आरज़ू हसरत और उम्मीद शिकायत आँसू, इक तिरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला
ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
सरवर आलम राज़
ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला
मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
ग़ौर से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला
एक ही रंग का ग़म-ख़ाना-ए-दुनिया निकला
ग़म-ए-जानाँ भी ग़म-ए-ज़ीस्त का साया निकला
इस रह-ए-ज़ीस्त को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला
आरज़ू हसरत और उम्मीद शिकायत आँसू
इक तिरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला
घर से निकले थे कि आईना दिखाएँ सब को
लेकिन हर अक्स में अपना ही सरापा निकला
क्यूँ न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला
जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ‘सरवर’
तू भी कम-बख़्त ज़माने का सताया निकला
जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे
हम किसी की आरज़ू में क्या से क्या होने लगे
बेकसी ने बे-ज़बानी को ज़बाँ क्या बख़्श दी
जो न कह सकते थे अश्कों से अदा होने लगे
हम ज़माने की सुख़न-फ़हमी का शिकवा क्या करें
जब ज़रा सी बात पर तुम भी ख़फ़ा होने लगे
रंग-ए-महफ़िल देख कर दुनिया ने नज़रें फेर लीं
आश्ना जितने भी थे ना-आश्ना होने लगे
हर क़दम पर मंज़िलें कुछ दूर यूँ होती गईं
राज़-हा-ए-ज़िंदगानी हम पे वा होने लगे
सर-बुरीदा ख़स्ता-सामाँ दिल-शिकस्ता जाँ-ब-लब
आशिक़ी में सुर्ख़-रू नाम-ए-ख़ुदा होने लगे
आगही ने जब दिखाई राह-ए-इरफ़ान-ए-हबीब
बुत थे जितने दिल में सब क़िबला-नुमा होने लगे
आशिक़ी की ख़ैर हो ‘सरवर’ कि अब इस शहर में
वक़्त वो आया है बंदे भी ख़ुदा होने लगे
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