Sun. Apr 28th, 2024

श्रीकृष्ण की प्रेमिका – राधा : रामबाबू नीरव


रामबाबू नीरव । यह एक आश्चर्यजनक बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर उनकी प्रतिमा के साथ उनकी प्रथम पत्नी तथा पट्टरानी रूक्मिणी की जगह उनकी प्रथम प्रेमिका राधा रानी की प्रतिमा स्थापित करके उनके भक्तों द्वारा भक्ति भाव से पूजा अर्चना की जाती है. साथ ही श्रीकृष्ण के नाम के साथ भी उनकी प्रेमिका राधा का ही नाम लिया जाता है “राधा कृष्ण”. जबकि हिन्दू धर्म के अन्य भगवानों, जैसे श्रीविष्णु, श्रीशंकर, श्रीराम आदि के साथ उनकी धर्म पत्नियों के नाम लिये जाते हैं, यथा श्रीविष्णु लक्ष्मी, श्रीशंकर पार्वती, श्री सीता राम आदि. सत्य यह है कि श्रीकृष्ण को भगवान् के रूप में प्रतिस्थापित करने वाले महामुनि वेदव्यास द्वारा रचित मूल ग्रंथ “श्रीमद् भागवत् महापुराण” में राधा के नाम का उल्लेख कहीं भी नहीं हुआ है. भागवत् पुराण में भगवान् श्री कृष्ण की नायिकाओं के नाम की जगह सिर्फ गोपियों अथवा ग्वालिनों का ही उल्लेख है. कहीं कहीं गोपियों के कुछ नाम देखने को मिलते हैं, फिर भी उन नामों की भी उतनी प्रमुखता नहीं है. अब प्रश्न उठता है कि जो राधा भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन में इतनी रच बस गयी है कि उनके नाम के बिना भगवान् श्रीकृष्ण का नाम ही अधूरा लगता है, का उल्लेख महामुनि वेदव्यास लिखित मूल श्रीमद्भागवत् में क्यों नहीं किया गया.? इससे यही प्रमाणित होता है कि राधा का नाम ही काल्पनिक है. बहुत सारे विद्वानों ने राधा के होने पर प्रश्न चिन्ह उठाए हैं. अब सवाल उठता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के साथ रास रचाने वाली तथा जनमानस में श्रीकृष्ण की प्रेमिका (नायिका) के रूप में रच बस जाने वाली राधा आखिर आयी कहाँ से? राधा के नाम का उल्लेख पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा गर्ग संहिता में देखने को मिलता है. पद्मपुराण में तो राधा के पूरे परिवार का ही वर्णन है. बारहवीं शताब्दी में संस्कृत के एक महाकवि हुए जयदेव, इनके महाकाव्य “गीतगोविन्द” में राधा के नाम का उल्लेख हुआ है. अब गीतगोविन्द को जानने से पहले महाकवि जयदेव को जानना जरूरी है. जयदेव का जन्म बारहवीं शताब्दी में उत्कल राज्य (प्राचीन कलिंग और वर्तमान उड़ीसा राज्य) के गजपति राजाओं के काल में हुआ था. वे भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे. माना जाता है कि संस्कृत भाषा के वे अंतिम कवि थे, जिन्होंने “गीतगोविन्द” तथा “रतिमंजरी” जैसे संस्कृत के महाकाव्यों की रचना की. अवधी में लिखे गये महाकाव्य “भक्ति विजय” के रचयिता महिपति ने महाकवि जयदेव को महामुनि वेदव्यास का दूसरा अवतार माना है. जयदेव रचित “गीतगोविन्द” श्रीकृष्ण, राधा और वृन्दावन की गोपियों के बीच प्रेमप्रसंग पर आधारित है. इसमें काम-विज्ञान, काव्य नवरस तथा प्रेम की आनंदमयी कला का अद्भुत सृजन हुआ है. यह गीतात्मक काव्य कृति चौबीस प्रबंधों तथा बारह अध्यायों में लिखी गयी शृंगार रस की महान उपलब्धि है. कहा जाता है कि महाकवि जयदेव स्वयं इस गीतात्मक कृति को अपनी सुमधुर आवाज में गाँव गाँव में भ्रमण करते हुए गा गाकर लोगों को सुनाया करते थे. उनके इस गीतगोविन्द को सुनकर लोगों के दिलोदिमाग में राधा कृष्ण की ऐसी छवि बन गयी कि लोग भगवान् श्री कृष्ण की पट्टरानी रूक्मिणी को भूल गये और राधा को ही उनकी पत्नी मान बैठे. श्रीकृष्ण और राधा की भक्ति में डूब चुके लोगों ने कृष्ण और राधा को एक दूसरे का पूरक मानते हुए कहना आरंभ कर दिया कि कृष्ण यदि देह है तो राधा उस देह की आत्मा है, कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ है, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत है. कृष्ण बंशी हैं तो राधा धुन है, कृष्ण समुद्र हैं तो राधा लहर है. कृष्ण फूल हैं तो राधा सुगंध है. इस तरह के अनेकों अलंकरणों से श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम को अलंकृत किया गया.
