भाषा,संस्कृति को लेकर देश भी विभक्त हुए हैं,सुलझाने में धैर्य और बुद्धिमता चाहिये : श्वेता दीप्ति
भाषा और संस्कृति जैसे संवेदनशील मुद्दे को धैर्य और बुद्धिमता के साथ सुलझाना आवश्यक है .
डा श्वेता दीप्ति, काठमांडू | किसी भी क्षेत्र और संस्कृति के लिए उसकी भाषा और उसके संस्कार बहुत मायने रखते हैं और यही मायने रखना उस संस्कृति को जिन्दा रखता है इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है । हम सभी जानते हैं कि भाषा और संस्कृति समाज में जितना महत्व रखता है, उतना ही यह संवेदनशील भी होता है और इसी संवेदनशीलता की वजह से द्वन्द्ध और मतभेद की सृजना होती है । क्योंकि कोई भी अपनी सांस्कृतिक विरासत खोना नहीं चाहता चाहे वो किसी भी वर्ग का हो, सभी को अपनी भाषा और संस्कृति प्यारी होती है और विश्व इतिहास गवाह है कि इसी विषय पर लोग, समुदाय या क्षेत्र ही नहीं देश तक विभक्त हो गए हैं ।
नेपाल एक नए अध्याय के साथ आगे बढने के प्रयास में है । पहाड, हिमाल और तराई से बने नेपाल में तराई क्षेत्र पिछले कई वर्षों से आन्दोलित है । राज्य से पहचान और अधिकार की लडाई जारी है और शासक पक्ष पर समुदाय का बोलवाला रहा है वह आज तक मधेश को कमजोर रखकर अपने वर्चस्व को अक्षुण्ण रखना चाहता है । एक प्रदेश एक मधेश के नारे को आठ जिलों में सीमित करना उनकी इसी नीति के तहत हुआ । अब सवाल यह है कि क्या मधेशवासी इसी आठ जिले को लेकर संतुष्ट होंगे या उनके अधिकार की लडाई अभी जारी है ? इसका जवाब आने वाला कल देगा क्योंकि पीढियाँ बदलती हैं तो अपने साथ परिवर्तन लेकर आती है । और आज मधेश जिस नींद से जागा है कल उसकी पीढी निश्चित तौर पर सुषुप्तावस्था में नहीं जाएगी क्योंकि चेतनता ने अपने पैर जमा लिए हैं और वह कभी मृतप्राय नहीं हो सकता ।
पर अफसोस इस बात का है कि नेपाल में जिस दो नम्बर प्रदेश को वर्तमान में मधेश का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला है वहीं वैचारिक मतभेद के बीज पडने लगे हैं जो निश्चित तौर पर किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है । कभी प्रदेश के नामकरण को लेकर तो कभी राजधानी के स्थान को लेकर । इसी सन्दर्भ में सामाजिक संजाल में एक शब्द काफी जगह पा रहा है कि दो नम्बर प्रदेश को मिथिला राज्य घोषित किया जाय और राजधानी जनकपुर को बनाया जाय । दूसरी ओर एक पक्ष यह कह रहा है कि राजधानी बीरगंज को बनाया जाय । कोई शक नहीं है कि इनमें से जिनके भी नाम की घोषणा की जाएगी तो द्वन्द्ध की स्थिति बनेगी, बंदी होंगे, तोडफोड होगी । तो क्यों ना उसके पहले हम अपनी वैचारिकता का परिचय दें जिसमें सिर्फ और सिर्फ विकास और समृद्धि को स्थान दें जो समग्र दो नम्बर प्रदेश के लिए हो । ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि जो राजधानी होती है सिर्फ वही विकास करता है और बाकी के क्षेत्र पिछडे रह जाते हैं । क्षेत्रों के विकास की जिम्मेदारी उस क्षेत्र के प्रतिनिधियों की होती है जिनका चुनाव हम कर चुके हैं और अब उनकी बारी है कि वो अपने अपने क्षेत्र का विकास केन्द्र की सहायता से कैसे करते हैं ?
जनकपुर और बीरगंज ये दोनों ही दो नम्बर प्रदेश की रीढ हैं, एक आध्यात्मिक तो दूसरा औद्योगिक और यही दोनों क्षेत्र दो नम्बर प्रदेश को समृद्धि दे सकता है । हम सभी जानते हैं कि बीरगंज इस देश को सबसे अधिक आर्थिक फायदा देता है और अब इस फायदे को दो नम्बर प्रदेश के लिए प्रयोग में लाया जाना चाहिए वहीं जनकपुर पर्यटन की सबसे अधिक संभावना वाला क्षेत्र है जिसे विश्वधरोहर में शामिल करना और यहाँ का पर्यटकीय दृष्टिकोण से विकास कर दो नम्बर प्रदेश को विश्वपटल पर पहचान दिलाने की आवश्यकता है और यही दो नम्बर प्रदेश की पहचान होगी । ये दोनों ही क्षेत्र दो नम्बर प्रदेश की जान हैं इसलिए यहाँ जो भी नाम सामने आए उसे सहृदयता और सद्भावना के साथ यहाँ की जनता को स्वीकार करना चाहिए । राजधानी कहाँ बननी चाहिए, उसका क्या भौतिक पूर्वाधार होता है, क्षेत्रफल की दृष्टिकोण से, विविधता की दृष्टिकोण से, आवागमन और भौगोलिक दृष्टिकोण से यह सभी सम्बन्धित निकाय या विज्ञ तय करते हैं जिन्हें सौहाद्रता के साथ स्वीकार करना चाहिए क्योंकि समग्र में सभी एक हैं ।
दूसरा सवाल प्रदेश के नामकरण का है जिसके लिए मिथिला शब्द की चर्चा सामाजिक संजाल पर हो रही और इस पर सहमति और असहमति दोनों ही जारी है । सामान्य तौर पर मिथिला अर्थात् वह क्षेत्र जहाँ रहने वाले मैथिल कहलाते हैं और जहाँ की भाषा मैथिली है, इसको परिभाषित करती है और यही इस नाम के लिए असहमति का कारण भी है । निःसन्देह मिथिला का एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है जो भारत के बिहार राज्य के तिरहुत क्षेत्र मधुबनी, समस्तीपुर, दरभंगा, सहरसा, भागलपुर, पूर्णिया कटिहार, मुजफ्फरपुर आदि से होते हुए जनकपुर तक आता है ।
वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में मिथिला अति प्रसिद्ध विदेह राज्य के रूप में जाना जाता था। द्वितीय नगरीकरण अथवा महाजनपद काल में वज्जि संघ, लिच्छवी संघ आदि नाम से प्रसिद्ध रहा है।
मधुबनी जिले के प्राचीनतम ज्ञात निवासियों में किरात, भार, थारु जैसी जनजातियाँ शामिल है। वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर कूच किया और इस क्षेत्र में विदेह राज्य की स्थापना की। विदेह के राजा मिथि के नाम पर यह प्रदेश मिथिला कहलाने लगा। रामायणकाल में मिथिला के राजा सिरध्वज जनक की पुत्री सीता का जन्म मधुबनी की सीमा पर स्थित सीतामढी में हुआ था। विदेह की राजधानी जनकपुर,थी जो नेपाल में है, इसकी सीमा मधुबनी के उत्तर(पश्चिमी सीमा के पास है। बेनीपट्टी के पास स्थित फुलहर के बारे में ऐसी मान्यता है कि यहाँ फुलों का बाग था जहाँ से सीता फुल लेकर गिरिजा देवी मंदिर में पूजा किया करती थी। पंडौल के बारे में यह प्रसिद्ध है कि यहाँ पांडवों ने अपने अज्ञातवाश के कुछ दिन बिताए थे। विदेह राज्य का अंत होने पर यह प्रदेश वैशाली गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। १३ वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया। उत्तरी भाग जिसके अंतर्गत मधुबनी, दरभंगा एवं समस्तीपुर का उत्तरी हिस्सा आता था, ओईनवार राजा कामेश्वर सिंह के अधीन रहा। ओईनवार राजाओं ने मधुबनी के निकट सुगौना को अपनी पहली राजधानी बनायी। १६ वीं सदी में उन्होंने दरभंगा को अपनी राजधानी बना ली। ओईनवार शासकों को इस क्षेत्र में कला, संस्कृति और साहित्य का बढावा देने के लिए जाना जाता है। १८४६ इस्वी में ब्रिटिस सरकार ने मधुबनी को तिरहुत के अधीन अनुमंडल बनाया।समस्तीपुर राजा जनक के मिथिला प्रदेश का अंग रहा है। विदेह राज्य का अंत होने पर यह वैशाली गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह मगध के मौर्य, शुंग, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। ह्वेनसांग के विवरणों से यह पता चलता है कि यह प्रदेश हर्षवर्धन के साम्राज्य के अंतर्गत था। १३ वीं सदी में पश्चिम बंगाल के मुसलमान शासक हाजी शम्सुद्दीन इलियास के समय मिथिला एवं तिरहुत क्षेत्रों का बँटवारा हो गया।
