पुरानी काॅपी : प्रियांशी मिश्रा
पुरानी काॅपी
एक बरसों पुरानी कॉपी में
अनेक आकार बने हुए थे
टेढ़े मेढ़े, खुद में उसने
पुरानी यादें समेट रखे थे
उस पुरानी कॉपी को
धूल ने ढॅंक रखा था
देखा उसके एक पन्ने में
एक बच्चा सिसक रहा था
मैंने पूछा अपनी कल्पना से
आखिर क्यों उसकी यह दशा है
जवाब मिला, कि पन्नों के फटने से
शायद, अपनों से बिछड़ गया है
उस कॉपी के रंग कुछ
हल्के – फीके हो गए थे
कि उसमें बने चरित्र भी
पहचान अपनी खो रहे थे
देखे उसमें कुछ ऐसे चित्र , जो
एक बच्चे का भोलापन दर्शाते थे
उसके हर भय, लालच, हर भाव को
इतनी मिठास से व्यक्त कर जाते थे
पन्ने कुछ थे सिमटे – सिकुड़े-से
पीले रंग के, मिटे – उधड़े से
जैसे, हम भी भाग – दौड़ में
बचपन से थे बिछुड़े हुए- से
दाग – धब्बे उन पन्नों पर
और हमारे भीतर भी थे
जिम्मेदारी बढ़ी कुछ इस तरह
हम खुद को ही थे भूले से
कुछ यादें ताजा हो गईं
वे बरस भी क्षण से लगने लगे
भावुक हुई मेरे मन की बालिका
और हाथ भी मेरे थिरकने लगे
कॉपी रख दी मैंने किनारे
बिस्तर पर थकी, मैं गिर गई
लगा, माँ का हाथ फिरा मुझपर,
गहरी निंदिया से थी मैं घिर गई
वो आकार, वो आकृतियाँ
जो मैंने स्वयं कभी रची थीं
फिर भी, जाने क्यों कुछ जानी
तो कुछ अनजानी लग रही थीं
वो चित्र – चरित्र बरसों बाद
शायद मुझसे मिलने आये थे
कहीं खोये बचपन की
मीठी यादें देने आये थे
– प्रियांशी मिश्रा
अति सुंदर, प्रियांशी आपकी लेखनी में छोटी महादेवी वर्मा की झलक मिलती है। आप इसी तरह प्रयास करते ही रहे, सृजन के अंतिम लक्ष्य अर्थात अंतिम सत्य तक अपनी कविता को ले जाएं, मेरी शुभकामनाएं
प्रियांशी की एक और कविता ! वाह, बहुत अच्छा. नवोदित कवयित्री की
प्रस्तुत कविता अतिसंवेदनशील कविता है. अभी -अभी
बचपन से एक कदम आगे की ओर बढाती प्रियांशी जी
अपने छूटते बचपन के विषय में भावुक हो रही है.
बिछुड़ते हुए बचपन का भोलापन लिये हुए आ रही गंभीरता पाठक के मन में उतर जाती है. प्रियांशी
अनवरत लिखती रहें और प्रशंसित होती रहें.
अनेकशः शुभकामनाएँ. शुभ आशीष.