उसी तरह जिस तरह भारत की आजादी की लडाई में नेपाल ने साथ दिया था । ये और बात है कि इस साथ को नेपाल में कभी कभी दखल का नाम देकर आलोचित भी किया जाता रहा है । कई मामलों में यह देश के आन्तरिक मामले में सच हो भी सकता है पर कहीं ना कहीं एक आत्मीयता का रिश्ता भी इन दोनों देशों के बीच है इससे इनकार नहीं किया जा सकता है । जब दो देशों की खुली सीमाएँ हों तो वहाँ एक दूसरे के देशों में घटी घटनाओं में दिलचस्पी स्वाभाविक सी बात है हाँ अति का विरोध स्वाभाविक है ।

इधर नेपाल भारत सम्बन्धों में कहीं ना कहीं एक ठंडापन अवश्य आ गया है । और इसी बीच भारत और चीन के रिश्तों में बढता तनाव नेपाल और भारत के रिश्तों पर भी अनदेखा सा प्रभाव डाल रहा है । भारत हमेशा से लोकतंत्र का पक्षधर रहा है वहीं चीन का राजनीतिक परिवेश और इतिहास इन सबसे बिल्कुल अलग है । चीन के अंदर सन १९८९ में लोकतान्त्रिक आन्दोलन की शुरुआत हुई  इस आन्दोलन को थिआनमन आन्दोलन  के नाम से जाना जाता है,क्योंकि इस आन्दोलन की शुरुआत चीन की राजधानी बिजिंग के थिआनमन चौक से हुई थी । इस स्थान पर एकत्रित होकर आन्दोलनकारी (जिसमे अधिकतर मजदूर और विधार्थी शामिल थे) अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतान्त्रिक अधिकारों की शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक तरीके से मांग कर रहे थे, अपनी मांगों को मनवाने के लिए इन्होने भूख हड़ताल का सहारा लिया,  परन्तु सरकार ने इस आन्दोलन को दबाने के लिए सेना का सहारा लिया, सेना ने टैकों से प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाकर हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, यह इतिहास अवश्य है पर सत्ता की मानसिकता कई मामलों में आज भी ऐसी ही है ।   वर्तमान में चीन की शासन व्यवस्था को देखने पर प्रतीत होता है कि आर्थिक क्षेत्र में चीन लगातार तरक्की कर रहा है, परंतु राजनीतिक क्षेत्र में इसकी संरचना में कोई खास बदलाव नहीं आया है, जहाँ लोकतान्त्रिक देशो में सभी प्रकार के विचारो पर आधारित पार्टी व लोगो को राजनीति में आने और चुनाव लड़ने का अधिकार हैं, वही चीन में केवल एक ही पार्टी (साम्यवादी पार्टी) चुनाव लड़ती हैं, इसी पार्टी के द्वारा ही जनता राजनीति में भाग ले सकती हैं । अर्थात् एकल साम्राज्य और वर्चस्व की अवधारणा सत्ता के मूल में है । चीन का मानव अधिकारों पर विचार भी पश्चिमी देशो से अलग हैं, पश्चिमी देश चीन पर मानव अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाते रहते हैं,  इतना ही नही विश्व समुदाय मानता है कि अपना राष्ट्रीय हित साधने में बीजिंग नंबर एक है। अपने फ़ायदे के लिए चीन कब क्या कर दे, कोई नहीं जानता,  इसीलिए कोई चीन पर विश्वास नहीं करता है। चीन ने पाकिस्तान तक से दोस्ती सोची समझी रणनीति के तहत की है। चीन अपने को सिर्फ़ अपने प्रति जिम्मेदार मानता है, इसीलिए अमेरिका ही नहीं पश्चिम के सभी देश चीन से आशंकित रहते हैं और भारत में चीन का विकल्प दिखते हैं।