यानि मिथिला का अधिकांश भाग आज भी बिहार में है । मिथिला शब्द एक ऐसे भूभाग को सम्बोधित करती है जो मैथिल और मैथिली से सम्बन्धित है जिसे स्वीकार करना भोजपूरी, अवधी, थारु आदि के लिए सहज नहीं होगा । ऐसे में वो शब्द खोजें जो सर्वग्राह्य हो । चाहे वह उत्तरी पश्चिमी मधेश हो, मध्यदेश हो, मध्यांचल हो या विदेह हो । मुझे व्यक्तिगत तौर पर विदेह शब्द सर्वथा उपयुक्त लगता है क्योंकि यह शब्द जहाँ हमारी पौराणिकता, मिथिला, जनक, जानकी को समेटता है वहीं इस शब्द के प्रयोग से किसी भाषा विशेष की झलक भी नहीं मिलती है । यह बस एक गौरवशाली संस्कृति को परिभाषित करती है । इतना ही नहीं आज भी हम पूजा में जम्बुद्वीप का नाम लेते हैं । मध्यलोक में सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की बहुत ही सुन्दर रचना बनी है, जिसे दर्शकगण धरती का स्वर्ग कहते हैं और बहुत ही पुलकित होकर दर्शन करके प्रशंसा करते हुए तृप्त नहीं होते। ऐसे जम्बूद्वीप में प्रवेश करते समय सबसे पहले विदेह क्षेत्र आता है। शतपथ ब्राह्मण में विदेघु या विदेह के राजा माठव का उल्लेख है, जो मूलरूप से सरस्वती नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहते थे और पीछे विदेह में जाकर बस गए थे। इन्होंने ही पूर्वी भारत में आर्य सभ्यता का प्रचार किया था। शांखायन श्रौतसूत्र में जलजातु कर्ण्य नामक विदेह, काशी और कोसल के पुरोहित का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में सीता के पिता मिथिलाधिप जनक को वैदेह कहा गया है । भास ने स्वप्नवासवदत्ता में सहस्रानीक के वैदेहीपुत्र नामक पुत्र का उल्लेख किया है, जिससे ऐसा जान पड़ता है कि उसकी माता विदेही की राजकुमारी थी। वायुपुराणे में निमि को विदेह नरेश बताया गया है।
विष्णुपुराण में विदेह नगरी (मिथिला) का उल्लेख है। बौद्ध काल में संभवतः बिहार के वृज्जि तथा लिच्छवी जनपदों की भांति की विदेह भी गणराज्य बन गया था। जैन तीर्थंकर महावीर की माता त्रिशला को जैन साहित्य में विदेहदत्ता कहा गया है। इस समय वैशाली की स्थिति विदेह राज्य में मानी जाती थी, जैसा की आचरांगसूत्रे सूचित होता है, यद्यपि बुद्ध और महावीर के समय में वैशाली लिच्छवी गणराज्य की भी राजधानी थी। तथ्य यह जान पड़ता है कि इस काल में विदेह नाम संभवतः स्थूल रूप से उत्तरी बिहार के संपूर्ण क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होने लगा था। यह तथ्य दिग्घनिकाय में अजातशत्रु के वैदेहीपुत्र नाम से उल्लिखित होने से भी सिद्ध होता है।
हम चाहें तो विदेह शब्द को अंगीकार कर सकते हैं । क्योंकि जय मिथिला और जय मैथिली कहना सभी भाषा भाषियों के लिए सर्वमान्य नहीं होगा और हम अपनी भाषा की मान्यता सभी पर जबरन लाद भी नहीं सकते हैं क्योंकि सभी भाषा आदरणीय है और उसका सम्मान हमें करना चाहिए । पर यह मेरी व्यक्तिगत धारणा है इस पर सहमति, असहमति हो सकती है । पर समग्र में यह जरुर कहना है कि भाषा और संस्कृति जैसे संवेदनशील मुद्दे को धैर्य और बुद्धि मता के साथ सुलझाना आवश्यक है इस मर्म को समझ कर ही आगे बढना होगा ।
भाषा और संस्कृति जैसे संवेदनशील मुद्दे को धैर्य और बुद्धिमता के साथ सुलझाना आवश्यक है : श्वेता दीप्ति
भाषा और संस्कृति को धैर्य और बुद्धिमता के साथ सुलझाना आवश्यक है इसी विषय पर लोग, समुदाय या क्षेत्र ही नहीं देश तक विभक्त हो गए हैं