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क्या है, छावा का स्वराज ? : मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू), बीरगंज ब। अभी एक फ़िल्म आई है “छावा” इसमे औरंजेब छत्रपति शम्भाजी महाराज से पूछता है “क्या है स्वराज जिसके लिए तुम अपनी जान देना चाहते हो ? कहाँ है तुम्हारा स्वराज ?”

संभाजी बोलते है “सह्याद्रि के पहाड़ों में, गोदावरी के लहरों में, रायगढ़ की मिट्टी में, जलना की गलियों में, नासिक की हवाओं में, कोंकण के कणों में, माँ भवानी के चरणों मे, लाखों मराठा के नस-नस में है स्वराज। जिस स्वराज को तू मिटाने चला है, वह कोई सल्तनत नही है, छत्रपति शिवाजी महाराज की सोच है।”

उस समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज के अवधारणा अनुसार अष्टप्रधान मंत्रिमंडल बनाया था। अष्टप्रधान में छत्रपति प्रमुख होते थे और 1. पंत प्रधान:- प्रधानमंत्री, 2. सुमंत/दबीर :-बिदेश या बाहरी राज्यों से संबंधित, 3. मजमुदार/अमात्य :- वित्त,  4. सर-ए-नौबत :- सेनाध्यक्ष, 5. पंडित राव :- धार्मिक मामले, 6. न्यायाधीश, 7.सचिव:- पत्र, सूचना, दस्तावेज कार्य, 8.बकिया/नकवी :- आंतरिक प्रशासन, ख़ुफ़िया, अनुसंधान होते थे।

स्वराज की अवधारणा छत्रपति शिवाजी महाराज के समय से है, हालांकि कुछ जगह मगध में मौर्य वंश के शासन में चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य द्वारा स्वराज का उल्लेख किया गया है।

20वीं शताब्दी में अनेक राजनीतिक अवधारणाओं और चिंतन शैलियों की शुरुआत हुई। इनमें महात्मा गांधी के चिंतन ने एक अहम् निर्णायक भूमिका निभाई, तो समय के साथ ही स्वराज शब्द की अवधारणा भी बदलती रही है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न चरणों से गुजरते हुए महात्मा गांधी ने इस अवधारणा को एक नई परिभाषा का रूप दिया था।

विदेशी शासन से मुक्त करवाने और उसके स्थान पर स्वराज की स्थापना करने में महात्मा गांधी के जो प्रारंभिक विचार थे वही मुख्य रूप से उनकी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में निहित हैं। यह पुस्तक महात्मा गांधी ने इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका लौटते समय एक समुद्री जहाज पर सन् 1909 के दौरान लिखी थी।

मुलतः स्वराज शब्द का अर्थ है, स्व +राज अर्थात् स्वयं का राज होना, स्वशासन करना या स्वतंत्रता का होना होता है। आधुनिक भारत मे स्वराज शब्द का पहला प्रयोग स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया था।

इसके बाद इस शब्द का प्रयोग गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा 1905 ईस्वी में किया गया, फिर यह पहली बार आधिकारिक तौर से इसे दादा भाई नौरोजी द्वारा 1906 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में मांग रखा गया। यह तब और ज्यादा सुर्खियों में आया जब बाल गंगाधर तिलक ने 1916 में होमरुल लिंग की स्थापना के समय यह उद्घोषणा किया कि ‘‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’’

महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम 1920 में कहा कि ‘‘मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा। गांधी का मत था स्वराज का अर्थ है “जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो जन-आवश्यकताओं तथा जन-आकांक्षाओं के अनुरूप हो।’’ वस्तुत: गांधीजी का स्वराज का विचार ब्रिटेन के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, नौकरशाही, कानूनी, सैनिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार करने का आन्दोलन था।

गांधी के परिप्रेक्ष्य में “स्वराज” एक समग्र और व्यापक अर्थ धारण किए हुए है। स्वराज एक पवित्र और वैदिक शब्द है जिसका अर्थ है आत्म शासन का होना। अंग्रेजी का शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ अक्सर सभी प्रकार के नियमों से मुक्त होकर निरंकुश स्वतंत्रता का अर्थ देता है लेकिन वह अर्थ वास्तव में स्वराज नहीं होता है। गांधी का मानना था कि भारत से केवल अंग्रेज़ों को और उनके राज्य को हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज नहीं मिलेगा बल्कि हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए और यही सच्चा स्वराज है जिससे हम अपने ऊपर शासन करना सीखते हैं। पूर्ण स्वराज की मांग पहली बार कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन 1929 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया।

“स्वदेशी समाज” नामक रवींद्रनाथ टैगोर के निबंध में भी स्वराज को  नई जागरूकता और भारत की उभरती हुई नई पहचान को दर्शाया गया है जहां शिक्षित और अशिक्षित तथा शहरों और गांवों के बीच की खाई को औपनिवेशिक आकाओं के संरक्षण में नहीं, बल्कि हमारे अपने प्रयासों से मिटाए जाने की बात कही गई।

सभी व्यक्तियों को अपने जीवन में स्वशासन की ओर कदम बढ़ाना चाहिए तभी एक राष्ट्र रूप में स्वशासन की ओर बढ़ पाएगा। इस स्वतंत्रता की शुरुआत सबसे निचले स्तर यानी कि ग्रामीण स्तर से होती है। प्रत्येक गांव को अपना पोषण और अपनी गतिविधियों का प्रबंधन करने में स्वयं सक्षम होना चाहिए ताकि किसी भी आक्रमण या परेशानी का सामना करने के लिए वह सदैव तैयार रह सके। इसके लिए सर्वाधिक उचित शासन स्वराज ही होगा जिसमें शासन न केवल श्रेणीबद्ध होगा बल्कि उसमें राजनीतिक विकेंद्रीकरण और सामुदायिक निर्माण भी होगा। स्वराज को अपनाने का अर्थ है कि एक ऐसी शासन प्रणाली को अपनाना जहां पर राज्य की भूमिका हीन हो जाती है।

एंथनी जे० पारेल के अनुसार, “स्वराज का अर्थ दूसरों पर नहीं बल्कि स्वयं के ऊपर शासन करना होता है, जिसने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया तो समझो उसने सब कुछ ही प्राप्त कर लिया। यदि एक दूसरे के प्रति अविश्वास न हो तो स्वराज हमारी हथेली में है।

 गांधी का मानना है कि स्वराज को अगर हम स्वनियंत्रण के रूप में देखें तो इसका अर्थ आंतरिक स्वतंत्रता होगा।

गांधी ने हिंदी स्वराज में इस अवधारणा को दो रूपों में प्रस्तुत किया है- स्वराज स्वशासन (Self – Rule) के रूप में तथा स्वराज स्वनियंत्रण (Self-Control) के रूप में।

• स्वराज एक स्वशासन (Self – Rule) के रूप में:

गांधी के लिए स्वराज का अर्थ सकारात्मक स्वतंत्रता भी है। इसका तात्पर्य सहभागी लोकतंत्र से है क्योंकि नागरिक और राज्य के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। स्वराज से तात्पर्य लोगों की सहमति से है, जो कि सबसे बड़ी संख्या में वयस्क आबादी, पुरुष या महिला, मूल जन्म या अधिवास हों, जिन्होंने राज्य की सेवाओं में शारीरिक श्रम द्वारा योगदान दिया हो। गांधी ने भारत पर ब्रिटिश, कब्जे की कड़ी आलोचना की, क्योंकि इसने गरीबो का अत्यधिक उत्पीड़न किया। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ग्रामोद्योगों को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार थी। गांधी ने अपने करीबी सहयोगी कुमारप्पा की मदद से भारत के ग्रामीण जीवन को बदलने का खाका तैयार किया । ‘ग्रामवाद’, एक शब्द जिसे कुमारप्पा के सिक्के, गांधी द्वारा गांवों के पूर्ण पुनरुद्धार और स्वराज को साकार करने के लिए स्वीकार किया गया था। ग्राम स्वराज का उद्देश्य सामान्य व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियों में आत्मनिर्भरता है। गांधी आधुनिक सभ्यता का पूर्ण विनाश और सरकारों, संसदों, रेलवे व परिवहन के अन्य तेज साधनों, मशीनरी, डॉक्टरों, वकीलों और सशस्त्र बलों के बिना एक नए समाज का निर्माण चाहते थे, जिसमें लोग पूरी तरह से हिंसा का त्याग करते हैं और सत्याग्रह के माध्यम से अधिकार का विरोध कर सकें । थोरो की तरह, वह सरकार को व्यक्ति की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में महत्वपूर्ण नहीं मानते। गांधी राजनीतिक कार्यों को सामाजिक और नैतिक प्रगति के ढांचे के भीतर देखने की आवश्यकता पर जोर देते हैं, क्योंकि सत्ता लोगों में रहती है न कि विधानसभाओं में । अरस्तू की भावनाओं को प्रतिध्वनित करते हुए, गांधी सार्वजनिक जीवन को एक व्यक्ति के उच्चतम आध्यात्मिक गुणों को सामने लाने का क्षेत्र मानते हैं। उनका मानना था कि राजनीति सरकारी सत्ता पर कब्जा करने, धारण करने और प्रबंधन करने की कला नहीं है बल्कि न्याय के संदर्भ में सामाजिक संबंधों को बदलने की कला है।

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गांधी के अनुसार, मनुष्य में अपनी नैतिक क्षमताओं को इस हद तक विकसित करने की क्षमता होती है कि शोषण को कम से कम किया जा सकता है। राज्य के अधिकार को स्वीकार करने के लिए नागरिकों का दायित्व उसके न्यायसंगत कानूनों और गैर दमनकारी नीतियों पर निर्भर करेगा। एक लोकतांत्रिक शासन के तहत एक नागरिक की जिम्मेदारी अधिक होती है क्योंकि नागरिकों को सत्ता को भ्रष्ट और हास्यास्पद बनने से बचाना होगा। प्रत्येक राज्य में सत्ता के दुरुपयोग की संभावना होती है और बेहतर नैतिक अधिकार वाले नागरिकों को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। गांधी सरकार के हर कार्य के लिए इस प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी बनाते है।

• स्वराज एक स्व-नियंत्रण (Self-Control) के रूप में

गांधी के शब्दों स्वराज का अर्थ “जागृति के चारों ओर-सामाजिक, शैक्षिक, नैतिक, आर्थिक और राजनीतिक” (यंग इंडिया, 26 अगस्त 1926) है। सच्ची स्वतंत्रता नैतिक कानून, आंतरिक विवेक और किसी के सच्चे होने के कानून के अनुरूप होती है। यह एक व्यक्ति को अच्छे की तलाश करने और उसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। स्वतंत्रता का अर्थ है आत्म-नियंत्रण, स्वयं पर विजय प्राप्त करना है जो कि केवल निडर होकर ही प्राप्त की जा सकती है। इसमें कठिन अनुशासन शामिल होता है और इसके लिए आवश्यक होता है कि व्यक्ति आत्म-शुद्धि और आत्म-प्राप्ति की अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन करे ।

स्व-शासन या आत्म-नियंत्रण के रूप में स्वराज का अर्थ तीन रूपों में है: स्वतंत्रता मुख्य रूप से एक व्यक्ति है, सामूहिक गुण नहीं है। इसमें प्रेस, भाषण, संघ और धर्म की पारंपरिक नागरिक स्वतंत्रताएं शामिल होती हैं।

• यह स्वतंत्रता के आंतरिक और बाहरी रूपों के बीच अंतर करता है। गांधी के लिए, व्यक्ति स्वराज का स्तंभ है। वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि निष्क्रिय और क्षीण लोग कभी भी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर पाएंगे। गांधी ने कमजोरी, कायरता और भय को मानव आत्मा के खिलाफ माना है। उन्होंने भारतीयों को निडरता की भावना सिखाई। स्व-शासन, आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन और स्वैच्छिक आत्म-बलिदान, व्यक्तिगत स्वायत्तता व नैतिक आत्मनिर्णय की धारणाओं में निहित होना ही स्वराज का आधार है। गांधी स्वराज और स्वदेशी या आत्मनिर्भरता के बीच एक अंतरंग संबंध देखते हैं। गांधी के लिए, स्वतंत्रता मानव स्वभाव में निहित है तथा इसे आत्म-प्रयास के माध्यम से अर्जित आत्म- जागरूकता के हिस्से के रूप में देखना चाहिए और इसके विपरीत, मानव स्वतंत्रता के लिए कोई भी बाहरी खतरा किसी के नियंत्रण से बाहर की परिस्थितियों से नहीं बल्कि यह हमारी कमजोरियों को पहचानने से उत्पन्न होता है। यही कारण है कि वह आत्म-शुद्धि को स्वराज की अवधारणा का अभिन्न अंग मानते हैं, क्योंकि यह व्यक्तियों को स्वतंत्रता की अमूर्त धारणा को समाज और राजनीति की व्यावहारिक वास्तविकता में अनुवाद करने की शक्ति और क्षमता प्रदान करता है। गांधी के अनुसार, एक व्यक्ति को वास्तव में स्वतंत्रता का एहसास तभी होता है यदि वह अपने विवेक या आंतरिक आवाज को सुनता है। निडरता, स्वशासन, आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन, त्याग और स्वैच्छिक आत्म – बलिदान बुराई के प्रतिरोध को आसान बना देगा और यही सत्याग्रह के दर्शन का मूल है।

गांधीवादी स्वराज की विशेषताएं :- गांधी ने स्वराज की जो विशेषताएं उजागर की, वे निम्नलिखित रूपों में देखे जा सकते हैं:

आर्थिक आयाम (Economic Dimension)

गांधी का सपना वर्गविहीन आर्थिक व्यवस्था का था जो कार्ल मार्क्स के विचारों से बिल्कुल भिन्न है। गांधी का मानना था कि कोई भी परिवर्तन हिंसा या क्रान्ति द्वारा नही बल्कि अहिंसा व प्रेम के मार्ग द्वारा लाया जा सकता है इसलिए इस संदर्भ में उनके विचार मार्क्स के विचारों से भिन्न थे। गांधी का कहना था कि जिस किसी वस्तु का प्रयोग हम स्वयं के निजी जीवन में करते हैं, उन वस्तुओं को हमे स्वयं के पूरा करने का प्रयास करना चाहिए, वह चाहे खेती या पशुपालन या फिर चरखा चलाना हो, केवल इसके पश्चात् ही कोई भी व्यक्ति मजदूरों की असल लगने वाली मेहनत को सही मायनों में समझ सकेगा। उनका कहना था कि यदि इस प्रकार से हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के काम व मेहनत को समझ जाएगा तो वह न तो किसी को ब्राह्मण समझेगा और न ही किसी को क्षुद्र ।

गांधी जातीय व्यवस्था के विरोधी नहीं थे लेकिन वह मानते थे कि जातीय व्यवस्था अनुचित नहीं है बल्कि इसके अंदर फैले भेदभाव ने समाज में असमानता को उत्पन्न कर दिया है जिसे हटाना अत्यंत आवश्यक है। गांधी न्याय की वितरण प्रणाली का आधार सर्वोदय एवं अंत्योदय जैसे सिद्धांतों को मानते हैं।

राजनीतिक आयाम (Political Dimension)

