खोलती हूँ रोज़ अपनी चाहत की किताब और पढती हूँ दिल के पन्नों पे धड़कते तुम्हारे नाम को:आरती
डा आरती की कुछ अत्यन्त मन को छूने वाली कविता
१
मन्नत के धागों में
बांध दिया है तुम्हे
और हर फेरे के साथ
बांध रही हूँ एक गांठ
हमारे प्यार की लंबी उम्र के लिए
हमारे अटूट विश्वास के लिए
हमारी दीवानगी के लिए
हमारे एक दूजे के प्रति
समर्पण के लिए
हमारी मुस्कुराहटों के लिए
बदनज़र से हमारे प्यार की रक्षा के लिये
और अंतिम फेरे में चाहती हूँ लपेट लेना
खुद को ही तुम्हारे संग
ताकि जी सकूं हर सांस
रहकर तुम्हारे क़रीब
और
मन्नत पूरी होने में रह न सके…
कोई भी दूरी..
# डॉ आरती कुमारी
२
मेरा मन
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मेरा मन भी
ना जाने
बुनता है
कितने ही ख्वाब
तुम्हारे साथ…
कभी तुम्हारी ऊँगलियों को
स्पर्श करते
करता है चहलकदमी
ओस से भीगी नर्म घास पर..
तो कभी लाॅन में बैठ
करता है मीठी बातें
चाय की चुस्कियों के साथ..
कभी दूर पर्वत पे
चला जाता है
हाथों में हाथ डाले
और छू लेता है
प्यार का क्षितिज..
तो कभी
सिर पे पल्लू लिए
प्रेम विश्वास के
अटूट धागों को
मजबूत करने
चढ़ जाता है
श्रद्धा की कई सीढ़ियाँ..
कभी नदी किनारे
तुम्हारे काँधे पे
सिर रखकर
निहारता रहता है
किनारों में सिमटी
कलकल बहती नदी को…
और कभी,
रात की गहराईयों में
बिस्तर पर करवट लेते
समा जाता है एकदम से
तुम्हारी बाँहों में…
मेरा मन…!!
-डॉ आरती कुमारी
३
किताब
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खोलती हूँ रोज़
अपनी चाहत की किताब
और पढती हूँ
दिल के पन्नों पे धड़कते
तुम्हारे नाम को ।
उन पन्नों में
कर रखे हैं रेखांकित मैंने
एहसास के उन कोमल शब्दों को
जिनके भावार्थ बहुत गहरे हैं ।
चिन्हित कर रखे हैं
उन तारीखों को भी
जिनमें क़ैद हैं कुछ
मुस्कुराते लजाते हसीं पल
मोड़ रखे हैं
कुछ उदासियों के
आपसी मनमुटाव के
पन्नों को भी मैंने
जिन्हें नहीं खोलना चाहती मैं
दुबारा भी कभी।
और हाँ
कहीं कहीं लगा रखे हैं
तुम्हारी यादों के बुकमार्क भी मैंने
जिन तक जब चाहूँ
पहुँच जाती हूँ मैं
अपनी खामोश बेबस तन्हाईयों में
और पा जाती हूँ तुम्हारा साथ।
हर दिन किसी न किसी बहाने
कुछ न कुछ पढ ही डालती हूँ तुम्हे मैं
और समझ लेना चाहती हूँ
तुम्हारे किरदार को
तुम्हारे विचारों को
तुमसे जुड़ी परिस्थितियों को
मजबूरियों को
ताकि लग न जाए उनमें
अविश्वास के दीमक
और नासमझी की धूल ।
@डॉ आरती कुमारी