Sun. May 12th, 2024
himalini-sahitya

परजन्या सभ्यता के इन खण्डहरों में अब कहीं नहीं बहती : संजय कुमार सिंंह

 



 

दिल के कोरों को छूकर गुजरती संजय सिंह की कविताओं से होकर गुजरना एक अद्भुत अनुभूति प्रदान करता है । प्रस्तुत है आपकी कुछ कविताएँ 

पुनर्वास!

गंगे!
आज जब हृदय की प्यास
उभर आयी है होठों पर
दूर तक फैल-पसर रही है आत्मा पर
व्यथा की परछाईं
एक-एक कर झुलस रहे हैं
इच्छाओं के कल्प-तरु
और विकल हो रहे हैं मन-प्राण!
तब तुम क्यों सूख रही हो?
सूख कर कौन सी नदी मर गयी,
जो तुम मर जाओगी?
तुम बहो! मेरी अंतश्चेतना में अमृता…
2
यह सही है भागेश्वरी
कि पुण्य ही जाता है पुण्य के पास
पर आज मैं आया हूँ तुम्हारे पास
दुख की तप्त रेत पर चल कर
मेरे मन की मरुभूमि को भी
चाहिए सजल प्रवाह
कल कल गति !
3
किसने कहा मोक्ष?
मुझे जीवन चाहिए गंगे!
बहो!बहो!! बहो!!
चेतना में चिन्मय धार बनकर
देह में रस धार बन कर!

4
हर हर गंगे!
धरती पर जो माँगे मोक्ष
मैं नहीं माँगूँगा मोक्ष
मैं तो अभी जीवन माँग रहा हूँ माँ
तुम बहो, मेरे रिक्थ के ऋषिकेश में
हृदय के हरिद्वार में
प्राण के प्रयाग में
वाणी की वाराणसी में
भाग्य के भागलपुर में
हिमालय से हुगली तक
तुम बहो!
सृजन के सुंदरवन में
फल और फूल बनकर
किसी भी रूप में इसी धरती पर रहो
कल्याणी!
5
धरती से कभी मत रुठो
रूठ भी जाओ, तो
हृदय की गंगोत्री से निकल कर
आँखों में नदी बनकर बहो….
बहोगी तुम सतत, तो जीवन है
यह नश्वर संसार भी अमर है
तुम्हारा बहना जरूरी है
इस कलिकाल में पाप-ताप मोचिनी!
हर हर गंगे! गंगे!! गंगे!!!
परजन्या!

परजन्या
सभ्यता के इन खण्डहरों में
अब कहीं नहीं बहती |
वह एक नदी थी सदानीरा
जो सूख गयी,
हो गयी स्मृतिशेष!
क्या एक दिन
इसी तरह
गंगा भी हो जाएगी
नि:शेष!

पानी

इस विचित्र समय को जाने बगैर
कहती थी सुलोचना
जब कहीं नहीं बचेगा
तब भी
आदमी की आँख में
बचेगा पानी!
अब जब,
सूख रही हर तरफ
हया की गंगा
और निर्लज्ज हो रही आँखें
तब भी क्या तुम
यही कहोगी सुलोचना!

लापता

मित्र सुमंत!

इन दिनों मैं
किसी से मिलकर भी
नहीं मिल पाता|
तुम्हें दुख है
कि मैं उन बातों
और मुलाकातों भी भूल गया,
जिन्हें आसानी से कोई नहींभूलता|
अब मैं तुम्हें कैसे बताऊँ,
इस भीड़
और भाग- दौड़ भरी जिन्दगी में,
बरसों हुए खुद से मिले हुए|
क्या तुम अब भी ,
खुद से मिल पाते हो ,
मित्र सुमंत?

शहनाई

शहनाई को
मैं उसके नाम से जानता हूँ
नहीं,यह केवल संगीत का नहीं
बिस्मिल्लाखखाँ का जादू है
जो मेरे रोम-रोम में उतरता है
रामधुन की तरह
जैसे अजान की स्वर-लहरियाँ
दूध-मिश्री,फिरनी-खजूर की रस-चासनी!
एक ही लय में
सिमटती अनंत की दूरियाँ।
टूटती-फूटती
नाउम्मीद होती
इस दुनिया में
सबसे बड़ी उम्मीद है
बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई!

संजय कुमार सिंह,
प्रिंसिपल,
आर.डी.एस काॅलेज
सालमारी, कटिहार।
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, वर्त्तमान साहित्य,
पाखी, साखी, कहन कला, किताब, दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।



About Author

यह भी पढें   आज का मौसम... उच्च पहाड़ी तथा हिमाली भाग के कुछ स्थानों में हल्की बर्फबारी की संभावना
आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: