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मधेश की जनता चीख चीखकर कह रही है, नाकाबन्दी हमने किया है भारत ने नही : श्वेता दीप्ति

श्वेता दीप्ति, काठमांडू ,३० सेप्टेम्बर |



नफरत के बीज इतनी गहराई में मत बोओ कि वह विषवृक्ष बन जाय, द्वेष की दीवार इतनी उँची मत करो कि उसे गिराना असम्भव हो जाय और किसी के धैर्य की इतनी परीक्षा मत लो कि वह अधैर्य होकर अपनी मानसिकता खो दे ।



नफरत के बीज इतनी गहराई में मत बोओ कि वह विषवृक्ष बन जाय, द्वेष की दीवार इतनी उँची मत करो कि उसे गिराना असम्भव हो जाय और किसी के धैर्य की इतनी परीक्षा मत लो कि वह अधैर्य होकर अपनी मानसिकता खो दे । पिछले डेढ़

मधेश के चुल्हे बुझ रहे थे, बच्चे मर रहे थे, किन्तु इससे कोई वास्ता नहीं था । परन्तु पिछले एक सप्ताह में हवा की रुख ही बदल गयी है ।
महीने से मधेश अपनों को खोकर भी अपने धैर्य की परीक्षा दे रहा है, सरकार के दमन को सहकर भी अपने मानसिक संतुलन को बरकरार रखे हुए है । जबतक उसे दबाने के लिए सरकारी तंत्र पूरी तरह अमानवीय बना हुआ था, तबतक देश के डेढ़ करोड़ जनता की चीख किसी को सुनाई नहीं दे रही थी । मधेश के चुल्हे बुझ रहे थे, बच्चे मर रहे थे, किन्तु इससे कोई वास्ता नहीं था । परन्तु पिछले एक सप्ताह में हवा की रुख ही बदल गयी है । देश ने एक ऐतिहासिक संविधान लागू किया, जिसके कई पन्ने रक्तरंजित हैं, किसी की आह पर कहीं शान से दीपावली भी मना ली गई, लेकिन जैसे ही पड़ोसी राष्ट्र भारत ने देश के एक अहम हिस्से के लिए अपनी चिन्ता व्यक्त की, राष्ट्रवाद की सुनामी सी आ गई । राजधानीवासी तीन चार दिनों में ही अपना धैर्य खोने लगे हैं । काश ये सुनामी अपने ही देश की आधी आबादी के लिए
आज भारतीय चैनल को बन्द किया गया है, अच्छा किया, क्योंकि भूखे पेट मनोरंजन भी अच्छा नहीं लगता । और यहाँ की मीडिया सिर्फ वर्ग विशेष की है जिसे देखना और ना देखना कोई मायने नहीं रखता । खैर नजरें आनेवाले कल पर टिकी हुई हैं । पहाड़ की भूख और परेशानी तो बहुत जल्द नजर आ गई उसे दूर करने के प्रयास भी जारी हो गए हैं किन्तु मधेश की भूख और पीड़ा पर कब नजर जाएगी, कब उसकी माँगों को समझा जाएगा बस उस कल का इन्तजार है |
आई होती, तो आज स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती । कभी मानवता के नाते भी मधेश के समर्थन में एक रैली नहीं निकली विशेष समुदाय की तरफ से, कभी सरकार के सामने धरने नहीं दिए गए, कभी सरकार से यह माँग नहीं की गई कि मधेश की जनता को सरकार जल्द से जल्द सम्बोधित करे, रोज गाजर मूली की तरह मधेशी मरते रहे, किन्तु जुवान से उफ तक नहीं निकली और आज जब परेशानियों से वास्ता पड़ा तो घेराबन्दी की जा रही है, नारे लग रहे हैं । जिसे भारत का अघोषित नाकाबन्दी कहा जा रहा है, उसे मधेश की जनता (अर्थात् नेपाल की ही जनता) चीख चीखकर कह रही है कि यह नाकाबन्दी हमने किया है । किन्तु गालियाँ भारत को दी जा रही है, वैसे यह कोई नई बात नहीं, भारत को उस दिन भी गालियाँ दी गई थीं, पुतले उस दिन भी जले थे, जिस दिन उसने खुले दिल से प्राकृतिक आपदा में पहाड़ की मदद की थी । किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि इस गम्भीर समस्या के समाधान से अधिक स्वयं यहाँ की सरकार, भारत विरोधी वक्तव्य जारी करने में लगी हुई है । मीडिया भ्रामक प्रचार में लगी हुई है । वास्तविकता से सभी वाकिफ हैं, सभी जानते हैं कि यह मधेश के अधिकारों की लड़ाई है, जब तक मधेश को शान्त नहीं किया
वास्तविकता से सभी वाकिफ हैं, सभी जानते हैं कि यह मधेश के अधिकारों की लड़ाई है, जब तक मधेश को शान्त नहीं किया जाएगा यह स्थिति सम्भलने वाली नहीं है, किन्तु एक अंधी दौड़ में सभी शामिल हो रहे हैं । और यह भी सत्य है कि समस्या का समाधान स्वयं करना है परन्तु पहल तो ईमानदारी से होनी चाहिए । राजनीतिक समस्या साम्प्रदायिक बनती जा रही है । मधेशी और पहाड़ी समुदाय के बीच एक अनदेखी विषाक्त दीवार खड़ी हो रही है । जो निःसन्देह घातक है ।
जाएगा यह स्थिति सम्भलने वाली नहीं है, किन्तु एक अंधी दौड़ में सभी शामिल हो रहे हैं । और यह भी सत्य है कि समस्या का समाधान स्वयं करना है परन्तु पहल तो ईमानदारी से होनी चाहिए । राजनीतिक समस्या साम्प्रदायिक बनती जा रही है । मधेशी और पहाड़ी समुदाय के बीच एक अनदेखी विषाक्त दीवार खड़ी हो रही है । जो निःसन्देह घातक है ।

