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संविधा‌न दुश्मन, शासक तुगलक : कैलाश महतो

संविधा‌न दुश्मन और शासक तुगलक : कैलाश महतो

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कैलाश महतो, पराशी ।  मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक रहा । ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ‘जूना ख़ाँ’, मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा था । उसका मूल नाम ‘उलूग ख़ाँ’ था । राजा मुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है ।

सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था । अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ भी कहा गया है । बरनी, सरहिन्दी, निज़ामुद्दीन, बदायूंनी एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया है । मुहम्मद बिन तुगलक अपनी सनक भरी योजनाओं के कारण अपने द्वारा किए गए अभियानों में लगातार असफल होता गया जिसके कारण वे प्रजा के बीच अलोकप्रिय हो गया ।

भारतीय शासकों के सम्पर्क और मिलीभगत से ही तत्कालीन विग्रहित नेपाल के सत्ता में रहे पृथ्वी नारायण शाह के पूर्खे, पृथ्वीनारायण शाह खुद तथा उसके उपरान्त के सारे नेपाली शासकों का सत्तायी तमीज लगभग तुगलकी शैलियों के साथ साथ अंग्रेजी हुकुमतों से भी मिलते जुलते हैं । कुछ विश्लेषकों का तो यहांतक मानना है कि वर्तमान नेपाली बाहुन (ब्राम्हण) शासन तो अंग्रेजी हुकुमत से भी शातिर है ।

आश्विन ३ नेपाली शासकों का संविधान दिवस है । शासक और उसके वृत्त को मानने बालों के लिए नेपाली संविधान का तिथि दिबस आश्विन ३ उसके सम्प्रभु, न्याय, स्वतन्त्रता और अलौकिक उपलब्धि का दिवस है, वहीं मधेशी, पहाडी जनजाति, अल्प संख्यक, दलित और महिलाओं का वह सर्वाधिक कलंकित दिवस है । कुछ लोग आश्विन ३ को “काला दिवस” के रुप में मनाये जाने की रीवाज है । मगर हमारे लिए यह तिथि कलंक दिवस है, जिसे इतिहास में भद्दे नाम से याद किया जाता है । काला का तो सफाई हो सकता है, मगर कलंक का कोई सफाई संभव नहीं होता ।

नेपाल का संविधान – २०७२ मधेश का पूरा दुश्मन और इसके पक्षपोषक शासक भारत वर्ष में शासन करने बाले १४वीं शदी के तुगलक शासक से किसी भी मायने में कम नहीं हैं । जो  संविधान अपने जन्म के साथ ही हिंसा पैदा करता हो, विभेद करता हो और दोहन कार्य को सर्टिफाई करता हो, वह संविधान शासक के आलावे जनता का कैसे अपना संविधान हो सकता है ? २०७२ का नेपाली संविधान बस् – एक वर्ग का अल्फाज है – जैसे मानव अधिकार का सबसे ज्यादा डंका पीटने बाला अमेरिका दुनिया में सबसे ज्यादा मानव अहित का काण्ड करता है ।

दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कहे जाने बाला नेपाल का संविधान दुनिया के तमाम असफल संविधानों के सूचियों में नम्बर एक पर आने को बेताब है, अगर इसे इमानदारी से अपने आपको प्रस्तुत होने दें । इस संविधान‌ ने सारे लूप होलों को खोलकर इस कदर रखा है, जिनके बल पर नेपाल की जमीन बेची जा रही है, शासन शक्ति को बेहाया बनाया जा रहा है, देश की पानी और जवानी की धडल्ले से सौदावाजी की जा रही है, नियत और नियम बेचे जा रहे हैं । कुछ दिन पहले एक सजग मधेशी शीर्ष नेता से हुए मुलाकात में यह जानकर ताज्जुब हुआ कि नेपाल थप पांच सालों तक आर्थिक मन्दी का शिकार रहेगा ।

नेपाल का २०७२ का संविधान इस तरह से निर्माण किया गया है, जहां से श्मशान घाट के प्रेत भी शासन में लौट आ सकता है और बहुसंख्यक समाज का जीता जागता रुह दया के छायें में सिमटकर सहानुभूति का पनाह खोजता रहेगा । कुछ कुटिल दिमाग और दिमाग से पंक्चर कुछ धर्म ठेकेदारों को अब भी धर्म और उसके हिमायतियों में संस्कृति, संस्कार और जीवन दर्शन नजर आ रहे हैं । पागलों के पागलपन पर पनप रहे धर्म-जिसने जीवन धर्म को तवाह कर रखा है, जो राजनीति में धर्म देखता है, धर्म में जीवन देखता है – मगर जीवन में धर्म को अस्वीकार करता है, का कहना है कि धर्म ही उसका जीवन है, धर्म के आधार पर देशाङ्कन होना चाहिए ।

