सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेद : मुरलीमनोहर तिवारी सीपू
11 months agoमुरलीमनोहर तिवारी (सीपू), बीरगंज । धनतेरस यानी की धनत्रयोदशी, हर साल कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है। धनतेरस पर मां लक्ष्मी, गणेश और कुबेर देवता के पूजा का विधान है, साथ ही यह दिन भगवान धन्वंतरि के जन्मोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। नेपाल एकमात्र ऐसा देश है जहां दीवाली पर यमराज की पूजा होती है।
भगवान धन्वंतरि को देवों का चिकित्सक माना गया है। धनतेरस पर इनकी आराधना से आरोग्य की प्राप्ति होती है। भगवान धन्वंतरि श्रीहरि विष्णु के 24 अवतारों में से 12वें अवतार माने गए हैं। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान धन्वंतरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान हुई थी। समुद्रमंथन के समय चौदह प्रमुख रत्न निकले थे जिनमें चौदहवें रत्न के रूप में स्वयं भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए जिनके हाथ में अमृतलश था। चार भुजाधारी भगवान धन्वंतरि के एक हाथ में आयुर्वेद ग्रंथ, दूसरे में औषधि कलश, तीसरे में जड़ी बूटी और चौथे में शंख विद्यमान है।
भगवान धन्वंतरी ने ही संसार के कल्याण के लिए अमृतमय औषधियों की खोज की थी। दुनियाभर की औषधियों पर भगवान धन्वंतरि ने अध्ययन किया, जिसके अच्छे-बुरे प्रभाव आयुर्वेद के मूल ग्रंथ धन्वंतरि संहिता में बताए गए हैं। यह ग्रंथ भगवान धन्वंतरि ने ही लिखा है। धन्वंतरि के औषध बिज्ञान के कुछ भागों को धन्वंतरि निघण्टु के नाम से जाना जाता हैं। जो आयुर्वेद में पाया जाने वाला प्राचीनतम ग्रंथ है। त्रेता युग में धन्वंतरि के शिष्य वैध सुषेण थे जिन्होंने संजीवनी बूटी मांगकर लक्षमण जी की जान बचाई थी।
महर्षि विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत ने इन्हीं से आयुर्वेदिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की और आयुर्वेद के ‘सुश्रुत संहिता’ की रचना की। सुश्रुत द्वारा लिखा गया यह दुनिया मे सबसे पहला चिकित्सा विश्वकोष है। सुश्रुत को ‘शल्य चिकित्सा के संस्थापक जनक’ के रूप में जाना जाता है। इस पुस्तक में 5 अध्याय हैं जिनमें सूत्र स्थान, निदान स्थान, शरीर स्थान, चिकित्सा स्थान तथा कल्प स्थान आदि शामिल है। सुश्रुत के अनुसार मन एवं शरीर को पीड़ित करने वाली वस्तु को ‘शल्य’ कहा जाता है तथा इस शल्य को निकालने के साधन ‘यंत्र’ कहलाते है।
आयार्य सुश्रुत ने अपने इस ग्रंथ में 100 से भी अधिक शल्य यंत्रों का वर्णन किया है तथा उनके गुणों के विषय में विस्तार से प्रकाश डाला है। आचार्य सुश्रुत आँखों के मोतियाबिन्द की शल्य क्रिया के विशेषज्ञ थे। यदि माता के गर्भ से शिशु योनि मार्ग से न आता हो तो गर्भस्थ शिशु को शल्य क्रिया द्वारा माता के गर्भ से सुरक्षित निकालने की कई विधियों को सुश्रुत अच्छी तरह जानते थे।
आजकल जिन यंत्रों का उपयोग शल्य क्रिया में होता है उनमें से अधिकांश यंत्रों का वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है।
आयार्य सुश्रुत मूल रूप से वाराणसी में सक्रिय दक्षिण भारत के चिकित्सक थे, उनके नाम का उल्लेख सर्वप्रथम बावर अभिलेख में आया। सुश्रुत संहिता का अरबी और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ जिसके अनुसार आधुनिक विज्ञान की प्लास्टिक सर्जरी बनी।
जीवित मनुष्य के दाँत का बेधन का प्रथम एवम प्राचीनतम प्रमाण मेहरगढ़ में पाया गया था। 7500 से 9000 वर्ष पूर्व मेहरगढ़ में 9 सैनिकों के शव मिले जिसमे दाँतो के बेधन के प्रमाण मिले थे। अस्थि शल्य चिकित्सा के भी प्रमाण पाए गए जो ये निष्कर्ष देते है कि प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा की तकनीक और उपकरण मौजूद थे और आयुर्वेद में जड़ी बूटियों द्वारा मूर्छित करने की दवा भी बनाई जाती थी।
आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों में काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भेलसंहिता तथा भारद्वाज संहिता है। इसमें महर्षि कश्यप ने शंका समाधान की शैली में दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का पश्रिहार तथा रोग परिहार के साधन (औषध) इन चारों विषयों का प्रकार प्रतिपादन किया गया है।
इसके पश्चात जीवक ने काश्यप संहिता को संक्षिप्त किया जो ‘वृद्ध जीवकीय तंत्र‘ नाम से प्रकाशित है। इसके 8 भाग हैं- 1. कौमार भृत्य, 2. शल्य क्रिया प्रधान शल्य, 3. शालाक्य, 4. वाजीकरण, 5. प्रधार रसायन, 6. शारीरिक-मानसिक चिकित्सा, 7. विष प्रशमन तथा 8. भूत विद्या। इसी से यह ‘अष्टांग आयुर्वेद’ कहताला है। पुनः इन विषयों को प्रतिपादन के अनुसार आठ स्थानों में विभक्त किया गया। इनमें सूत्र स्थान में 30, निदान स्थान में 12, चिकित्सा स्थान में 30, सिद्धि में 12, कल्प स्थान में 12, तथा खिल स्थान/भाग में 80 अध्याय है। इस प्रकार आचार्य जीवक ने कुल 200 अध्यायों में वृद्ध जीवकीय तंत्र को संग्रहीत कर आर्युविज्ञान का प्रचार प्रसार किया। वृद्ध जीवकीय तंत्र नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है।
ईसा पूर्व 2350-1200 के लगभग शालिहोत्र नामक अश्वविशेषज्ञ हुए है जिन्हें पशु चिकित्सा का ज्ञान था। इन्होने हेय आयुर्वेद, अश्व प्राशन तथा अश्व लक्षण शास्त्र की रचना की। इसे ‘शालिहोत्र संहिता‘ भी कहा जाता है। इसमें 12000 श्लोक है। इन्हें विश्व का प्रथम पशु चिकित्सक माना जाता है।
मुनि पालकाप्य का काल 1800 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है जिन्हें विशाल ग्रन्थ ‘हस्ति आयुर्वेद’ की रचना की थी। इसमें चार खण्ड तथा 152 अध्याय है।
आयुर्वेद के इतिहास पुरूष जीवक कौमारभच्च का कालखण्ड लगभग 500 वर्ष ई.पू. माना जाता है, जब मगध के सम्राट बिम्विसार थे। सम्राट बिम्विसार को भगन्दर हो गया। परन्तु जीवक द्वारा निर्मित औषध के एक ही लेप से सम्राट ने रोग से मुक्ति पा ली। इसी प्रकार जीवक ने नगर सेठकी खोपड़ी का सफल आपरेशन (शल्य क्रिया) कर फिर सी दिया व उसमें से मवाद और कीड़े निकाल दिये। सभवतः यह मस्तिष्क की पहली शल्य क्रिया होगी। जीवक की शल्य चिकित्सा के विषय में और भी प्रमाण मिलते है। उन्होने वाराणसी के नगर सेठ के पेट से आँतों की गाँठों का शल्य क्रिया द्वारा सफल उपचार किया। पेट को चीरकर आँतें बाहर निकाली तथा आँतों के खराब भाग को काटकर फैंक दिया तथा शेष को पुनः सीकर ठीक कर दिया। जीवक ने भगवान बुद्ध का भी उपचार किया था।
चरक संहिता के रचियता महर्षि चरक, महर्षि आत्रेय, महामेघा, अग्निवेश तथा दृढबल रहे है मगर महर्षि चरक का नाम विशेष रूप से प्रतिष्ठित है। ये संहिताकार ऋषि एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। महर्षि चरक ने वनस्पतिजन्य विभिन्न दवाओं के निर्माण एवं उन्हें लिपिवद्ध करने के अतिरिक्त उनका घूम-घूमकर प्रचार-प्रसार भी किया। इसी कल्याकारी विचरण क्रिया से उनका नाम चरक विश्व प्रसिद्ध हो गया। चरक संहिता के अध्ययन से पूरी जीवन शैली आहार चर्या, ऋतु चर्या, रात्रि चर्या आदि का सम्यक ज्ञान हो जाता है तथा तदनुसार यदि व्यक्ति अनुसरण करे तो वह सदा निरोग रह सकता है। यह काल गुप्त वंश के शासन काल का रहा है व सन् 300 से 500 ई. के बीच का है।
आयुर्वेद में जिन तीन आचार्यो की गणना मुख्यरूप से होती है उनमें चरक, सुश्रुत के बाद वाग्भट का नाम आता है। इन्होने अष्टांग हृदय ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड छठी सदी का माना जाता है। यह पूरा ग्रन्थ सूत्र स्थान, शरीर स्थान, निदान स्थान, चिकित्सा स्थान, कल्प स्थान तथा उत्तर स्थान आदि में विभक्त है। यह ग्रन्थ आयुर्वेद का सार माना जाता है। आचार्य वाग्भट का कहना है कि इस ग्रन्थ में कोई कपोल कल्पित बात नहीं कही गयी है बल्कि यह ग्रन्थ पूर्वाचार्यों के अभिमतों तथा अनुभव के आधार पर किया गया है। इस ग्रन्थ के पठन-पाठन, मनन एवं प्रयोग करने से निश्चय ही दीर्घ जीवन आरोग्य धर्म, अर्थ, सुख तथा यश की प्राप्ति होती है।
आचार्य माधव ने एक विशिष्ट ग्रन्थ का लेखन किया जिसका नाम ‘रोग विनिश्चय‘ रखा। यह ग्रन्थ माधव निदान के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य माधव ने रोग ज्ञान के पाँच साधन बताये है। निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति। आचार्य माधव का समय छठी सदी के अन्त का बताया जाता है। आचार्य माधव ने अतिसार, पाण्डुरोग, क्षय रोग आदि का विस्तृत वर्णन किया है।
आचार्य शांर्गधर को नाड़ी शास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है। इन्होने 13 वीं -14वीं सदी के दौरान दो ग्रन्थों ‘शार्ंगधर संहिता’ तथा ‘शांर्गधर पद्धति‘ की रचना की। आचार्य हाथ में कच्चे धागे के एक सिरे को बांधकर दूसरे सिरे को पकड़कर नाड़ी गति का ज्ञान करके रोग एवं रोगों के सम्बन्ध में सब कुछ सत्य-सत्य बना देते थे।
आयुर्वेद की आचार्य परम्परा में श्री भावमिश्र का नाम भी विशेष महत्व रखता है। इन्होने भाव प्रकाश ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड 16वीं सदी का माना गया है। इन्होंने समस्त व्यक्तियों को दो भागों में विभक्ति किया- 1. कर्मज अर्थात जो दुष्कर्म के पश्रिणामस्वरूप फलित होती है तथा प्रायश्चित से उनका विनाश होता है। 2. इसके विपरीत दूसरे प्रकार की दोषज व्यधियाँ हैं जो मिथ्या आहार-विहार करने से कुपित हुए वात, पित्त एवं कफ से होती है।
सोलहवीं शताब्दी में रचित ‘वैद्यचिन्तामणि‘ का आयुर्वेद में विशेष स्थान है। यह आचार्य बल्लभाचार्य द्वारा तेलगु में लिखी गयी है। यह ग्रन्थ 26 भागों में विभक्त है। मंगलाचारण के बाद पंच निदान के साथ-साथ अष्ट स्थान परीक्षा का विवरण है जिसमें पहले नाड़ी परीक्षा है। नाड़ी का जितना विस्तार से वर्णन यहा मिलता है उतना अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता। हाथ के साथ-साथ पाँव के मूल नाड़ी परीक्षा, स्त्रियों के बायें तथा पुरूषों के दांये हाथ की नाड़ी परीक्षा का विधान बताया गया है। प्रत्येक रोग की चिकित्सा के लिए चूर्ण, कषाय, वटी, अवलेह, घृत, तेल, अर्जन तथा धूम का उल्लेख है। ग्रन्थ के तेइस भागों में विभिन्न प्रकार के रोगों को वर्णन है व क्षय रोगके उपचार का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
वैद्य लोलिम्बराज का समय 17वीं शताब्दी के पूर्वार्थ का माना गया है। इन्होने ‘वैद्य जीवन’ नामक शास्त्र की रचना की। लोलिम्बराज कवित्व सम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होने वैद्य-जीवन को पाँच भागों में विभक्त किया है इसमें ज्वर, ज्वरातिसार, ग्रहणी, कास-श्वास, आमवात, कामला, स्तन्यदुष्टि, प्रदर, क्षय, व्रण, अम्लपित्त, प्रमेह आदि रोगों तथा वाजीकरण और विविध रसायनों का उल्लेख है।
भारत मे 3 हजार साल पहले एक ऋषि हुए है उनका नाम था वाग्भट्ट ! उन्होने ने एक किताब लिखी जिसका नाम था अष्टांग हृदयं। वो ऋषि 135 साल तक की आयु तक जीवित रहे थे।अष्टांग हृदयं मे वाग्भट्ट जी कहते हैं की जिंदगी मे वात्त, पित्त और कफ संतुलित रखना ही सबसे अच्छी कला है और कौशल्य है। सारी जिंदगी प्रयास पूर्वक आपको एक ही काम करना है की हमारा वात्त, पित्त और कफ नियमित रहे, संतुलित रहे और सुरक्षित रहे। जितना चाहिए उतना वात्त रहे, जितना चाहिए उतना पित्त रहे और जितना चाहिए उतना कफ रहे। उसके लिए उन्होने 7000 सूत्र लिखे हैं उस किताब मे।
अब सवाल खड़ा होता है जब हम इतने समृद्ध थे तो पिछड़ कैसे गए ?
एक दिन बख्तियार खिलजी बहुत ज्यादा बीमार पड़ गया था उसको हकीमों ने उनकी बीमारी का काफी इलाज किया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्रजी से उपचार करवाने की सलाह दी गई।
जिसके बाद आचार्य को बुलवाया गया और उनके सामने इलाज से पहले शर्त रख दी की वह किसी हिंदुस्तानी दवाई का इस्तेमाल नहीं करेंगे। यही नहीं, आचार्य को यह भी कहा गया कि अगर वह ठीक नहीं हुए तो आचार्य की हत्या करवा दी जाएगी।
आचार्य ने खिलजी की शर्त को मानते हुए उनका उपचार किया और अगले दिन उनके पास कुरान लेकर गए और खिलजी से कहा कि कुरान के इस पृष्ठ को पढ़िए आप ठीक हो जाएंगे।
खिलजी ने आचार्य की बात को मानते हुए कुरान को पढ़ा और वो ठीक हो गया। खिलजी को अपने ठीक होने की खुशी तो हुई लेकिन उसे इस बात का गुस्सा था कि भारतीय वैद्यों के पास हकीमों से ज्यादा ज्ञान क्यों है ? उसने आचार्य का एहसान मानने की बजाय गुस्से में सन् 1199 में नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगवा दी और उस विश्वविद्यालय के हजारों धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु को भी मार डाला था।
जिस खिलजी को आचार्य ने बचाया उसी खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय का नामो-निशान मिटाकर रख दिया था।
नालंदा विश्वविद्यालय में 300 कमरे 7 बड़े-बड़े कमरे और अध्यन के लिए 9 मंजिला विशाल पुस्तकालय था, जिसमें 3 लाख से भी ज्यादा किताबें मौजूद थीं।
नालंदा विश्वविद्यालय लगभग 800 साल तक अस्तित्व में रहा था।
इस विश्वविद्यालय में छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी और बच्चों का खाना-रहना भी पूरी तरह से नि:शुल्क होता था।
इस विश्वविद्यालय में 10 हजार से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ाई करते थे और 2700 से ज्यादा अध्यापक इस विश्वविद्यालय में शिक्षा देते थे।
जब नालंदा विश्वविद्यालय की खुदाई की गई थी, तब यहां कई मुद्राएं मिली थी, जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि सम्राट कुमारगुप्त के बाद यह विश्वविद्यालय कई सालों तक महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों के संरक्षण में रहा था।
नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास चीन के हेनसांग और इत्सिंग ने तब खोज निकाला था, जब ये दोनों 7वीं शताब्दी में भारत देश आए थे। यहां से लौटने के बाद इन्होंने इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तार से लिखा था।
इस विश्वविद्यालय में लोकतान्त्रिक प्रणाली से कार्य किया जाता था और यहां पर फैसले सभी की सहमति से लिए जाते थे, जिनमें सन्यासियों, बच्चों और शिक्षक की राय भी शामिल होती थी।
आर्यावर्त के गुरुकुल के बाद ऋषिकुल में क्या पढ़ाई होती थी ये जान लेना आवश्यक है, इस शिक्षा को लेकर अपने विचारों में परिवर्तन लाये भ्रांतियां दूर करें।
1.अग्नि विद्या metallergy 2.वायु विद्या flight 3.जल विद्या navigation 4.अंतरिक्ष विद्या space science 5.पृथ्वी विद्या environment 6.सूर्य विद्या solar study 7.चन्द्र व लोक विद्या lunar study 8. मेघ विद्या weather forecast 9.पदार्थ विद्युत विद्या battery 10.सौर ऊर्जा विद्या solar energy 11.दिन रात्रि विद्या 12.सृष्टि विद्या space research 13.खगोल विद्या astronomy
14.भूगोल विद्या geography 15.काल विद्या time 16.भूगर्भ विद्या geology and mining 17.रत्न व धातु विद्या gems and metals 18.आकर्षण विद्या gravity 19.प्रकाश विद्या solar energy
20.तार विद्या communication 21.विमान विद्या plane 22.जलयान विद्या water vessels 23. अग्नेय अस्त्र विद्या arms and amunition 24. जीव जंतु विज्ञान विद्या zoology botany 25.यज्ञ विद्या material Sc ये तो बात तो वैज्ञानिक विद्याओं की अब बात करते है व्यावसायिक और तकनीकी विद्या की 26. वाणिज्य commerce 27. कृषि Agriculture 28. पशुपालन animal husbandry 29. पक्षिपलन bird keeping 30. पशु प्रशिक्षण animal training 31. यान यन्त्रकार mechanics 32. रथकार vehicle designing 33. रतन्कार gems 34. सुवर्णकार jewellery designing 35. वस्त्रकार textile 36. कुम्भकार pottery 37. लोहकार metallergy 38. तक्षक 39. रंगसाज dying 40. खटवाकर 41. रज्जुकर logistics 42. वास्तुकार architect 43. पाकविद्या cooking 44. सारथ्य driving 45. नदी प्रबन्धक water management 46. सुचिकार data entry 47. गोशाला प्रबन्धक animal husbandry 48. उद्यान पाल horticulture 49. वन पाल (
horticulture 50.नापित paramedical
यह सब विद्या गुरुकुल में सिखाई जाती थी पर समय के साथ गुरुकुल लुप्त हुए तो यह विद्या भी लुप्त होती गयी। आज मैकाले पद्धति से हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट हो रहा तब ऐसे समय में गुरुकुल के पुनः उद्धार की आवश्यकता है।
इसी प्रकार जब अंग्रेजो का शासन था तब लार्ड मैकाले और लार्ड विलियम एडम ने भारतीय शिक्षा पद्धति को धरासायी करके यहाँ के लोगो को मात्र क्लर्क बनाने की शिक्षा लागू की। उसी समय ब्रिटिश पार्लियामेंट में एक रिपोर्ट दाखिल किया गया जिसमें उल्लेख था कि एक ब्रिटिश अधिकारी युद्ध मे किसी राजा से हार गया तो राजा ने उसका नाक काटकर छोड़ दिया, उससे पूछा गया कि राजा ने गर्दन क्यों नही काटी तो उसने बताया कि भारत के राजा युद्ध को खेल भावना लड़ते है। तो उस अधिकारी ने बताया कि राजा से छूटने के बाद उसे एक बैद मिले उन्होंने उसके नाक पर कोई लेप लगाकर पत्तों से बांध दिया कुछ दिन के उपचार के बाद उसका नाक ठीक हो गया और उसपर कटे का निशान भी गायब हो गया।
ये उस समय की बात है जब इंग्लैंड में किसी को बुखार हो जाता था तो इलाज सिर्फ इतना था कि उसकी हाथ की नशे काट दी जाती थी, खून बहने दिया जाता था औऱ बाद में पट्टियाँ बांध दी जाती थी।
इस प्रकार हमारे ग्रंथों को नष्ट कर दिया गया। आयुर्वेद के नियम को अपने जीवन मे अपनाने के लिए कुछ मुख्य बाते इस प्रकार है।
सबसे पहले आप हमेशा ये बात याद रखें कि शरीर मे सारी बीमारियाँ वात-पित्त और कफ के बिगड़ने से ही होती हैं । सिर से लेकर छाती के बीच तक जितने रोग होते हैं वो सब कफ बिगड़ने के कारण होते हैं !
छाती के बीच से लेकर पेट और कमर के अंत तक जितने रोग होते हैं वो पित्त बिगड़ने के कारण होते हैं और कमर से लेकर घुटने और पैरों के अंत तक जितने रोग होते हैं वो सब वात बिगड़ने के कारण होते हैं।
हमारे हाथ की कलाई मे ये वात-पित्त और कफ की तीन नाड़ियाँ होती हैं । भारत मे ऐसे ऐसे नाड़ी विशेषज्ञ रहे हैं जो आपकी नाड़ी पकड़ कर ये बता दिया करते थे कि आपने एक सप्ताह पहले क्या खाया एक दिन पहले क्या खाया, दो पहले क्या खाया और नाड़ी पकड़ कर ही बता देते थे कि आपको क्या रोग है ।
नाक से निकलने वाली बलगम को कफ कहते हैं। मुंह मे से निकलने वाली बलगम को पित्त कहते हैं और शरीर से निकले वाली वायु को वात कहते हैं। ये अदृश्य होती है।
कई बार पेट मे गैस बनने के कारण सिर दर्द होता है तो इसे आप कफ का रोग नहीं कहेंगे इसे पित्त का रोग कहेंगे। क्यूंकि पित्त बिगड़ने से गैस हो रही है और सिर दर्द हो रहा है। ये ज्ञान बहुत गहरा है खैर आप इतना याद रखें कि इस वात-पित्त और कफ के संतुलन के बिगड़ने से ही सभी रोग आते हैं।
वात-पित्त और कफ ये तीनों ही मनुष्य की आयु के साथ अलग अलग ढंग से बढ़ते हैं। बच्चे के पैदा होने से 14 वर्ष की आयु तक कफ के रोग ज्यादा होते है। बार बार खांसी, सर्दी, छींके आना आदि होगा। 14 वर्ष से 60 साल तक पित्त के रोग सबसे ज्यादा होते हैं बार बार पेट दर्द करना, गैस बनना, खट्टी खट्टी डकारे आना आदि। और उसके बाद बुढ़ापे मे वात के रोग सबसे ज्यादा होते हैं घुटने दुखना, जोड़ो का दर्द आदि।
खाने से पहले पानी पीना अमृत है, खाने के बीच मे पानी पीना शरीर की पूजा है। खाना खत्म होने से पहले पानी पीना औषधि है। खाने के बाद पानी पीना बीमारीयो का घर है।
भोजनान्ते विषं वारी (मतलब खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीना जहर पीने के बराबर है।)। हम खाते है तो पेट मे सब कुछ जाता है। पेट मे एक छोटा सा स्थान होता है जिसको हम हिंदी मे कहते है अमाशय।
