काबिता
दर्पण का क्या मोल –
विनीत ठाकुरर्
दर्पण का क्या मोल अन्धों के शहर में ।
हुआ उल्टा मुख सुल्टा अपने ही नजर में ।।
ज्ञान का सुरमा लगाकर जो बजाते हैं गाल ।
व्यवहार में देखता हूँ उसका भी वही ताल ।।
मन भीतर का दर्पण ओ भी है चूर-चूर ।
यहाँ से मानवता बसते हैं कोसो दूर ।।।
घुमते है दिन में दरिन्दा ओढÞकर सज्जन का खोल ।
कहीं पर देखता हूँ मातम कहीं बजता है ढोल । ।।
जो समाज सुधारक वो करते हैं किसुन केर ।
उसके पीछे मेढÞक कहलाता है सवा-सेर ।।
जब तक नहीं होगा मन से मद्यपान का नाश ।
करेंगे लोग कैसे विनीत भावक आश ।।
मिथिलेश्वर मौवाही- ६, धनुषा
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गीत
मेरा बातों से ….
निमेष नेवाः
मेरी बातों से क्या क्या मतलब निकालती हो ।
एक बात कहता हूँ, तुम दूसरी बात समझती हो ।।
इसी में परेशान होता हूँ, तुम्हें देखता रहता हूँ ।
बस मैं क्या कर सकता तेरा चेहरा ताकता हूँ ।।
फूल से चेहरे को जल्द ही लाल पीले बनाती हो ।
मेरा बातों से क्या क्या मतबल निकालती हो ।
मेरा कहना वो नहीं जो तुम जल्दी बोली यहाँ ।
मुझे बुरा लगता है तुम मतलब नहीं करती यहाँ ।
कभी कभी ऐसा लगता खुशी में आग लगाती हो ।
मेरी बातों से क्या क्या मतलब निकालती हो ।।
चुपचाप बैठा रहँू महसूस होता है तुम्हारे आगे मैं ।
लेकिन कोई बात ऐसा होता है करके रहता मैं ।।
तुम सुनी-अनसुनी कर देती मुझे दुखी बनाती हो ।
मेरा बातों से क्या क्या मतलब निकालती हो ।
मनकामना माई मार्ग-३८
बानेश्वर, थापा गाउ“, काठमाडौं
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जीना भी कठिन है
मानवीर सिंह पंथी
पेट्रोल नहीं है डिजल नहीं है
पर वाहन चल रहे है चहु ओर
सडÞक जाम है हल्ला ही हल्ला घनघोर
आधा समय सफर में होता है तमाम
याद नहीं कब हुआ सबेरा कैसे दिन गया तमाम
खचा खच भरे हैं वाहन सब
पसीने से भीजा तर बतर शरीर
पाय दान पर भी लोग लटके हैं
छत पर सब भरे पडे हैं
जान की मोह छोडÞ कान्त शान्त शरीर लिये
घर तक पहुँचने पर बहुत थके हुये
बात करने की भी शक्ति नहीं, समय नहीं
टी.वी. खोले तो बिजुली नहीं
खुल भी गया तो टी.वी में
सत्ता का युद्ध घमासान है
न कोई निकास है न समाधान है
इधर गिरे मरे उधर गिरे मरे
यह निरीह जनता ही है
जनता का गुहार सुनने वाला
बताये यहाँ आज कौन है –
बस उलटी जनता ही मरे
मकान गिरा जनता ही दबे
गोली खाकर भी जनता ही मरे
जेल चलान में भी जनता ही पडे
किस को कहँू मैं दोषी
किसकी करुँ मैं बडर्Þाई
जीवित अनुहार कही नहीं
सब नाटकीय न्याय है और कुछ भी नहीं
सत्ता का युद्ध घमासान है
नेताओं का मिथ्या अभिमान है
दिनों दिन देश का अवसान है
जनता की दुख सुनने वाला
न तो नेता है न भगवान हैं
कब आयेगा शान्ति का संदेश
नेपाली वीरता के लिए परिचित
अब लाचार बन मरे पडेÞ हैं
यह हमारे देश की है दर्ूदशा
दिखता नहीं कहीं स्वच्छ दिशा
अन्योल में है यह जिदंगी
पशुपति का देश था हमारा
भगवान भी मस्त सोये हुए हैं
इस अन्योल वातावरण में जीना कठिन है ।