जो शाश्वत है वही सनातन है : सनातन को समर्पित जीवन
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
श्री राम निवास सिंह
||तामादिशक्तिम् शिरसा नमामि||
●भारतवर्ष में बहुसंख्यक सनातनी अर्थात् सनातन मत को मानने वाले हैं। शाश्वत को ही सनातन कहा गया है। जो सदा से है और सदा रहेगा, वही सनातन है। ईश्वर सनातन है।
●सनातन मत के अनुसार, धर्माचरण के बिना मनुष्य भैतिक सुख-शान्ति अथवा आध्यात्मिक उन्नति को उपलब्ध नहीं हो सकता तथा ईश्वर को उपलब्ध होना ही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपलब्धि है। धर्माचरण का आशय धर्म-तत्त्वानुगत आचरण से है। धर्म-तत्त्व – अत्यंत प्राचीन भारत की अनेक मौलिक खोजों में से एक उल्लेखनीय खोज है, जिसे सनातन भारतीय चिन्तन के अनुगत हुए बिना समझ पाना असम्भव है। धर्म को Religion, मज़हब, सम्प्रदाय आदि समझना सर्वथा गलत है। धर्म किसी प्रज्ञावान मनुष्य, ऋषि, द्रष्टा, अवतार, देवदूत आदि द्वारा निर्धारित विधान नहीं है। धर्म सनातन है। वह शाश्वत ईश्वरीय विधान है, जिससे अशेष सर्व संरक्षित एवं संचालित है।
●प्राचीन भारतीय महर्षियों ने सभी मनुष्यों द्वारा धर्माचरण को सरलतापूर्वक सुनिश्चित कराने वाली ऐसी जीवन-शैली की खोज की; जिसे अपनाकर मनुष्य सदा ही ईश्वर के प्रति समर्पित रह सकता है। उस महान जीवन-शैली को प्राचीन काल से पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाने वाले भारतीय ही सनातनी हैं।
●सनातनी सनातन के उपासक होते हैं। धर्म सनातन है। सत्य सनातन है। ईश्वर सनातन है। आत्मा सनातन है। ईश्वर को उपलब्ध होने का सरलतम मार्ग सनातन है। धर्माचरण ही सनातन पथ है। सनातनी – धर्ममार्ग पर दृढ़ रहकर – सत्य और ईश्वर की उपासना करते हैं। वे धर्म, सत्य और ईश्वर को समझने के लिए तथा धर्माचरण के लिए वेदों, पुराणों, महाभारत, रामायण, भगवद्गीता और अन्यान्य शास्त्रीय ग्रंथो को प्राचीन काल से मानते आये हैं। उन ग्रन्थों की सहायता लेकर, मनुष्य आध्यात्मिकता के सर्वोच्चतम शिखर पर सरलता से आसीन हो सकता है। उन ग्रन्थों के निर्देशों को मानते हुए, धर्माचरण के पथ पर चलना तथा ईश्वर की उपासना करना ही सनातन मत है। यह मत किसी विशेष प्रज्ञापुरुष या ईश्वरीय अवतार या ईश्वर-दूत द्वारा प्रवर्तित नहीं है। इस मत का कोई प्रवर्तक नहीं है। ऋषियों, मुनियों की सनातन परम्परा से यह मत चला आ रहा है।
●इस मत के अनुसार – संसार में सम्पूर्ण “ज्ञान और विज्ञान” की स्थिति सनातन अर्थात् शाश्वत है। अतः किसी भी ज्ञान अथवा विज्ञान पर उसके प्रथम द्रष्टा का अधिकार नहीं होता। इसीलिए ज्ञान-विज्ञान-सूत्रों के सनातन संकलन “वेदों” को – सनातन, अपौरुषेय तथा ईश्वर की वाणी माना गया। इस मत में वेदों को सर्वोपरि माना गया है।
●”सनातन मत” किसी मज़हब या सम्प्रदाय का नाम नहीं है। अधिसंख्य सनातनी किसी भी सम्प्रदाय के अनुयायी नहीं हैं। किन्तु सनातनियों में – सनातन मत के ही किन्हीं अंशों के प्रति विशेष आग्रह रखनेवाले अनेकों सम्प्रदाय अवश्य हैं।
●सनातन मत में साम्प्रदायिक वैमनस्य का भाव सर्वथा वर्जित है।