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चीन की यही नीति ये सोचने पर बाधित करती है कि नेपाल के साथ चीन का सम्बन्ध सिर्फ नेपाल के विकास को लेकर है या भारत को घेरने की एक सोची समझी नीति । सदियों का रिश्ता राजनीतिक तौर पर कमजोर होता नजर आ रहा है । नेपाल में अभी जिस राष्ट्रवाद की लहर है और एमाले अध्यक्ष की चीनी नजदीकी ने नेपाल के परिवेश और सोच में एक अलग परिवर्तन तो ला ही दिया है । भारत चीन के सीमा विवाद पर नेपाल के संसद में जो आवाज उठी है वह भी इस सोच की एक कडी नजर आती है । नेपाल की विदेश नीति ऐसे में क्या होनी चाहिए यह महत्तवपूर्ण है । वैसे राज्य का यह मानना है कि नेपाल इन दोनों देशों के बीच साम्यता स्थापित करते हुए आगे बढना चाहता है । राज्य मानता है कि पड़ोसी देशों भारत और चीन  से नेपाल का संबंध मजबूत, गर्मजोशी भरा और दोस्ताना बना हुआ है और किसी एक देश के साथ अपने संबंधों की तुलना दूसरे देश से हम नहीं कर सकते। हर देश के लिए अलग अलग आधार और कारण होते हैं और हर द्विपक्षीय संबंध अनोखा होता है। पर नेपाल में चीन का बढता प्रभाव और चीन का पाकिस्तान को समर्थन एक अलग परिदृश्य भी जरुर खडी करता है । चीन लगातार भारत के घोर विरोधी पड़ोसी देश पाकिस्तान को समर्थन देता रहता है। भारत को अंतर्राष्ट्रीय मोर्चो पर कमजोर करने का भी प्रयास करता रहता है। वह जिससे भारत का किसी भी तरह से अहित हो सके ऐसा कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहता ।  इतना ही नहीं बीजिंग नेपाल पर पहले से ही इसके लिए दबाव बनाने की केशिश करता रहा है कि वह अपने यहां से होकर भारत जाने वाले तिब्बतियों पर कड़ी कार्रवाई कर सके । ये वो पहलू हैं जो नेपाल भारत के सम्बन्धों पर भविष्य में सवालिया निशान खडा कर सकता है । 

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अगर इन बातों को नजरअंदाज कर दें तो नेपाल के विकास की एक अच्छी तस्वीर भी उभर कर सामने आती है । चीन का नेपाल में निवेश विकास की राह को खोलता नजर आ रहा है । नेपाल सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इस वित्त वर्ष के पहले आधे हिस्से में नेपाल में होने वाले कुल एफडीआई में चीन का हिस्सा ६८ प्रतिशत रहा। पिछले वित्त वर्ष में चीन ने ४० प्रतिशत का निवेश किया था।

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नेपाल के डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्री के अनुसार चीन ने इस वित्त वर्ष के पहले आधे हिस्से में ५१  मिलियन डॉलर का निवेश किया है। करीब ३४४ करोड़ रुपये का निवेश कर चीन ने नेपाल में सबसे अधिक विदेशी निवेश करने वाले देश के रूप में अपनी जगह और पक्की कर ली। यही नहीं नेपाल में आर्थिक दृष्टिकोण से ही नहीं साँस्कृतिक दृष्टिकोण  से भी चीन अपनी पैठ बना रहा है । चीनी सरकार राजधानी में चीनी भाषा सिखाने के लिए मुफ्त शिक्षा मुहैया करा रही है । जहाँ भाषा के साथ ही चीनी संस्कृति की भी शिक्षा दी जा रही है । ये अच्छी तस्वीर कितने समय के लिए अच्छी है यह तो वक्त बताएगा पर आन्तरिक तौर पर जो तस्वीर उभर रही है वो तो यही बता रही है कि नेपाल पर प्रभाव डालने की चीन की नीति कुछ वर्षों के लिए नहीं है बल्कि दीर्घकालीन है । वैसे चीन की बढती पकड नेपाल की जनता को भी दो भागों में बाँट रही है । जहाँ पहाडी समुदाय खुद को चीन के करीब देखने की इच्छा रखते हैं वहीं तराई क्षेत्र भारत के ज्यादा करीब खुद को पाता है । यह भावना देश के कितने हित में है या इसका परिणाम क्या होगा यह फिलहाल अतीत के गर्भ में है फिलहाल तो हम वो तस्वीर देखें जो अच्छाई से लबरेज है ।

 

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