कुछ विद्वानों का मत है कि गजपति राजाओं के शासन काल में उत्कल राज्य के किसी गाँव में राधा का जन्म हुआ था, जो भगवान् श्रीकृष्ण की भक्त थी और उनके प्रेम में डूबकर “श्री कृष्ण कृष्ण” पुकारती हुई कृष्णमय हो गयी, ठीक उसी तरह जैसे कि मुगल बादशाह अकबर के काल में मेवाड़ के राणा घराने में मीरा हुई थी. जयदेव ने संभवतः उसी राधा को अपने महाकाव्य गीतगोविन्द की नायिका बनाया हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इन सभी काव्यों में राधा श्रीकृष्ण की मात्र प्रेमिका थी और उम्र में उनसे बड़ी थी. परंतु एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम विवाह उनकी प्रेयसी राधा के साथ हुआ था. इसके प्रमाण स्वरूप वे विद्वतजन एक मंदिर का हवाला देते हैं जो मथुरा से 30 कि० मी० दूर भांड तहसील के भांडीर वन में स्थित है. (मथुरा भ्रमण के दौरान मैं इस मंदिर का भी भ्रमण कर चुका हूँ.) इस मंदिर में भगवान् श्रीकृष्ण तथा राधा रानी की प्रतिमा पति-पत्नी के रूप में स्थापित है और भगवान् श्रीकृष्ण के हाथ में बांसुरी नहीं है. साथ ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी की प्रतिमा उन दोनों को आशीर्वाद देने की मुद्रा में स्थापित है. ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा गर्ग संहिता में वर्णित कथा के अनुसार जब भगवान् श्रीकृष्ण बाल रूप में थे तब वे एक दिन अपने पाल्य पिता नंदबाबा के साथ गाय चराने हेतु जिद करके वृंदावन चले गये. वहाँ जाने के बाद नंदबाबा एक पेड़ के नीचे बैठ गये. बालक कृष्ण वहीं खेलने लगे. ठंडी ठंडी हवा के सुखद स्पर्श से नंदबाबा को झपकी आ गयी और वे गहरी नींद में सो गये. उनके सोते ही बालक श्रीकृष्ण खेलते खेलते वृंदावन के घने जंगलों की और चले गये. शाम ढ़लने पर गायों के रम्भाने की आवाज सुनकर नंदबाबा की आंखें खुल गयी. वहाँ पर अपने पुत्र को न पाकर वे बुरी तरह से घबरा गये. तभी घनघोर जंगल से आती हुई एक अद्भुत प्रकाश की किरण उन्हें दिखाई दी. नजदीक आने पर वह किरण एक देवी के रूप में प्रकट हुई और उनकी गोद में बालक श्रीकृष्ण हंस रहे थे. उस देवी की गोद में अपने पुत्र को देखकर नंदबाबा के जान में जान आयी. देवी श्रीकृष्ण को नंदबाबा को देती हुई बोली -“आप इन्हें ले जाइए और यशोदा मईया को सौंप दीजिये”. तभी एक चमत्कार और हुआ, बालक कृष्ण उस देवी की गोद से उछल कर भूमि पर आ गये और पूर्ण युवा का रूप धारण करके देवी की ओर देखने लगे. वह देवी कोई और नहीं बल्कि श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा रानी थी. नंदबाबा उन दोनों को इस रूप में देखकर चकित रह गये. श्रीकृष्ण ने राधा से पूछा – “क्या तुम मुझसे प्रेम करोगी ?”
“हाँ…. मेरे स्वामी.” राधा हर्षित स्वर में बोली.
“क्या मुझसे विवाह करोगी.”
“हाँ….. मेरे स्वामी.” वह इसबार भावविभोर हो उठी. तभी पुन: चमत्कार हुआ. वहाँ एक अग्नि कुंड के साथ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उन्होंने ने उन दोनों का विवाह करवाया. विवाहोपरांत भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बाल रूप में आ गये.” उसी स्थान पर उस मंदिर का निर्माण हुआ है. और संभवतः उस मंदिर के निर्माण के बाद से ही जन्माष्टमी में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ राधा रानी की प्रतिमा स्थापित करने की परंपरा आरंभ हुई हो. यह भी हो सकता है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्ग संहिता की ये कथाएँ मिथक अथवा दंत कथाएँ हों. इसमें महाकवि जयदेव की कथा ही सत्य प्रतीत होती है.
गीतगोविन्द के बाद तो जैसे साहित्यकारों मुख्य रूप से कवियों के लिए राधा एक ऐसी नायिका के रूप में अवतरित हुई जिसे अपनी अपनी कृतियों में चित्रित करके कविगण अमर हो गये. श्रीमद् भागवत् पुराण में राधा की चर्चा न होने के पीछे कुछ श्रद्धालुओं द्वारा अजीब अजीब तरह के तर्क दिये जाते हैं, जो रत्ती भर भी विश्वसनीय नहीं हैं.

रामबाबू नीरव



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