●इस मत में श्रद्धा और आस्था को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है तथा अपनी-अपनी श्रद्धा-आस्था के लिए प्रत्येक मनुष्य को पूरी स्वतंत्रता प्राप्त रहती है। इस मत में – अपनी ही नहीं, दूसरों की श्रद्धा-आस्था को भी आदर के योग्य माना जाता है।
●यह मत सत्य को सर्वोपरि मानता है तथा सत्य का खोजी होने के लिए प्रेरित करता है। इसमें कट्टरता और असहिष्णुता के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि कट्टर या असहिष्णु व्यक्ति सत्य को समझ ही नहीं सकता। वैचारिक कट्टरता या असहिष्णुता की कारा में क़ैद मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति असम्भव है।
●ऋषि-मुनियों की दूरदर्शिता के कारण, इस मत में लचीलापन के लिए पर्याप्त स्थान है। सनातनी होने के लिए, कोई भी अनिवार्य विधान या विश्वास नहीं है। इसीलिए यह मत सम्प्रदाय का स्वरूप नहीं ले पाया। यह मत अपनी मान्यताओं के बारे में संशय, तर्क और विचार-विमर्श की अनुमति देता है; ताकि मनुष्य वैचारिक जड़ता के प्रति आत्मार्पित होने से बच सके और आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता रहे।
●इस मत में ईश्वर की सर्वोपरि एवं सर्वस्वतंत्र सत्ता को मान्य किया गया है। इसमें ईश्वर के अनेक साधना-सुलभ स्वरूपों को भी मान्यता प्राप्त है। इस प्रकार, इस मत में प्रतीयमान अनेकेश्वरवाद – वास्तव में एकेश्वरवाद का ही साधना-सुलभ स्वरूप है। इस मत में अनेक देवी-देवताओं और प्राकृतिक शक्तियों की पूजा – ईश्वर-प्रतिनिधियों की पूजा है। यह मत “कण-कण में ईश्वर की उपस्थिति तथा ईश्वर में अशेष सर्व की स्थिति” का अनुभव कराता है। यह मत ईश्वर के नाते सम्पूर्ण संसार को एक ही कुटुम्ब समझाता है।
●इस मत के अनुसार – “ईश्वर सगुण-साकार और निर्गुण-निराकार दोनों है तथा दोनों से परे भी है। धर्म-संस्थापना के लिए, ईश्वर समय-समय पर अवतरित होता रहता है।”
●इस मत में ईश्वर की उपासना के अनेक तरीके हैं। उन्हीं तरीकों में से एक सर्वसुलभ तरीका है – मूर्ति के माध्यम से ईश्वर की उपासना, जिसे अज्ञानवश मूर्ति की ही उपासना समझ लिया जाता है।
●इस मत में जीवन और जगत् को आवश्यक साधन तथा आध्यात्मिक उन्नति को साध्य समझा जाता है। यह मत आध्यात्मिक उन्नति की तुलना में सांसारिक उपलब्धियों को तुच्छ मानता है। इस मत के अनुसार – “प्राणी की वास्तविकता सनातन आत्मा है तथा प्राणी का वर्तमान जीवन एक सनातन जीवन-क्रम का अत्यन्त छोटा हिस्सा है। पूर्वजीवन और पुनर्जीवन भी उसी सनातन जीवन-क्रम का हिस्सा है।”
●यह मत सांसारिक आसक्तियों से दूर रहने के लिए, प्रेरित करता है, ताकि अध्यात्म की ओर गति अवरुद्ध न हो।
●यह अध्यात्म-केन्द्रित मत है। इसकी प्रत्येक शिक्षा आध्यात्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करती है। इस मत में अध्यात्म विषयक ज्ञान-विज्ञान का अथाह भण्डार है तथा सर्वोच्चतम आध्यात्मिक शिखर पर आसीन होने के लिए अनेक साधना-मार्ग हैं।
●इस मत में, प्रत्येक परम्परा मनुष्य में आध्यात्मिक रुझान को संजीवित रखने के लिए है।
●इस मत में संस्कार को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। संस्कार से हीन मनुष्य निश्चय ही पतन को प्राप्त होता है। सनातन मत में जन्म से मृत्यु तक, ऐसी व्यवस्था है; जो मनुष्य के मन में, आध्यात्मिकता के महत्व को धूमिल नहीं होने देती। विभिन्न संस्कार-कार्यक्रम और मूर्तिपूजा – उस व्यवस्था के मुख्य अंग हैं।
●यह मत समता को बहुत अधिक महत्व देता है तथा साम्यबोध को उच्चस्तरीय आध्यात्मिक उपलब्धि मानता है। यह मत उँच, नीच आदि प्रत्येक भेद-भाव को अज्ञान की उपज मानता है।
●यह मत आत्मबोध, ब्रह्मबोध और मोक्ष को बहुत ऊँची उपलब्धि मानता है तथा उनको उपलब्ध होने का सुनिश्चित मार्ग प्रशस्त करता है।
●इस मत में धर्मबोध, धर्मनिष्ठा और धर्माचरण का बहुत अधिक महत्व है। माता-पिता-गुरु की सेवा करना, अतिथि का सत्कार करना और शरणागत की रक्षा करना आदि को धर्माचरण माना गया है। इस मत के अनुसार, मनुष्य में धर्म के प्रतिष्ठित होने पर – उसमें सत्य, धृति, क्षमा, शील, अहिंसा, दया, प्रेम, करुणा, विश्वबंधुत्व, सर्वभूतहित आदि महनीय मानवोचित मूल्यों का उद्भव स्वतः होता है तथा इन मूल्यों की साधना करने पर, मनुष्य में – धर्म स्वतः प्रतिष्ठित होने लगता है। इस मत में, ईश्वरोन्मुखता ही धर्माचरण की कसौटी है।
●इस मत में करुणा, दया, दान, तप और यज्ञ को प्रत्येक स्थिति में अत्याज्य माना गया है।
●इस मत में – माता, पिता, गुरु, मातृभूमि, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, पंचतत्त्व, गंगा, गाय, तुलसी, साधु-सन्त, ब्रह्मज्ञानी, भगवद्भक्त आदि को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है।
●इस मत में – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य को मनुष्य का शत्रु माना गया है। ये सभी मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं।
●मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति को सहजतापूर्वक सुनिश्चित करने के लिए, इस मत में वर्णचार की व्यवस्था थी; जो अब समाप्त हो चुकी है। प्राचीन ऋषियों ने मनुष्यों के नैसर्गिक चार प्रकार के कर्म-स्वभाव (वर्ण) के रहस्य को समझकर, आध्यात्मिक उन्नति के लिए, वर्णचार का निर्धारण किया था। वर्णचार की वह व्यवस्था न तो जन्म पर आधारित थी, न कर्म के स्वरूप पर; वह तो विशुद्ध रूप से प्राकृतिक कर्म-स्वभाव (वर्ण) पर आधारित थी। वह वर्ण-व्यवस्था न होकर, वर्णचार की व्यवस्था थी। उस व्यवस्था में उँच-नीच का भेद था ही नहीं। न जानें कब और कैसे – उस महनीय व्यवस्था की जगह, उसी की आड़ में – उँच-नीच और वर्चस्व के भाव से विकृति को प्राप्त जाति-व्यवस्था – सनातनियों के समाज में मान्य हो गयी। यह जाति-व्यवस्था – न तो सनातन मत का हिस्सा है और न सनातन मत द्वारा अनुमोदित ही है। उँच-नीच और भेद-भाव वाली सोच – सनातन मत में सर्वथा वर्जित है। सनातनियों के अभ्युदय की राह में – यह जाति-व्यवस्था ही सबसे बड़ी बाधा है।
श्री राम निवास सिंह
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
Loading...