Sun. Apr 28th, 2024

हम पीडि़त हंै, घर पीडि़त है, जग पीडि़त है । जब तक हम पीडि़त हैं, तब तक एक राष्ट्र ही नहीं संपूर्ण विश्व पीडि़त है और रहेगा । कभी–कभी हमारे अन्दर अनेक सवाल सर उठाते हैं कि ः
आखिर हमे हीं क्यों अपमान सहना पडता है ? क्यों विभेद की दृष्टि से देखा जाता है ?



संगीता ठाकुर
संगीता ठाकुर

क्यों सिर्फ इच्छा पूर्ति का समान माना जाता है ? दहेज के नाम पर क्यों जिन्दा जलाया जाता है ? आखिर क्यों पति एवं उनके परिवार वालो की तरफ से प्रतारणा का शिकार बनाया जाता है ? कहने के लिए लोग कहते हैं कि बेटी को शिक्षा और संस्कार दो, शिक्षा के नाम पर लोगों में और लोभ लालच बढ़ गया है । लड़की भी पढ़ी लिखी चाहिए ,ए वन घर व्यवस्थापन भी चाहिए और दहेज के नाम पर लाखाें लाख रूपये और कार मोटर एवं तोला भर–भरकर सोना,चाँदी चाहिए और फिर वापसी में हमें मिलती है । शिक्षा के नाम पर उन्हें क्या चाहिए, अच्छी सुशील मेहनती लड़की जो आधुनिक युग में कुछ आर्जन कर सके, फिर भी संतुष्ट नहीं । हमे कुमार्ग पर चलने के लिए बाध्य करते हंै, अगर पति का किसी कारण बस निधन हो जाए तो ससुर के जीन से बहू को बच्चा जन्माने के लिए कहा जाता है । संस्कार का मतलब है कि हम उनका आदर करेंगे, अज्ञाकारी रहेंगे न कि उनकी हर गैरवाजिव बात मानेंगे ।
घर में बेटी को पढ़ाते हंै डिग्री, डाक्टर, इन्जिनियर, शिक्षक तक बनाते हैं साथ में लड़का वाले के दहेज मांगने पर हम दहेज भी देते हैं । हम यही गलती करते हैं । वहाँ यह प्रतिरोध नहीं होता कि लड़के की शिक्षा में अगर पैसे खर्च हुए हैं तो बेटी की शिक्षा में भी खर्च हुए हैं । समाज का डर, बेटी की शादी न होने का डर हमें हर गलत बात मानने पर विवश कर देता है । वक्त बहुत तेजी के साथ बदला पर कई मायने में बेटियों की हालत नहीं बदली । अगर प्रेम विवाह भी होता है तो वहाँ भी दहेज माँगा जाता है । दहेज की ही समस्या नहीं है कई जगहों पर उन्हें विभेद का सामना करना पड़ता है । जिसकस् शुरुआत घर से ही होती है । बेटे और बेटियों में फर्क किया जाता है । अगर बहु को बेटी पैदा हुई तो इसका दोष भी उसे ही झेलना पड़ता है और फिर एक बेटे की चाह में उसे कई बच्चे पैदा करने होते हैं चाहे उसके लिए उसका शरीर जवाब दे या न दे ।
हर घर में नारी का क्रंदन है । कहीं सास पीडि़त है ता कहीं बहू आखिर है तो नारी ही, नेपाल में तो यह दिनप्रतिदिन सुनने को मिलता है परन्तु भारत में भी कोई कम नहीं है नारी की दुर्दशा । नेपाल में लड़की भारत से आना नहीं चाहती क्योंकि यहाँ पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाती है । अंगीकृत नागरिक का खिताब लेकर हमेशा तीसरे दर्जे की नागरिक के तौर पर जीना पड़ता है । आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक हर तरह से शोषण का शिकार होती हैं हम फिर भी उम्मीद यह की जाती है कि हमारी जुबान न खुले । संस्कार, संस्कृति, परमपरा का भय दिखाकर हमें हमेशा रोका जाता है और यहीं आकर नारी खामोशी के साथ सब झेलने को बाध्य हो जाती है । न जाने यह समाज और इसकी सोच कब बदलेगी ? कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं क्योंकि हम स्वयं इसका उत्तर खोजने से डरते हैं और इन बेडि़यों को स्वीकार कर अपनी जिन्दगी व्यतीत कर लेते हैं



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