उसी स्थान का संस्कृत नाम है जठर। उसी स्थान को अंग्रेजी मे कहते है epigastrium। ये एक थैली की तरह होता है और यह जठर हमारे शरीर मे सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि सारा खाना सबसे पहले इसी मे आता है। ये बहुत छोटा सा स्थान हैं इसमें अधिक से अधिक 350 GMS खाना आ सकता है। हम कुछ भी खाते सब ये अमाशय मे आ जाता है। खाना जैसे ही अमाशय में पहुँचता है तो यह भगवान की बनाई हुई व्यवस्था है जो शरीर मे है की तुरंत इसमें आग(अग्नि) जल जाती है। आमाशय मे अग्नि प्रदीप्त होती है उसी को कहते हे जठराग्नि। ये जठराग्नि है वो अमाशय मे प्रदीप्त होने वाली आग है। अब आपने खाते ही गटागट पानी पी लिया और खूब ठंडा पानी पी लिया और कई लोग तो बोतल पे बोतल पी जाते है। अब होने वाला एक ही काम है जो आग(जठराग्नि) जल रही थी वो बुझ गयी। आग अगर बुझ गयी तो खाने की पचने की जो क्रिया है वो रुक गयी।आप हमेशा याद रखें कि खाना पचने पर हमारे पेट मे दो ही क्रिया होती है। एक क्रिया है जिसको हम कहते हे Digation और दूसरी है fermentation। फर्मेंटेशन का मतलब है सडना और डायजेशन का मतलब हे पचना।आयुर्वेद के हिसाब से आग जलेगी तो खाना पचेगा, खाना पचेगा तो उसका रस बनेगा। जो रस बनेगा तो उसी रस से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, मल-मूत्र और अस्थि बनेगा और सबसे अंत मे मेद बनेगा। ये तभी होगा जब खाना पचेगा।
अगर आपने खाना खाने के साथ या खाना खाने के तुरंत बाद पानी पी लिया तो जठराग्नि नहीं जलेगी, खाना नहीं पचेगा और वही खाना फिर सड़ेगा और सड़ने के बाद उसमे जहर बनेंगे। खाने के सड़ने पर सबसे पहला जहर जो बनता है वो है यूरिक एसिड(uric acid )। कई बार आप डॉक्टर के पास जाकर कहते है की मुझे घुटने मे दर्द हो रहा है, मुझे कंधे-कमर मे दर्द हो रहा है तो डॉक्टर कहेगा आपका यूरिक एसिड बढ़ रहा है आप ये दवा खाओ, वो दवा खाओ यूरिक एसिड कम करो। यह यूरिक एसिड विष (जहर ) है और यह इतना खतरनाक विष है की अगर आपने इसको कन्ट्रोल नहीं किया तो ये आपके शरीर को उस स्थिति मे ले जा सकता है की आप एक कदम भी चल ना सके। आपको बिस्तर मे ही पड़े रहना पड़े पेशाब भी बिस्तर मे करनी पड़े और संडास भी बिस्तर मे ही करनी पड़े यूरिक एसिड इतना खतरनाक है इसलिए इसे बनना देना नहीं चाहिए।
और एक दूसरा उदाहरण खाना जब सड़ता है तो यूरिक एसिड जैसा ही एक दूसरा विष बनता है जिसको हम कहते हे LDL (Low Density lipoprotive) माने खराब कोलेस्ट्रोल(cholesterol) जब आप ब्लड प्रेशर(BP) चेक कराने डॉक्टर के पास जाते हैं तो वो आपको कहता है (HIGH BP) हाई बीपी है आप पूछोगे कारण बताओ? तो वो कहेगा कोलेस्ट्रोल बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है। आप ज्यादा पूछोगे की कोलेस्ट्रोल कौनसा बहुत है ? तो वो आपको कहेगा LDL बहुत है। इससे भी ज्यादा खतरनाक विष है VLDL(Very Low Density lipoprotive)। ये भी कोलेस्ट्रॉल जेसा ही विष है। अगर VLDL बहुत बढ़ गया तो आपको भगवान भी नहीं बचा सकता। खाना सड़ने पर और जो जहर बनते है उसमे एक ओर विष है जिसको अंग्रेजी मे हम कहते है triglycerides। जब भी डॉक्टर आपको कहे की आपका triglycerides बढ़ा हुआ हे तो समझ लीजिए की आपके शरीर मे विष निर्माण हो रहा है। तो कोई यूरिक एसिड के नाम से कहे, कोई कोलेस्ट्रोल के नाम से कहे, कोई LDL – VLDL के नाम से कहे समज लीजिए की ये विष है और ऐसे विष 103 है। ये सभी विष तब बनते है जब खाना सड़ता है। मतलब समझ लीजिए किसी का कोलेस्ट्रोल बढ़ा हुआ है तो एक ही मिनिट मे ध्यान आना चाहिए की खाना पच नहीं रहा है, कोई कहता हे मेरा triglycerides बहुत बढ़ा हुआ है तो एक ही मिनिट मे डायग्नोसिस कर लीजिए आप की आपका खाना पच नहीं रहा है। कोई कहता है मेरा यूरिक एसिड बढ़ा हुआ है तो एक ही मिनिट लगना चाहिए समझने मे की खाना पच नहीं रहा है। क्योंकि खाना पचने पर इनमें से कोई भी जहर नहीं बनता। खाना पचने पर जो बनता है वो है मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, मल-मूत्र और अस्थि और खाना नहीं पचने पर बनता है यूरिक एसिड, कोलेस्ट्रोल, LDL-VLDL| और यही आपके शरीर को रोगों का घर बनाते है ! पेट मे बनने वाला यही जहर जब ज्यादा बढ़कर खून मे आते है ! तो खून दिल की नाड़ियो मे से निकल नहीं पाता और रोज थोड़ा थोड़ा कचरा जो खून मे आया है इकट्ठा होता रहता है और एक दिन नाड़ी को ब्लॉक कर देता है जिसे आप heart attack कहते हैं।
अब आपके मन मे सवाल आएगा कितनी देर तक नहीं पीना ? तो 1 घंटे 48 मिनट तक नहीं पीना ! अब आप कहेंगे इसका क्या calculation हैं ?