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नाकाबन्दी को लेकर जिस तरह पहाड़ की जनता बौखलाई हुई है और भारत के विरोध में डटी हुई है, लैनचौर पर धरना दे रही है, वह अपनी सरकार से सवाल क्यों नहीं कर रही ? आखिर इस हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? तराई से जुड़े प्रत्येक सीमा पर दिनरात मधेश की जनता डटी हुई है और नेपाल सरकार भारत से अपेक्षा कर रही है कि वह गाड़ियाँ नेपाल में आने दे । किन्तु कैसे ? मधेशी जनता के सीनों पर ? और अगर भारत गाड़ी प्रवेश कराता है तो एकबार फिर गोलियाँ बरसेंगी, कुछ आम फिर गिरेंगे और काठमान्डू अपनी पूर्व गति में आ जाएगा ।
वार्ता करने के लिए टोली गठन की बात सामने आ रही है किन्तु बिगड़ते माहोल में जिस फास्टट्रैक की आवश्यकता महसूस हो रही है वह दिखाई नहीं दे रही । काठमान्डौ, महज तीन चार दिनों में अपनी गति खो बैठा है, वहीं पिछले ४५,४६ दिनों से मधेश सुलग रहा है किन्तु सत्ता किसी ठोस कदम उठाने की जगह भड़काउ वक्तव्य देने में लगी हुई है । मधेशी दलों में भी जिस एकता की आवश्यकता है, वह नहीं दिखाई दे रही है । सच तो यह है कि मधेश का यह आन्दोलन किसी पार्टी का या मोर्चा का नहीं है बल्कि जनता का है । आज बाबूराम भटराई का मधेश मोह उन्हें वहाँ लेकर गया किन्तु उन्हें भी समझ में आ गया होगा कि जनता क्या चाह रही है । आज जो कदम उन्होंने उठाया काश एक महीने पहले उठाया होता । प्रधानमंत्री को अब टीकापुर के दर्द की सुध आई है, परन्तु मधेश आज भी उनसे अछूता है । आज के समय में आन्दोलित मधेश को मध्यस्थता के लिए एक सक्षम और सबल नेतृत्व की आवश्यकता तो है जो सरकार और जनता के बीच संवाहक का काम कर सके । किन्तु वह सबल नेतृत्व कहीं नहीं दिख रहा ।

नाकाबन्दी को लेकर जिस तरह पहाड़ की जनता बौखलाई हुई है और भारत के विरोध में डटी हुई है, लैनचौर पर धरना दे रही है, वह अपनी सरकार से सवाल क्यों नहीं कर रही ? आखिर इस हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? तराई से जुड़े प्रत्येक सीमा पर दिनरात मधेश की जनता डटी हुई है और नेपाल सरकार भारत से अपेक्षा कर रही है कि वह गाड़ियाँ नेपाल में आने दे । किन्तु कैसे ? मधेशी जनता के सीनों पर ? और अगर भारत गाड़ी प्रवेश कराता है तो एकबार फिर गोलियाँ बरसेंगी, कुछ आम फिर गिरेंगे और काठमान्डू अपनी पूर्व गति में आ जाएगा । यही शायद यहाँ की जनता भी चाह रही है । मधेशी मरे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उन्हें तो यहाँ का माना ही नहीं जा रहा । कृपादृष्टि पहाड़पर बनी रहती तो सब अच्छा रहता पर अभी तो कयामत ही आ गई है । पर एक अच्छी बात जो सामने आ रही है वो यह कि शायद अब नेपाल स्वाबलम्बी जरुर बनने की कोशिश करेगा । आज के परिदृश्य ने आत्मनिर्भर बनने का संदेश जरुर दिया है, इस वक्त का सही फायदा अवश्य लेना चाहिए । अपने अर्थतंत्र का मजबूत बनाने का प्रयास नेपाल अवश्य करेगा नहीं तो आज भारत, तो कल चीन और पाकिस्तान का ही भरोसा करना पड़ेगा । समय से सीख लें तो बेहतर होगा ।

भारत से भी विनम्र आग्रह है कि वो अपनी थैली का मुँह अनावश्यक ना खोले । अपने सहयोग, अपनी योजनाओं और अपने निवेश पर पुनर्विचार करे । उलझे हुए मामलों को सुलझाए । आज जो दृश्य दिख रहा है, जिस तरह भारतीय प्रधानमंत्री के पुतले और भारतीय झंडे का अपमान किया जा रहा है उससे यह जाहिर हो गया है कि नेपाल स्वयं सक्षम बनने वाला है और उसे अब भारत की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि दातृ संगठन की कमी नहीं है । अगर भारत को अपनी सुरक्षा का ख्याल है, तो जितना निवेश वो खुद को सुरक्षित रखने के लिए यहाँ लगाना चाहता है, उसे अपनी सुरक्षा व्यवस्था और सीमा की चौकसी में लगाए । अपने अन्य देशों से जुड़ी सीमाओं की तरह नेपाल के लिए भी नियम लागू करे, खुली सीमा को बन्द करे, क्योंकि आसानी से जो उपलब्ध होता है उसकी कोई कीमत नहीं होती । भारत और भारतीय से अनुरोध है कि रोटी और बेटी के सम्बन्ध को भूल जाए क्योंकि वहाँ की बेटियाँ यहाँ दूसरे दर्जे की नहीं बल्कि तीसरे दर्जे की नागरिक है । ऐसे में अगर आपकी बेटियाँ आपका स्वाभिमान हैं तो उसे तीसरे दर्जे का नागरिक बनने से रोकें । भारत ने नारा दिया है बेटी बचाओ तो उसके स्वाभिमान को भी बचाइए ।

आज भारतीय चैनल को बन्द किया गया है, अच्छा किया, क्योंकि भूखे पेट मनोरंजन भी अच्छा नहीं लगता । और यहाँ की मीडिया सिर्फ वर्ग विशेष की है जिसे देखना और ना देखना कोई मायने नहीं रखता । खैर नजरें आनेवाले कल पर टिकी हुई हैं । पहाड़ की भूख और परेशानी तो बहुत जल्द नजर आ गई उसे दूर करने के प्रयास भी जारी हो गए हैं किन्तु मधेश की भूख और पीड़ा पर कब नजर जाएगी, कब उसकी माँगों को समझा जाएगा बस उस कल का इन्तजार है |



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