राजनीतिक तौर पर स्वराज एक स्वशासन है न कि अच्छी सरकार क्योंकि यह अच्छी सरकार स्वशासन का स्थान नहीं ले सकती। वास्तव में इसका अर्थ तो राजनीतिक स्वतंत्रता से कई अधिक है। राजनीति स्वशासन व्यतिगत स्वशासन से बेहतर नही है। आदर्श रूप में कोई भी सरकार व्यवहारिक आधार पर न्यूनतम सीमित संवैधानिक समझौता नहीं करती है। उन्होंने पश्चिम उदार लोकतंत्र को सतही (superficial) या नाम मात्र (nominal) के लोकतंत्र के रूप में ख़ारिज किया।

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स्वराज ने वास्तविक रूप में सहभागी लोकतंत्र को निरूपित किया तथा निजी और सार्वजनिक जीवन मे व्यतिगत स्वतंत्रता के द्वंद्व को दूर करने का प्रयास किया। गांधीजी मुख्य रूप से सीमित राजनीतिक दायित्व की बात करते हैं। वे कहते हैं कि सरकार को नागरिकों की सहमति के आधार पर ही कोई भी कार्य करना चाहिए न कि उन पर अपनी इच्छाओं और मनमानी को थोपना चाहिए। नागरिकों को अन्यायपूर्ण नियम व कानूनों के विरुद्ध सविनय अवज्ञा का अधिकार भी प्राप्त हो। उनका मानना था कि सत्याग्रह एक प्रकार से राजनीतिक प्रतिक्रियाओं की प्रक्रिया के रूप में होता है। लोगों के पास यह अधिकार हो कि वे अपने अधिकारों के दुरुपयोग की जांच भी कर सकें।

सामाजिक आयाम (Social Dimension)-

गांधी ने पाश्चात्य यूरोपीय सभ्यता, संस्कृति तथा विचारधारा को करीब से देखा व समझा। एक ओर जहां उन्होंने पश्चिमी सभ्यता की प्रशंसा की, वहीं दूसरी ओर उनकी कमियों की आलोचना भी की।

गांधी के स्वराज में सत्ता का बंटवारा परंपरागत पिरामिड की तरह न होकर गोलाकार समुद्री वृत सा होता है। जिसमें सत्ता व्यक्ति से शुरू होकर ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत, तहसील पंचायत, जिला परिषद, प्रांतीय सरकार, केंद्र सरकार तथा विश्व सरकार जैसे कभी न समाप्त होने वाले गोलाकार दायरे में फैलती जाती है। इस प्रकार से सत्ता का विकेंद्रीकरण उनके स्वराज की अवधारणा का एक अनोखा आकर्षण भी है।

गांधी के आदर्श समाज में…

•किसी भी प्रकार से कुलीन व्यक्तियों, शिक्षित व्यक्तियों, धनी व्यक्ति का एकाधिकार और वर्चस्व न हो तथा साथ ही जाति, वर्ग, धर्म, लिंग के आधार पर भी कोई भेदभाव न हो।

•किसी भी भी प्रकार का केंद्रीयकरण, संचयीकरण, हिंसा, शोषण न होता हो ।

• जहां पर हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने धर्म (नैतिक कर्तव्यों) का पालन कर सके तथा वह स्वयं को दूसरों और समुदाय के लिए समय आने पर बलिदान करने के लिए तैयार रहे।

• स्वराज सभी के लिए है विशेषकर गरीबों व मेहनतकश जनता के लिए।

निष्कर्ष

स्वराज के तीन स्तंभों के निर्माण में स्वराज के निहित अर्थ का यह विस्तार महात्मा गांधी के संपूर्ण राजनीतिक दर्शन और कार्य का सार है। स्वराज की अवधारणा को जीवन और अर्थ देने के लिए, गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम का सूत्रीकरण सर्वोच्च महत्वपूर्ण है। यह प्रत्येक भारतीय के आत्म-विकास के लिए आवश्यक न्यूनतम संसाधनों और पर्यावरण को सुनिश्चित करने तथा स्वराज के लक्ष्य तक पहुँचने के साधन के रूप में उनके सिद्धान्त की आवश्यक सुधारात्मक प्रकृति को चित्रित करता है।