देश का जन सेवा के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं होता है । धर्म व्यक्ति का आस्था है, सम्पूर्ण समाज का नहीं, न तो किसी लोकतान्त्रिक या गणतान्त्रिक किसी देश का । उसके राजनीति पर धर्म लादना सबसे बडा अपराध है । उसी अपराध के जग में जो देश ने विशुद्ध राजनीति खोया है, उसे सही ट्रयाक में लाने में न तो राज नेता सफल हैं, न गणतान्त्रिक नेपाल के अन्दर किसी न किसी रुप में छोड दिए गये प्रतिगामी तत्व सफल होने दे रहे हैं ।

कुछ धार्मिक उचक्कों का फरमान यह जारी होना कि नेपाल के संविधान -२०७२ को आश्विन ३ के दिन जलाया जाना चाहिए, उसे फाड दिए जाने चाहिए, की बात गम्भीर परिस्थितयों का निर्माण करने का जुगाड है । स्मरण हो कि प्रतिगामी तत्वों और मधेशी तथा पहाडी दलित जनजातियोंं के अहित में लिखे गये संविधान का विरोध कल्हतक मधेशी और जनजाति के लोग और वर्ग करते थे, आज वे भी उस संविधान के विरोध में खडे होने के बात कर रहे हैं – जिनके पक्ष में संविधान निर्माण किया गया है । यह आश्चर्य और गम्भीर षड्यन्त्र की संकेत है । कल्ह जब संविधान से पीडित समुदाय संविधान दिवस को “काला दिवस” कहेगा, वहीं पर उसी भाषा में वे लोग भी अपने सर्वश्रेष्ठ संविधान को भी जलाने का फरमान जारी करें तो मधेशी और पहाडी पीडित समुदायों के लिए सांप और छुछुन्दर का खेल हो जायेगा । यहां पर गणतन्त्रवादियों को सतर्क होना बेहद जरुरी है ।

“चीत में भी हम और पट्ट में भी हम ही” के रणनीति से निर्मित पांच बाहुन लिखित संविधान अगर जिन्दा रहे – तो पीडितों का दुर्दशा तय है, और मिट जाय – तो भी उन्हें ही दुर्दशा” के यह चक्रव्यूह से उस एक कथायी घटना हमारे सामने तस्वीर बन जाता है – जब किसी गांव के एक चलाक दुष्ट ने अपने बेटे से कहा था कि मेरे मरने के बाद भी लोगों को चैन से न रहने देने के लिए मेरे मृत शरीर के संवेदनशील अङ्ग में बांस लगाकर बीच चौराहे पर टांग दें ता कि गांव बालों को पुलिस परेशान करें ।

देश के लिए सबसे बडा चुनौती अभी “धर्म और संविधान” खडा है । इन दो के बीच अन्योनाश्रित मेल‌मिलाप है । दोनों एक दूजे के सहयोग में काम कर रहे हैं । धर्माधिश और शातिर बाहुन शासन उसमें घी डालने के काम में व्यस्त है और घी में लगानी करने बाले कुछ राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियां हैं । उनका काम भी धर्म के नाम पर अपने पक्ष के राजनीति को ही संरक्षित करना है, न कि धर्म मानने बाले अधिकांश भेंड समूहों की भलाई से उसका कोई सरोकार है । अगर ऐसा होता तो हजारों सालों से किसी धर्म को अपना जीवन पद्धति मानने बाले दलित, शुद्र, अछुत और दीनहीनों की स्थिति भी हजारों गुणा ज्यादा समृ्द्ध, सफल और शक्तिशाली हो गये होते ।

आश्विन ३ गते का संविधान दिवस को “काला दिवस” नहीं, “कलंक दिवस” के रुप में मनाकर संविधान को पूजा करने बाले समूहों द्वारा ही किसी प्रपञ्चपूर्वक मनाये जाने बाले “काला दिवस” के रुप से परिवर्तित कर संविधान, संविधान निर्माता और इसके प्रपञ्ची विरोधियों से इत्तर होकर विरोध करना जरुरी है ।



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