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आज बाबा नागार्जुन का जन्मदिन है और इस मौके पर हम उनकी जीवनी युगों का यात्री का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं. यह उस घटनाक्रम से संबंधित है जब बाबा ने महात्मा गांधी की हत्या से विचलित होकर कविताओं की एक श्रृंखला रची थी. इस जीवनी के लेखक तारानंद वियोगी हैं.



 

वह नहीं चाहते पिता, तुम्हारा श्राद्ध, ओह!’

गांधीजी की हत्या पर नागार्जुन ने दो कविताएं लिखीं. जुड़े प्रसंगों पर दो और. ‘तर्पण’ हत्या के अगले दिन 31 जनवरी 1948 को लिखी थी. दूसरी ‘शपथ’ उनके श्राद्धकर्म के दिन. इन कविताओं का उनके जीवन-प्रसंग में बड़ा महत्व है क्योंकि इन्हीं की वजह से वह तीसरी बार, नयी-नयी पाई आजादी के बाद, पहली बार जेल भेजे गये थे.

‘तर्पण’ कविता की शुरुआत ही उन्होंने यहीं से की थी कि ‘हे पिता, कल जिस बर्बर ने तुम्हारा खून किया वह ‘मराठा हिन्दू’ और ‘मूर्ख’ और ‘पागल’ नहीं है.’ सब साफ-साफ था. पहली ही पंक्ति में नागार्जुन ने सरकार को धो डाला था क्योंकि सरकार हत्यारे को ऐसा ही बता रही थी. आकाशवाणी पर लगातार प्रसारण चल रहा था. हत्यारा यदि यह सब नहीं था तो फिर कौन था, नागार्जुन पूरा पता जानते थे –

‘वह प्रहरी है स्थिरस्वार्थों का
वह जागरूक, वह सावधान.’

जैसे ‘स्थिरचित्त’ या ‘स्थितप्रज्ञ’ होते हैं, जिनकी गीता में बड़ी महिमा गाई गयी है. उसी जोड़ी का शब्द है – स्थिरस्वार्थ. जिन्हें न देश से मतलब है न जनता से. वे अपनी स्वार्थ-साधना में ही एकाग्र और एकचित्त हैं. अपनी सुरक्षा के लिए उनने प्रहरी रखे हैं, जागरूक और सावधान प्रहरी. यह वही प्रहरी था. कविता में आगे वह वर्ग-पति को और उसके इन तुच्छ प्रहरियों को साथ मिला देते हैं. हिरणकशिपु-अहिरावण से लेकर महाराहु तक के सारे ब्राह्मणशास्त्रीय मिथक उठा लाते हैं एक उस बर्बर का जाति-भेद मालूम करने के लिए, जो कि वह असल में है. यानी कि ‘मानवता का महाशत्रु’. आगे कहा है –

वह झोंक रहे हैं धूल हमारी आंखों में
वह नहीं चाहते परम क्षुब्ध जनता घर से बाहर निकले
हो जाएं ध्वस्त
इन संप्रदायवादियों के विकट खोह
वह नहीं चाहते पिता, तुम्हारा श्राद्ध, ओह!’

जनता की आंखों में धूल कौन झोंक रहा है? कौन नहीं चाहता कि गांधीजी का ‘श्राद्ध’ हो? पटेल नहीं चाहते? नेहरू नहीं चाहते? यानी कि सरकार नहीं चाहती? सरकार ही देश है. देश नहीं चाहता?

कविता के आरंभ में जिसे ‘पिता’ कहा, पिता तो इसलिए कहा कि वह राष्ट्रपिता थे. आगे वह उन्हें ‘वृद्ध पितामह’ कहते हैं. पितरों की परंपरा में जो जितना पूर्ववर्ती हो, उतना ही अधिक श्रद्धेय माना जाता है क्योंकि उसका आलोक ज्यादा दूर तक, ज्यादा पीढ़ियों में फैल चुका होता है. एक ही जीवन में गांधी ने यह हैसियत हासिल कर ली थी. नागार्जुन आगे कहते हैं –

‘हे वृद्ध पितामह
तिल-जल से
तर्पण करके
हम तुम्हें नहीं ठग सकते हैं
यह अपने को ठगना होगा.’

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यहां राजनीति के पार जाकर गांधी को समझने की विनम्रता है. यह चीज नागार्जुन में थी. ‘हमने तो रगड़ा है इनको भी, उनको भी’ कहनेवाले नागार्जुन ने किसको नहीं रगड़ा होगा. मगर गांधी को नहीं, जबकि खुले मैदान में वह गांधी के खिलाफ एक दशक से सक्रिय राजनीति करते आए थे. यहां, इस कविता में गोडसे के ‘हिंदुत्व’ और गांधी के ‘हिंदू धर्म’ के प्रकारता-भेद पर प्रकाश भी था. फिर अपनी परंपरा में गांधी-जैसों के लिए जगह बनाने की श्रद्धा भी थी. जाहिर है, वह गांधी की उन विरासतों को भी देख पा रहे थे जो उन लोगों के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण थीं जो प्रकट तौर पर उनके विरोधी थे. उनके लिए तिल-जल दे देने से बात खत्म नहीं हो सकती थी.

आगे की पंक्ति थी कि ‘शैतान आएगा रह-रह हमको भरमाने. अब खाल ओढ़कर तेरी सत्य-अहिंसा का.’ शैतान कौन? मजे की बात थी कि उसी रोज के रेडियो-प्रसारण में उप प्रधानमंत्री-सह-गृहमंत्री पटेल ने देश की जनता से अपील की थी कि ‘महात्मा जी के द्वारा दिए गये प्रेम और अहिंसा के संदेशों को ग्रहण करें.’ पर, नागार्जुन समझ पा रहे थे कि यह सब एक अराजनीतिक हो चुके महात्मा की हत्या का राजनीतीकरण है ताकि इस हत्या के सबक अपनी परिणति को प्राप्त न कर सकें. लेकिन नागार्जुन ने कहा –

‘एकता और मानवता के
इन महाशत्रुओं की न दाल गलने देंगे
हम एक नहीं चलने देंगे.’

सरकार के आका जो चाह रहे हैं उसे आप नहीं चलने देंगे? इतनी मजाल? लेकिन फिर करेंगे क्या आप? वे कहते हैं-

‘मैदानों के कंकड़ चुन-चुन
पथ के रोड़ों को हटा-हटा
तेरे उन अगणित स्वप्नों को
हम रूप और आकृति देंगे
हम कोटि-कोटि
तेरी औरस संतान, पिता!’

गांधी की विरासत को वह कोटि-कोटि जनता में निमज्जित करते हैं, और खुद भी उन्हीं में से एक बन जाते हैं.

तेरह दिन के राष्ट्रीय शोक के बाद दिल्ली के यमुना-तट पर गांधीजी का श्राद्ध हुआ. ‘शपथ’ कविता उन्होंने इसी दिन लिखी. इसमें तो उन्होंने साफ लिखा-

‘क्या करते थे दिल्ली में बैठे पटेल सरदार?
जिसके घर में कोई घुसकर साधू को दे मार
उस गृहपति को धिक्कार!’

अब मुश्किल बात यह थी कि अपनी आखिरी प्रार्थना-सभा में जाने के ठीक पहले तक गांधीजी सरदार पटेल के ही साथ थे. उस दिन की प्रार्थना-सभा में पहुंचने में देर भी इसी वजह से हुई थी. पटेल और नेहरू के बीच जो अंदर-अंदर की लड़ाई चल रही थी, गांधी उसी को सुलझाने में लगे थे. अब सरकार कह रही थी कि लोग शांत रहें और सरकार को अपना काम करने दें. लेकिन, ‘क्रुद्ध क्षुब्ध प्रज्जवलित’ देश के ‘कोटि-कोटि कंठों से निसृत सुन-सुनकर आक्रोश. भगवा ध्वजधारी दैत्यों के उड़े जा रहे होश.’ यह स्थिति थी.

इस कविता में उन्होंने गांधीजी के आखिरी पलों का एक चित्र भी दिया था-

‘तीन-तीन गोलियां, बाप रे!
मुंह से कितना खून गिरा है
महामौन यह पिता, तुम्हारा
रह-रह मुझे कुरेद रहा है.’

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कुरेद यह रहा था कि गांधी को तो आखिरी दिनों में सबने छोड़ दिया था. कोई उनकी सुनता न था. किसी के लिए वे अब प्रासंगिक नहीं रह गये थे, मतलब इन लोगों के लिए. गांधी भी किसी से कुछ अपेक्षा नहीं करते थे, न अब ज्यादा दिन जीना चाहते थे. एकमात्र कोशिश यही थी कि जब तक जिन्दा हैं, कुछ अच्छा करते रहें. ऐसे आदमी को कहीं इस तरह मारा जाता है! नागार्जुन समझ पा रहे थे कि इस हत्याकांड को एक महागठबंधन बनाकर ही अंजाम दिया जा सका है. वह यह भी देख पा रहे थे कि इन ‘क्रूर कुटिल चाणक्यों का/ हृदय नहीं परिवर्तित होगा.’

अभी कुछ ही महीने पहले, आजादी के दिन जो कविता उन्होंने लिखी थी, क्या सपने थे उसमें! मध्यरात्रि के संबोधन में जवाहरलाल नेहरू ने जो सपने देखे थे. लगभग सारे वही सपने, बल्कि उनसे कुछ बढ़कर ही नागार्जुन ने अपनी कविता में देखे थे. जनता का ‘सत्य’ और सत्ता का ‘सत्य’ उस दिन मिलकर एक हो गया था. लेकिन, इन्हीं थोड़े दिनों में वे सपने चकनाचूर हुए. ‘शपथ’ कविता के अंत में नागार्जुन ने संकल्प लिया.

‘हिटलर के ये पुत्र-पौत्र जबतक निर्मूल न होंगे
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख फासिस्टों से न हमारी
मातृभूमि यह जब तक खाली होगी
संप्रदायवादियों के विकट खोह
जब तक खंडहर न बनेंगे
तब तक मैं इनके खिलाफ लिखता जाऊंगा
लौह-लेखनी कभी विराम न लेगी’

ये कविताएं बिहार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘जनशक्ति’ दैनिक में छपीं. अभी पिछले साल 19 नवंबर 1947 से यह अखबार छपने लगा था. इसमें नागार्जुन न केवल नियमित रूप से लिखते थे बल्कि इसके अंग की तरह थे. असल में, राहुल सांकृत्यायन की ही तरह नागार्जुन भी ऐसे लोगों में से थे जिनके लिए कम्युनिस्ट होना बहुत बड़ी बात होती है. कृतार्थता से कम नहीं, भले ही वे पार्टी के औपचारिक सदस्य हों न हों, पार्टी-नेतृत्व उनसे सहमति रखे न रखे. बाध्यतामूलक भारत-भ्रमण से लौटकर अब जब उन्होंने पटना में डेरा ले लिया था, पार्टी-आफिस में ही सही, तो 1946 में एक काम यह किया था कि पार्टी की स्थायी सदस्यता ले ली थी. पार्टी ने उन्हें किसान सभा की जिम्मेदारी दी थी. दरभंगा जिला भाकपा (किसान सभा) के वह अध्यक्ष चुने गये थे. सचिव युवा नेता भोगेन्द्र झा थे.

अशोक कुमार मंडल ने लिखा है कि आम दिनों में ‘जनशक्ति’ 2500 से 5000 प्रतियां बिकती थी. गांधी-हत्याकांड के बाद इसकी बिक्री 8000 पर पहुंच गयी. जितने लोगों ने अखबार खरीदा उससे कई गुना ज्यादा लोगों तक कविता पहुंची. इन कविताओं में जो स्टैण्ड लिया गया था, वही अखबार का स्टैण्ड बन गया. फिर हत्याकांड वाली कविताओं की पुस्तिका, जिसे नागार्जुन कितबिया कहते थे, ‘शपथ’ भी छपकर आ गयी. दूर-दराज तक वह पहुंच गयी.

जहां तक नागार्जुन के संकल्प का प्रश्न है, उनकी लौह-लेखनी ने कभी विराम नहीं लिया, इस तरह संकल्प तो उनका जरूर पूरा हुआ. लेकिन, थोड़े ही दिन बाद वह गिरफ्तार कर लिए गये. ‘जनशक्ति’ पर सेंसरशिप लगाकर उसे बंद कर दिया गया. संपादक गंगाधर दास उस दिन का प्रसंग बताते थे कि, ‘मैं उस समय प्रेस में ही था. एकबारगी बारह बजे रात के बाद चारों तरफ से पुलिस ने प्रेस को घेर लिया, चुन-चुनकर पार्टी-सदस्यों को गिरफ्तार करने लगी.’ कुल पार्टी-सदस्यों के एक चौथाई भाग को किसी-न-किसी बहाने जेल भेज दिया गया. इन्द्रदीप सिन्हा ने वाजिब प्रश्न उठाया था कि ‘कम्युनिस्टों का इस प्रकार दमन करके और गांधीजी की हत्या करनेवाले आरएसएस के 1800 सदस्यों को जेल से रिहा करके कांग्रेसी सरकार न जाने किस प्रजातंत्र की रक्षा कर रही थी!’ लेकिन, मुख्यमंत्री डा श्रीकृष्ण सिंह का अलग तर्क था कि ‘इस पार्टी का सिद्धान्त ही इसे जनतंत्र के दायरे से बहिष्कृत कर देता है, क्योंकि इसका उद्देश्य है क्रान्ति के जरिये वर्तमान राज्य को नष्ट कर वर्ग विशेष के राज्य की स्थापना करना. कम्युनिस्टों की गतिविधियों पर काबू पाने के लिए उन्हें सुरक्षा कानून के तहत बंद रखना आवश्यक है.’

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नागार्जुन की इस बार की जेल-यात्रा ऐसी थी कि एक ही समय, अलग-अलग जेलों में, गांधी का हत्यारा गोडसे बंद था, और गोडसे पर गुस्सा करनेवाले नागार्जुन भी बंद थे. इस सीरीज की एक कविता ‘वाह गोडसे’ में उन्होंने जेल में मिलनेवाली सुविधाओं के आधार पर सरकार की सहानुभूति का आकलन किया था-

‘वाह गोडसे
जिनको तुम पर गुस्सा आया
उन्हें माफ नहीं सरकार करेगी
पकड़कर बंद कर दिया है हाजत में
सजा मिलेगी कड़ी से कड़ी
बड़भागी तुम, बने हुए हो शाही कैदी
उन गुस्ताखों का बदमाशों में शुमार है!
तुम सुनते हो रोज रेडियो
पर उनको तो
मामूली अखबार भी नहीं मिलता होगा.’

पर, गांधीहत्या-सीरीज की कविताओं के पाठ का असली मजा तो जब है कि इन्हें उनकी मैथिली कविता ‘कांग्रेसी कनवासर’ के साथ रखकर पढ़ा जाए. वह कविता उन्होंने देश के पहले आम चुनाव (1952) के दिनों में लिखी थी. उसमें है कि कांग्रेसी कनवासर अपने पक्ष में क्या-क्या बातें बताकर वोट मांगता है. मजे की बात है कि वह गांधीजी को वोट देने कहता है कि ‘पता है न, गांधीजी ने मरते वक्त क्या कहा था? कहा था, जो हमको वोट नहीं देगा, हमें मारनेवाले सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों को वोट देगा, उसके घर पर गिद्ध बैठेगा और उसका बंधा बैल मरेगा.’ कहने की जरूरत नहीं कि ‘बंधा बैल मरना’ कोई घटना-भर नहीं है, पूरा कर्मकांडीय मकड़जाल है उसके भीतर, जिसका मतलब किसान का सर्वनाश है, और सात पीढ़ियों तक पीछा करने वाली कलंक-कथा भी. उस कविता में कम्युनिस्टों का परिचय भी दिया गया है. कहा है, हिरणकशिपु आजकल रूस देश में राज कर रहा है, और ये सब लोग उसके दूत-भूत हैं.

सत्याग्रह से साभार



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