गांधी का व्यवहारवाद भविष्य में उनका विश्वास और अपनी दृष्टि को एक जीवंत सत्य बनाने की दृढ़ता, उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की विशेषताएं हैं। गांधी वास्तव में नई सभ्यता के अग्रदूत थे और पतन की ओर जा रही मानवता के उद्धारक थे। वे आज भी हमारे लिए एक प्रकाश स्तंभ और प्रेरणा स्रोत के समान हैं। विशेषकर ऐसे परिवेश में जहां पर पूरा विश्व भयंकर हथियारों और युद्धों की होड़ में लगा हुआ है ऐसे में जहां पलक झपकते ही पूरी मानवता पर खत्म होने का संकट मौजूद है वहां गांधीवादी विचारों का होना भी स्वाभाविक है।

गाँधी के अनुसार अहिंसात्मक समाज राज्यविहीन होगा। वह राज्य का विरोध इस आधार पर करते हैं, कि न तो यह स्वाभाविक संस्था है और न ही आवश्यक है। उन्होंने दार्शनिक अराजकतावादी की भाँति इस आधार पर राज्य को अस्वीकार किया-

  • (1) राज्य हिंसा पर आधारित है। यह संगठित रूप में हिंसा की प्रतिनिधित्व करता है,

  • (2) राज्य की बल-शक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्तित्व हेतु विनाशकारी है

  • (3) एक अहिंसात्मक समाज में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है।

गाँधी के अनुसार राजनीतिक शक्ति साध्य नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में लोगों के विकास में सहयोग देने का साधन है। यह राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करती है। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना परिपूर्ण हो जाए कि आत्मनियमित हो जाऐं तो किसी भी प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपना शासक स्वयं है। वह स्वयं पर इस प्रकार शासन करता है, कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा नहीं बनता। ऐसी आदर्श स्थिति में राजनीतिक शक्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नहीं होता। गाँधी ने उसे ‘‘प्रबुद्ध अराजकता की स्थिति’’ कहा है।[लेव तोलस्तोय|टॉलस्टॉय]] ने इसे ‘‘पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य’’ कहा है।

 महात्मा गाँधी का स्वराज: गाँधी के अनुसार, स्वराज का अर्थ अंग्रेजी शासन से मुक्ति के साथ-साथ आत्मनिर्भरता और आत्मशक्ति की प्राप्ति है। उन्होंने इसे “अंग्रेजी शासन के बिना अंग्रेजी शासन” के रूप में परिभाषित किया, जो बाह्य स्वतंत्रता के साथ आंतरिक आत्मनिर्भरता पर जोर देता है।

 

लोकमान्य तिलक का स्वराज: तिलक ने स्वराज को “जन्मसिद्ध अधिकार” कहा और इसे राजनीतिक, आध्यात्मिक, और सामाजिक स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया। उनका मानना था कि स्वराज्य भारतीयों की आत्मा है और इसे प्राप्त करने के लिए जन- ऊर्जा और राष्ट्रवादी भावना को प्रज्वलित करना आवश्यक है।

 

तिलक का योगदान: तिलक ने ‘गणपति उत्सव’ और ‘शिवाजी उत्सव’ के माध्यम से जनजागृति लाई और “गीता रहस्य” की रचना कर भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया।

 

• स्वराज की आध्यात्मिकता: स्वराज केवल राजनीतिक अवधारणा नही है बल्कि यह व्यक्ति की आत्मा और

सृजनात्मकता की स्वायत्तता का प्रतीक है। तिलक ने इसे आध्यात्मिक अनिवार्यता के रूप में देखा, जो आंतरिक स्वतंत्रता और आनंद की अनुभूति कराती है।

 

• आधुनिक संदर्भ में स्वराज: तिलक का स्वराज आज भी प्रासंगिक है। उनकी विचारधारा युवा पीढ़ी को भौतिक सुखों के मोह से मुक्त होकर राष्ट्रोत्थान में योगदान देने की प्रेरणा देती है।

बाल गंगाधर तिलक और स्वराज

स्वराज का अर्थ: तिलक का राजनीतिक दर्शन ‘स्वराज’ पर केंद्रित था, जिसका अर्थ है ‘जनता का शासन’ । यह केवल विदेशी सत्ता से मुक्ति नहीं, बल्कि एक उत्तरदायी लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतीक था । तिलक ने इसे “प्राकृतिक अधिकार” और “व्यक्ति की आत्मा का जीवन” माना। उनके अनुसार, स्वराज का उद्देश्य सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता सुनिश्चित करना था।

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स्वराज की अवधारण: तिलक ने स्वराज को भारतीय शास्त्रों से प्रेरित बताते हुए इसे केवल राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि एक धर्म और नैतिक जिम्मेदारी माना। उन्होंने कहा कि सत्ता जनता में केंद्रित होनी चाहिए और शासन की संप्रभुता का आधार जनता हो।

सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक आधारः तिलक ने स्वराज को राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक और नैतिक प्रगति के लिए आवश्यक बताया। उन्होंने कहा कि “स्वतंत्रता मनुष्य के नैतिक और बौद्धिक विकास के लिए अनिवार्य है।” उन्होंने स्वराज के संदेश को लोकप्रिय बनाने के लिए होमरूल लीग और 1916 में “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहँगा ” का नारा दिया।

• स्वदेशी और बहिष्कार का महत्त्व

तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार को स्वराज के लिए प्रभावी रणनीति माना।

1. स्वदेशी: भारतीय वस्त्र और उत्पादों को अपनाने पर बल दिया।

2. बहिष्कार: विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश शासन का विरोध किया।

3. राष्ट्रीय शिक्षाः पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना का आग्रह किया।

 निष्क्रिय प्रतिरोध: तिलक ने निष्क्रिय प्रतिरोध को स्वराज के लिए एक प्रभावी साधन माना । हालाँकि, उन्होंने अहिंसा के गाँधीवादी सिद्धांत का समर्थन नहीं किया। उनके अनुसार, निष्क्रिय प्रतिरोध शक्ति और साहस का प्रतीक होना चाहिए।

तिलक का प्रभाव: तिलक को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चरमपंथी गुट का नेता माना गया। उन्होंने स्वराज को राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बिंदु बनाया। दादाभाई नौरोजी ने भी उनके विचारों का समर्थन करते हुए कहा कि स्वराज कांग्रेस का लक्ष्य होना चाहिए।

मोहनदास करमचंद गाँधी और स्वराज

स्वराज की अवधारणा: गाँधी ने स्वराज को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं रखा। उनकी पुस्तक “हिंद स्वराज” (1909) में इसे “अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी शासन ” से परे । शासन और आत्म-नियंत्रण के व्यापक अर्थ में परिभाषित किया गया। स्वराज का अर्थ अमानवीय संस्थाओं पर नियंत्रण, आत्म-सम्मान, आत्म-उत्तरदायित्व, और आत्म-साक्षात्कार की क्षमताओं का विकास है।

असली स्वराज का उद्देश्य: गाँधी के लिए स्वराज केवल अंग्रेजों से मुक्ति नहीं, बल्कि आत्म-शासन के माध्यम से सामाजिक, आध्यात्मिक, और नैतिक सुधार प्राप्त करना था। उन्होंने कहा, “जब हम अपने ऊपर शासन करना सीखते हैं, वही स्वराज है । “

आत्म-शासन और लोकतंत्र : गाँधी ने आत्म – शासन को ऐसी व्यवस्था माना, जिसमें व्यक्ति और समुदाय बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त हों। यह औपनिवेशिक शासन, निरंकुशता, और राजतंत्र के अंत का प्रतीक था। उन्होंने इसे गणराज्य, लोकतंत्र, और राष्ट्रवाद के लिए मूलभूत सिद्धांत बताया।

