Sun. Apr 28th, 2024

डॉ दीप्ति की कविता ‘‘औरत” इतिहास और वर्तमान की बेचैनी : ललन चौधरी

आज भी सवालों की परिधि में कैद ‘‘औरत”



 

Lalan Chaudhari
ललन चौधरी

ललन चौधरी

कविता अपने पलकों पर स्वप्न सजाए एक खूबसूरत दुनियां को देखती है, जहां कोई औरत सुदंर सपने मे हँस रही होती है और उसकी मनभावन, लुभावन अदा पर सृष्टि के कण-कण प्रफुल्लित हो रहे होते हैं!  कवि की दृष्टि जब उन दृश्यों को अपनी पैनी नजर से देखती है तो उसके अंदर की दुनिया कितनी अंधेरी और खौफनाक प्रतीत होती है,जहां बलात्कार ,यातना, कष्ट,असह्य पीड़ा और वेदना की अनन्त मारक अनुभूतियां कराह रही होती है। हिंदी कविताओं में कई बार औरत को केन्द्र में रखकर बहुत कुछ लिखा गया।।बहुत कुछ कहा गया।।साहित्य का सबसे घृणित कार्य औरत पर संपादित और पूर्ण हुआ है।।अफसोस कि हमारी काव्य संवेदना और उसके अश्लील सौंदर्यबोध की दुर्गंध से कितनों ने अपने नाक मुंह सिकोड़े और आंखों पर पट्टी लगाए न्याय के चौखट पर दस्तक देकर समाज के कुकृत्य को फांसी की सजा सुनाई।।लेकिन अपराध,अत्याचार,बलात्कार और बच्चियों के साथ किये गये घिनौने कुकृत्य हजारों हजार बार सबने मिलकर आंसू बहाए।।आंसू सूख भी गये।।वक्त के साथ।।लेकिन औरत पर कविता आज भी कराह रही है।। सीती,द्रौपदी और सावित्री की पवित्रता और धैर्य की पराकाष्ठा का भी अतिक्रमण हुआ है,नारी शक्तियों की आदि परिभाषाएं भी बदली हैं और रूप रंग के तमाम तेवर हवा में रंग बिरंगे बैलून की तरह उडा़ दिए गये।।जहां कोई चील झपट्टा मारकर उसकी उड़ान को खत्म कर डाले।। राम रावण के बीच का आदर्श।और मूल्य भी कितने सच थे।।लेकिन न आज वैसा रावण रहा और न ही मर्यादापुरूषोत्तम राम।।केवल ध्वजा हम राम के आदर्श का फहरा लें या उस पर एक राजनीति कर लें। यह अलग सवाल है।।लेकिन कविता तो इन तमाम चीजों पर लंबी बहस की मांग करती है।।

‘‘औरत”

पांचाली तेरे चीर को हरा किसने ?

ये वही था जिसे गुरुर था

कि ये दुनिया उसी की है ।

और तुम सिर्फ एक औरत थी

जिसे ऐसे ही एक

गुरुर ने हार दिया था!

तुम उस वक्त भी

महज एक सामान थी

और आज भी

वही एक सामान हो ।

कुछ भी नहीं बदला

बस वक्त गुजरा है ।

आज भी औरत में सीता

देखने की चाहत सब में है

और आज भी दुर्योधन

और रावण सब में है ।

पर कल का रावण अच्छा था

भले ही इस अच्छाई में

कोई शाप हो जिस के डर ने

उसे तुमसे दूर रखा ।

पर आज का रावण

निरकुंश और आततायी है।

औरत !

आज तुम्हें सीता नहीं बनना

न ही अपने सतीत्व की परीक्षा देनी है

आज यहाँ कोई राम नहीं।

तुम्हें परित्यक्ता होने का भी

डर नहीं होना चाहिए,

न ही तुम्हें सती बनना है।

क्योंकि तुम न तो सीता हो

और न ही द्रौपदी,

तुम सिर्फ ईश्वर की एक सुन्दर रचना हो

प्रकृति हो, सृष्टि हो और

याद रखो इंसान हो

देवी नहीं, सिर्फ इंसान।

निस्संदेह इस कविता में डॉ दीप्ति ने “औरत” की त्रासदी को उकेरा है । ‘औरत ‘शीर्षक से प्रकाशित डॉ दीप्ति की यह कविता इतिहास और वर्तमान की वह बेचैनी है,जहां भविष्य को सुरक्षित करने की चिंता से आज तक मुक्ति नही मिल पाई है। औरत औरत है। सामान और वस्तु का पर्याय। जितना जो चाहे मन के मुताबिक उसका उपयोग कर ले,उसके अंदर से खिलते प्रेम पुष्प को झूठ ,प्रपंच और फरेब की दुनिया में ले जाकर  भाव करे।यह स्थिति तब और मारक हो जाती है ,जब उसके अंदर विश्वास को भी तहस-नहस कर दिया जाता है। इतिहास की सबसे ऊंची सीढ़ी पर बैठी रो रही औरत के पांव मे छाले पड़ गये हैं। जिसे धोखे बाजों ने आकाश की ऊंचाई को छूने और उड़ान भरने का स्वप्न दिखाया था,वो अब नीचे उतरने के लायक भी न रही। अफसोस है हमारी इस निष्ठुर एवं क्रूर मनोरंजनप्रियता पर जहां औरत को वस्तु समझकर खेला जाता है।

डॉ श्वेता दीप्ति प्रेम कविताओं में अधिक मुखर रही हैं! उनका कहना है कि शब्दों की दुनिया में भी सपनों के जाल को बुनता हुआ जिस अप्रतिम प्रेमानुभूति की परम सत्य की खोज कराते हम कवि ,लेखकों और साहित्यकारों को तरसाते रहते हैं,वह सचमुच ही हिंदी कविता की वह परम अभिव्यक्ति है ,जहां गा़लिब से लेकर कवि गीतकार नीरज तक बेचैनी के शिकार रहे,जब तक वह भावाभिव्यक्ति शब्दों के भीतर से फूटकर कागज और कलम के जरिये हाड़ मांस से बने इस शरीर के भीतर कोमल और नाजुक दिल की धड़कन को एक सही आकार न दे दे।

 

डा श्वेता दीप्ति की कविता हिंदी आधुनिक प्रेम कविताओं में वह तरसती ,टूटती ,बिखरती दुनिया है, जहां प्रेम स्वप्न के पांखों पर सवार होकर नीले आसमां के नीच घुमड़ते उड़ते बादलों के बीच अपनी आप बीती उन परिंदों से सुनाती है , जो निस्मीम गगन के इस छोर से उस छोड़ तक अपने भटके साथियों की खोज में होता है। हिंदी कविता में प्रेम के मानक तत्व की खोज और उसकी नियतिबोध की मारक दुःस्थितियों से ऊबरने के साध्य और वैकल्पिक समाधान के तमाम शर्तों के बीच एक अलग संसार में प्रवेश कराती है,जहां सत्य असत्य,अपना पराया का बोध समाप्त हो जाता है । डा दीप्ति की कविता प्रेम के उच्चादर्श के उन मूल्यों को स्थापित करती है ,जहां प्रेम तमाम उलझनों से निकलकर केवल दिल में होता है।

 



About Author

यह भी पढें   आज १८ वां लोकतंत्र दिवस
आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Loading...
%d bloggers like this: