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कब और कैसे करें हरितालिका तीज व्रत : आचार्य राधाकान्त शास्त्री

आचार्य राधाकान्त शास्त्री ,भाद्र पद शुक्ल तृतीया में जिस दिन सूर्योदय हो और उसमें अगर हस्त नक्षत्र का संयोग बने तो इसी दिन हरितालिका तीज का व्रत करना शास्त्र सम्मत है। इस वर्ष 2 सितंबर सोमवार को हरितालिका तीज पड़ रहा है, इस साल कुछ गूगल और नेट वाले पंडित जी लोग पंचाग और शास्त्र निर्णय के अभाव में 1 सितंबर रविवार को भी आधे समय से होने वाले तृतीया को हरितालिका तीज मान रहे हैं जो शास्त्र सम्मत नही है, इस दिन तृतीया एवं हस्त में सूर्योदय नही  हस्त हो रहा है । अगले दिन का व्रत सूर्योदय व्यापिनी है, अतः 2 सितंबर सोमवार को ही व्रत करना अधिक श्रेष्ठ रहेगा । सभी पञ्चाङ्ग कारों के मतानुसार सर्व सम्मति से 2 सितंबर सोमवार को ही हरितालिका तीज व्रत किया जाएगा । इस वर्ष पूजा का समय इस बार सुबह 7 बजे से रात्रि 8:40 तक है।

महत्त्व एवं कथा विधि :- भाद्रपद की शुक्ल पक्ष के तृतीया तिथि को हस्त नक्षत्र में कुमारी तथा सौभाग्यवती स्त्रियाँ पति सुख को प्राप्त करने के लिए भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करती है। इस व्रत को तीज, हरितालिका तीज, अखंड सौभाग्यवती व्रत इत्यादि के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को करने से स्त्रियों को अखंड सौभाग्यवती का वरदान तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

यह व्रत वास्तव में “सत्यम शिवम्  सुंदरम” के प्रति आस्था और प्रेम का त्यौहार है, कहा जाता है की इसी दिन शिव और मां पार्वती का पुनर्मिलन इसी दिन हुआ था। हरियाली तीज शिव-पार्वती के मिलन का दिन है। सुहागिनों द्वारा शिव-पार्वती जैसे सुखी पारिवारिक जीवन जीने की कामना का पर्व है। वास्तव में हरितालिका तीज सुहागिनों का त्यौहार है, लेकिन  कुछ स्थानों में कुंवारी लड़कियाँ भी मनोनुकूल पति प्राप्त करने के लिए यह व्रत रखती हैं।

भद्रा मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। यह एक ऐसा समय है, जब प्रकृति अपने पूरे यौवन पर होती है, सभी ओर हरियाली ही हरियाली होती है, इस हरियाली की सुंदरता, मधुरता मोहकता को देखकर भला कौन नहीं मंत्र मुग्ध हो जाएगा। इस मौसम में नव नव शाखा नवकिसलय नवपल्लव एक दूसरे से स्पर्श कर मानव जीवन को भी मधुर मिलन का एहसास कराते है।

शास्त्रों के अनुसार माता पार्वती, महादेव को अपना पति बनाना चाहती थी इसके लिए पार्वती ने कठिन तपस्या की । इसी बीच उनके पिता हिमवान ने नारद जी से पार्वती को विवाह के लिए विष्णु को देने का निश्चय कर लिया । पिता हिमवान के इस प्रतिज्ञा के कारण पार्वती दुखी होकर अपने सखियों के घर चली गई और जब उन्होंने दुख का कारण पूछा तो पार्वती विलाप कर अपनी सारी व्यथा सुनाई, फिर सखियां पार्वती के दुख निवारण के लिए एक कंदरा में हर ले गई। जहां पर सखियों के साथ पार्वती कठोर तपस्या व्रत कर भगवान शिव को प्राप्त किया । उसी से इस व्रत का नाम  हरतालिका तीज पड़ा। हरत शब्द हरण शब्द से बना है हरण का अर्थ होता है हरण करना तथा आलिका का अर्थ होता है सखी , इस व्रत को करने के लिए पार्वती को सखियां हर के ले गई थी, इसी कारण इस तीज व्रत को हरितालिका तीज कहा जाता है।

व्रत पूजन सामग्री :- व्रत पूजा में निम्नलिखित सामग्री को एकदिन पूर्व ही इकट्ठा कर लेना चाहिए ताकि पूजा के समय किसी भी प्रकार की दिक्कत न हो। पान, सुपारी, नारियल, जमीरी, चावल का चूर्ण, बुक्का, मिठाई, फल, पल्लव, गंगाजल, छोटी चौकी,

पंचामृत ( घी, दही, शक्कर, दूध, शहद) दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर,चन्दन, अबीर, जनेऊ, वस्त्र, श्री फल, कलश, विल्वपत्र, फूल, फूलमाला, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, अकवन का फूल, तुलसी, मंजरी । काली मिट्टी, या नदी की मिट्टी, अथवा बालू रेत, केले का पत्ता, फल एवं फूल। गणेश एवं महादेव के लिए वस्त्र, माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामान जैसे — साड़ी, चूड़ी,बिछिया,बिंदी, कुमकुम, काजल, माहौर, मेहँदी, सिंदूर, कंघी, अन्य वस्त्र आदि लेनी चाहिए एवं अन्य सम्पूर्ण पूजन सामग्री  पूजा विधि में आवश्यकतानुसार ले लेनी चाहिए।

व्रत नियम विधि :- यह व्रत तीन दिन का होता है प्रथम दिन ( 1 सितंबर रविवार ) को व्रती नहाकर खाना खाती है जिसे नहा खा का दिन भी कहा जाता है।

दूसरे दिन (2 सितंबर सोमवार ) व्रती सुबह से ही पूजन कर सकती है । इस दिन दिनभर उपवास रहकर  अपने समय से शुद्ध वस्त्र धारण कर पार्वती तथा शिव की मिट्टी /रेत के शिवलिंग प्रतिमा बनाकर गौरी-शंकर की पूजा समर्पण कर यथा शक्ति भक्ति जागरण करें।

 तीसरे दिन (3 सितंबर मंगलवार) को व्रती अपना व्रत उपवास पूर्ण कर  पुनः शिव पूजन कर चढ़ाये गए पूजन सामग्री दक्षिणा, आदि ब्राह्मण को दे कर  पूजन में प्रयुक्त शिवलिंग आदि को जलप्रवाह करें ।

पूजा में शिव, पार्वती एवं गणेश जी की प्रतिमा रेत, बालू या काली मिट्टी की अपने हाथों से बनानी चाहिए।रंगोली तथा फूल से सजाना चाहिए। चौकी पर आसन बनाकर उस पर थाल रखे तथा उस थाल में केले के पत्ते को रखना चाहिए उसके बाद तीनो प्रतिमा को बिल्वपत्र या केले के पत्ते पर स्थापित करना चाहिए।

उसके बाद कलश स्थापन कर उसके उपर श्रीफल रखें, सबसे पहले दीपक जलाना चाहिए। कलश के मुंह पर लाल धागा बांधना चाहिए। घड़े पर गोबर जा गौरी गणेश बनाकर उसपर रोली दूर्वा अक्षत चढ़ा कर ध्यान पूजन करें  तत्पश्चात जल चढ़ाना चाहिए फिर कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प से कलश का पूजन करना चाहिए।

कलश पूजा के उपरान्त गणपति पूजा,उसके बाद शिव जी तथा बाद में माता गौरी की पूजा करनी चाहिए। पूजा के दौरान सुहाग की पिटारी में सुहाग की साड़ी रखकर पार्वती को चढ़ानी चाहिए तथा शिवजी को धोती और अंगोछा चढ़ाना चाहिए। पुरे विधि-विधान से पूजा करने के बाद हरितालिका व्रत की कथा पढ़नी अथवा सुननी चाहिए।

कथा पढ़ने अथवा सुनने के बाद सर्वप्रथम गणेश जी कि आरती, फिर शिव जी की आरती तथा अंत में माता गौरी की आरती करनी चाहिए।आरती के बाद भगवान् की परिक्रमा कहा जाता है की इस दिन रात भर जागकर गौरी शंकर की पूजा कीर्तन स्तुति इत्यादि करनी चाहिए।

दूसरे दिन प्रातः काल स्नान कर पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता हैं उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेना चाहिए। उसके बाद चढ़ाये हुए प्रसाद या हलवा या क्षेत्र विशेष के विधान के अनुसार अपना उपवास तोड़ना चाहिए। उसके बाद सुहाग की सामग्री को किसी ब्राह्मणी तथा धोती और अंगोछा ब्राह्मण को दे देना चाहिए।

हरितालिका व्रत के लिए ध्यातव्य बातें:- जो स्त्री या कन्या इस व्रत को एक बार करता है उसे प्रत्येक वर्ष पूरे विधि-विधान के साथ करना चाहिए। इस दिन नव वस्त्र ही पहनना चाहिए। हरितालिका तीज पूजन मंदिर तथा घर दोनों स्थान में किया जा सकता है। इस दिन अन्न, जल या फल नही खाना चाहिए।

हरितालिका व्रत कथा:- पार्वती जी की पूर्व जन्म का स्मरण कराने के लिए महादेव शिव ने इस प्रकार से  कथा कही थी –

हे गौरी ! पर्वतराज हिमालय पर भागीरथी के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर कठिन तप किया था । इस दौरान तुमने अन्न का त्याग कर रखा था तथा केवल हवा तथा सूखे पत्ते चबाकर तपस्या की थी ।

माघ की शीतलता में तुमने लगातार जल में प्रवेश कर तप किया था । वैशाख की तप्त गर्मी में पंचाग्नि से शरीर को तपाया । श्रावण की मुसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न, जल ग्रहण किये व्यतीत किया । तुम्हारी इस तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दु:खी और नाराज रहते थे । एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराजगी को देखकर नारद जी तुम्हारे आये ।

तुम्हारे पिता नारद जी आने का कारण पूछा तब नारद जी बोले –

“हे गिरिराज ! मुझे भगवान विष्णु भेजा है । आपकी कन्या की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान उससे विवाह करना चाहते है । बताये आपकी इच्छा है । नारदजी की बात से पर्वतराज बहुत ही प्रसन्न होकर बोले –“श्रीमान ! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते है तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है । वे तो साक्षात् परब्रह्म है । यह तो सभी पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-संपत्ति से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने।

नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का शुभ समाचार सुनाया । किन्तु जब तुम्हे इस शादी के सम्बन्ध में पता चला तो तुम बहुत दुखी हुई । तुम्हें दु:खी देखकर तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछा तब तुम बोली –“मैंने सच्चे मन से भगवान शिव का वरण किया है, परन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है । मैं धर्मसंकट में हूँ । अब मेरे पास प्राण त्यागने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं बचा है ।”

तुम्हारी सखी ने कहा –”प्राण त्यागने का यहाँ कोई कारण नहीं लगता। दुःख के समय धैर्य से काम लेना चाहिए । वास्तव में भारतीय नारी जीवन की सार्थकता इसी में है कि एकबार स्त्री जिसे पुरुष मन से पति रूप में वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त सच्चे मन तथा तन से निर्वहन करे । सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के सामने तो भगवान भी असहाय हैं । मैं तुम्हें घने वन में ले चलती हूँ जो साधना स्थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हे ढूंढ़ भी नहीं पायेंगे । मुझे पूरा विश्वास है कि भगवान् अवश्य ही तुम्हारी इच्छा की पूर्ति करेंगे ।

अपने सखी के साथ तुम जंगल में चली गई। इधर तुम्हारे पिता तुम्हे घर में नहीं देखकर बड़े चिंतित और दु:खी हुए । वे सोचने लगे कि मैंने तो विष्णु जी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया हैं । यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत ही अपमान होगा।

ऐसा विचार कर पिता ने तुम्हारी खोज शुरू करवा दी । तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर के गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगी । भाद्रपद में शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि तथा हस्त नक्षत्र था । उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया । रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मैं शीघ्र ही प्रसन्न होकर तुम्हारे पास आ गया और तुमसे वर माँगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा –

‘मैं सच्चे मन से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ । यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ आये है तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये । तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया प्रात: होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया । उसी समय गिरिराज अपने बंधू-बाँधवो के साथ तुम्हे ढूंढते हुए वहाँ पहुँचे। तुम्हारी मन तथा तन की दशा देखकर अत्यंत दु:खी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पूछा। तब तुम बोली –‘पिताजी मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक्त कठोर तपस्या में बिताया है । मेरी इस तपस्या का एकमात्र उद्देश्य महादेवजी को पति रूप में प्राप्त करना था। आज मैं अपनी तपस्या फल पा चुकी हूँ। चुकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय किया इसलिए मैं अपने अराध्य महादेव शिवजी की तलाश में घर से चली गई। अब मैं इसी शर्त पर घर लौटूंगी की आप मेरा विवाह महादेव जी के साथ ही करेंगे। पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हे घर वापस ले आए। किंचित समय उपरांत उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ तुम्हारा विवाह मेरे साथ किया।

महादेव शिव ने पुनः कहाँ – ‘हे पार्वती ! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी पूजा-अर्चना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरुप हम दोनों का विवाह संभव हो पाया। अतः इस व्रत का महत्त्व यही है कि जो स्त्री तथा कन्या पूरी निष्ठा के साथ व्रत करती है उसको मै मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ ।

महादेव आपको उत्तम आयु, आरोग्यता, सुख सौभाग्य, सन्तति सन्तान एवं  मनोवांछित सिद्धि प्रदान करें। ॐ नमः शिवाय।।

आचार्य राधाकान्त शास्त्री

आचार्य राधाकान्त शास्त्री +91 9934428775



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