बात ऐसी है ! जब हम खाना खाते हैं तो जठराग्नि द्वारा सब एक दूसरे मे मिक्स होता है और फिर खाना पेस्ट मे बदलता हैं है ! पेस्ट मे बदलने की क्रिया होने तक 1 घंटा 48 मिनट का समय लगता है ! उसके बाद जठराग्नि कम हो जाती है ! (बुझती तो नहीं लेकिन बहुत धीमी हो जाती है ) पेस्ट बनने के बाद शरीर मे रस बनने की परिक्रिया शुरू होती है ! तब हमारे शरीर को पानी की जरूरत होती हैं तब आप जितना इच्छा हो उतना पानी पिये !!
अब आप कहेंगे खाना खाने के पहले कितने मिनट तक पानी पी सकते हैं ???तो खाना खाने के 45 मिनट पहले तक आप पानी पी सकते हैं ! अब आप पूछेंगे ये 45 मिनट का calculation ? बात ऐसी ही जब हम पानी पीते हैं तो वो शरीर के प्रत्येक अंग तक जाता है ! और अगर बच जाये तो 45 मिनट बाद मूत्र पिंड तक पहुंचता है ! तो पानी – पीने से मूत्र पिंड तक आने का समय 45 मिनट का है ! तो आप खाना खाने से 45 मिनट पहले ही पानी पिये….।
स्नान कब ओर केसे करे घर की समृद्धि बढाना हमारे हाथमे है* सुबह के स्नान को धर्म शास्त्र में चार उपनाम दिए है।
1.मुनि स्नान :- जो सुबह 4 से 5 के बिच किया जाता है। घर में सुख, शांति, समृद्धि, विध्या, बल, आरोग्य, चेतना, प्रदान करता है।
2.देव स्नान :- जो सुबह 5 से 6 के बिच किया जाता है। आप के जीवन में यश, किर्ती, धन वैभव, सुख, शान्ति, संतोष, प्रदान करता है।
3.मानव स्नान :- जो सुबह 6 से 8 के बिच किया जाता है। काम में सफलता, भाग्य,अच्छे कर्मो की समझ, परिवार में एकता प्रदान करता है।
4.राक्षसी स्नान :- जो सुबह 8 के बाद किया जाता है। दरिद्रता , हानि , कलेश ,धन हानि , परेशानी, प्रदान करता है ।
जूते पहनकर खाने का प्रचलन आपने दूसरे देशों के आसुरी समाज से ग्रहण कर लिया । Buffet system बना दिया ।उन लोगों का मजाक बनाया जो जूते चप्पल निकालकर भोजन करते थे । अरे हमारी कोई भी पूजा , यज्ञ, हवन सब पूरी तरह स्वच्छ होकर , हाथ धोकर करने का प्रावधान है ।
जब सनातन धर्मी के यहाँ किसी के घर शिशु का जन्म होता था तो सूतक लगता था । इस अवस्था में ब्राह्मण 10 दिन , क्षत्रिय 15 दिन , वैश्य 20 दिन और शूद्र 30 दिन तक सबसे अलग रहता है । उसके घर लोग नहीं आते थे , जल तक का सेवन नहीं किया जाता था जब तक उसके घर हवन या यज्ञ से शुद्धिकरण न हो जाये । प्रसूति गृह से माँ और बच्चे को निकलने की मनाही होती थी । माँ कोई भी कार्य नहीं कर सकती थी और न ही भोजनालय में प्रवेश करती थी । प्रसूति गृह में माँ और बच्चे के पास निरंतर बोरसी सुलगाई रहती थी जिसमें नीम की पत्ती, कपूर, गुग्गल इत्यादि निरंतर धुँवा दिया जाता था। उनको इसलिए नहीं निकलने दिया जाता था क्योंकि उनकी immunity इस दौरान कमज़ोर रहती थी और बाहरी वातावरण से संक्रमण का खतरा रहता था । जब किसी रजस्वला स्त्री को 4 दिन isolation में रखा जाता है ताकि वह भी बीमारियों से बची रहें और आप भी बचे रहें। आज देखिये 80% महिलाएँ एक delivery के बाद रोगों का भंडार बन जाती हैं कमर दर्द से लेकर, खून की कमी से लेकर अनगिनत समस्याएं ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र के लिए अलग Quarantine या isolation की अवधी इसलिए क्योंकि हर वर्ण का खान पान अलग रहता था , कर्म अलग रहते थे जिससे सभी वर्णों के शरीर की immunity system अलग होता था जो उपरोक्त अवधि में balanced होता था । ऐसे ही जब कोई मर जाता था तब भी 13 दिन तक उस घर में कोई प्रवेश नहीं करता था । यही Isolation period था । क्योंकि मृत्यु या तो किसी बीमारी से होती है या वृद्धावस्था के कारण जिसमें शरीर तमाम रोगों का घर होता है । यह रोग हर जगह न फैले इसलिए 14 दिन का quarantine period बनाया गया । जब किसी के शव यात्रा से लोग आते हैं घर में प्रवेश नहीं मिलता है और बाहर ही हाथ पैर धोकर स्नान करके , कपड़े वहीं निकालकर घर में आया जाता है।
आज भी गांवों में एक परंपरा है कि बाहर से कोई भी आता है तो उसके पैर धुलवायें जाते हैं । जब कोई भी बहूं , लड़की या कोई भी दूर से आता है तो वह तब तक प्रवेश नहीं पाता जब तक घर की बड़ी बूढ़ी लोटे में जल लेकर , हल्दी डालकर उस पर छिड़काव करके वही जल बहाती नहीं हों। याद कीजिए पहले जब आप बाहर निकलते थे तो आप की माँ आपको जेब में कपूर या हल्दी की गाँठ इत्यादि देती थी रखने को । शरीर पर कपूर पानी का लेप करते थे ताकि सुगन्धित भी रहें और रोगाणुओं से भी बचे रहें । यह सब कीटाणु रोधी होते हैं। आपको बता दूँ कि आज जो जो Precautions बरते जा रहे हैं , मनुस्मृति उठाइये , उसमें सभी कुछ एक एक करके वर्णित है ।
रोज एक सेब-नो डाक्टर । रोज पांच बदाम,नो कैन्सर । रोज एक निबु,नो पेट बढना । रोज एक गिलास दूध,नो बौना (कद का छोटा)। रोज 12 गिलास पानी,नो चेहेरे की समस्या । रोज चार काजू,नो भूख ।
अपने हाथ की छोटी उँगली से शुरू करें :-(1)जल(2) पथ्वी(3)आकाश(4)वाय(5) अग्नि ये वो बातें हैं जो बहुत कम लोगों को मालूम होंगी ।
भोजन बनाते समय सूर्य और पवन का स्पर्श होना चाहिए। इसलिए प्रेसर कूकर, ओवन, फ्रिज का प्रयोग वर्जित है।
शाम का भोजन 6 बजे तक कर ले । पानी घुट-घुट कर पिए। पानी ग्लास में नही लोटे में पिए क्योकि ग्लास का surface area कम होता है तो उसका surface tension भी कम ही होगा।
भोजन उसकी तासीर अनुसार करे, दूध और दही, शहद और धी, दूध और कटहल या दूध और खट्टे फल एक साथ नही ले। दूध और आंवला, गुड़ और घी एक साथ खा सकते हैं।
गइले मरद जिन खइले, खटाई अउरी गइली औरत जे खइली मिठाई।
अन्न के दाना, हींक लगाके खाना।
खाय कागजी नींबू रोज, तुलसी बिरवा रोपै । बंद, पसारी करम के झोंके, घर में मौत न पहुंचे ।।
‘भोर का खीरा हीरा, दोपहर का खीरा मीरा, शाम का खीरा पीरा’।
चैते गुड़, वैशाखे तेल, जेठ रास्ता (धूप में चलना) असाढ़े बेल, श्रावण शाक ( पत्तियां), भादों मही, क्वार करेला, कार्तिक दही, अगहन जीरा, पूसै धना (स्त्री संग), माघ मिश्री, फाल्गुन चना, इन बारहों से बचे जो भाई ता घर वैद्य कभी नहिं जाई,
जब भुख, हित भुख, मित भुख अर्थात् जब खुल कर भूख लगे तब हितकारी भोजन मित मात्रा में (न अधिक न कम) करना चाहिये।
प्रातः मूली अमिय मूरि, दोपहर में मूली मूली, रात में मूली सूली
अंत मे तीन काम 1. आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों का संग्रह और उनका सरल भाषा मे उपलब्धता।
2. गांव-घर के पुराने कहावतों का संग्रह और उपलब्धता।
3.जड़ी बूटी औषध की सहज उपलब्धता।
सर्वे भवन्तु सुखिनःसवेँसनतु निरामया:।।