1. गाँधी के स्वराज की संकल्पना

• स्वराज का अर्थ : गाँधी के लिए स्वराज केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि हर प्रकार की पराधीनता से मुक्ति और आत्म-शासन का प्रतीक था। उन्होंने कहा कि स्वराज जनता के आत्म-सम्मान, आत्म – उत्तरदायित्व, और आत्म-साक्षात्कार की क्षमताओं के विकास का प्रयास है। सच्चा स्वराज तभी संभव है जब जनता सत्ता का दुरुपयोग रोकने और उसे नियंत्रित करने में सक्षम हो।

पूर्ण स्वराज और जनजागृति: गाँधी के अनुसार, पूर्ण स्वराज का अर्थ है जनता के बीच जागरूकता और आत्मनिर्भरता। यह न केवल आंतरिक और बाहरी आक्रमण से मुक्ति है, बल्कि आम लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार और सभी के लिए समान अधिकार भी है। उनके लिए स्वराज में कोई भेदभाव नहीं था; यह सभी–भूखे, मेहनतकश और अपंग सहित, सबका था।

2. नैतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता

गाँधी ने नैतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए अनासक्ति और अभय को आवश्यक माना।

अनासक्ति: गीता के कर्मयोग के आधार पर उन्होंने परिणाम की इच्छा से मुक्त होकर कार्य करने का महत्व बताया।

• अभय: ईश्वर के प्रति समर्पण के माध्यम से भयमुक्त होकर सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी ।

प्रौद्योगिकी और स्वतंत्रता: गाँधी ने आधुनिक युग की तकनीकी सभ्यता की आलोचना की, लेकिन उन्हें विश्वास था कि नैतिक पुनर्जागरण के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। उनके अनुसार, स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों के माध्यम से ईश्वर के राज्य की स्थापना संभव है।

राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों पर आधारित स्वराज की संकल्पना

  1. राजनीतिक अधिकार और स्वराज

किसानों और मजदूरों के अधिकार : गाँधी ने चम्पारण (1917), खेड़ा (1918), और अहमदाबाद ( 1918) जैसे आंदोलनों में किसानों और मजदूरों के अधिकारों की वकालत की।

• साम्राज्यवाद का विरोध: उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत की राजनीतिक और आर्थिक दुर्दशा का कारण मानते हुए स्वतंत्रता की आवश्यकता पर बल दिया।

• सरकार का उद्देश्य: गाँधी का मानना था कि सरकार लोगों की सेवा के लिए है, न कि लोग सरकार के अधीन रहने के लिए।

2. सामाजिक अधिकार और स्वराज

गाँधी ने स्वराज को सामाजिक एकजुटता और नैतिक सुधार का माध्यम माना।

समाज सुधार ; उन्होंने असामाजिकता, जातिवाद और भेदभाव के उन्मूलन को स्वराज की आधारशिला माना।

अनुशासन और कष्ट सहन : गांधी के अनुसार, राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक अनुशासन, एकता और कष्ट सहन के बिना असम्भव है। स्वराज केवल त्याग और संघर्ष के माध्यम से प्राप्त हो सकता है।

3. आर्थिक अधिकार और स्वराज

गाँधी के लिए आर्थिक स्वतंत्रता राजनीतिक स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा थी ।

• आत्मनिर्भरता: गाँधी ने व्यापक जनसंख्या के लिए रोजगार की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने लिखा, “जब तक लोग यह न जानें कि बेरोजगारी को कैसे दूर करें, तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।”

स्वदेशी और कुटीर उद्योग: गाँधी ने ग्रामीण रोजगार और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया, ताकि भारत की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित हो सके।

4. स्वराज की नैतिक और अनुशासनिक नींव

गाँधी का स्वराज अनुशासन, नम्रता, और सत्य पर आधारित था।

• नैतिकता और अनुशासन : गाँधी ने कहा कि स्वराज एक उपहार नहीं, बल्कि संघर्ष और त्याग से प्राप्त होने वाला अधिकार है।

मुरली मनोहर तिवारी (सीपू)

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