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जापानी प्रधानमंत्री शिंजो जी की हत्या : प्रणालीगत विफलता या साजिश या दोनो ?: प्रेमचन्द्र सिंह

जापानी प्रधानमंत्री शिंजो जी की हत्या :
प्रणालीगत विफलता या साजिश या दोनो

प्रेमचन्द्र सिंह, लखनऊ। अभी हाल ही में जापान में पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे सरीखे कद्दावर वैश्विक नेता को बीच चौराहे पर बेसहारा छोड़ दिया गया और एक पत्रकार के वेश में कातिल उन्हे बहुत ही नजदीक से सरेआम गोली से मार गिराया, यह घटना खुफिया और सुरक्षा विफलता के साथ ही राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय अपराधिक साजिशों के पैटर्न को दोहराता नजर आ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को सत्ता से हटना कोई इत्तफाक नहीं है, इसीतरह भारत के सीडीएस जनरल विपिन रावत और ताइवान के सेना प्रमुख दोनो का हेलीकॉप्टर दुर्घटना में आकस्मिक मौत केवल संयोग मात्र नही है। जनरल रावत ने जैसे ही भारतीय रक्षा प्रणाली में न्यूक्लीयर-बायोलॉजिकल रणनीतिक आयाम की अनिवार्यता पर बात करना शुरु किया,उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी गई। नामचीन विश्लेषकों का मानना है कि चीन के बढ़ते साम्राज्यवाद को नियंत्रित करने के लिए उभरते नए विश्वव्यवस्था और उसके कारकों को चीन अपने लिए खतरा मानता है और उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिए कोई भी कोरकसर नही छोड़ता है।

जापान एक बौद्धधर्म को माननेवाला शांतिप्रिय देश है लेकिन उस देश में शिंजो आबे से पूर्व भी कई अन्य प्रधानमंत्रियों का कत्ल हुआ है। सुरक्षा खतरा का आकणन जब भी किसी देश में उस देश की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां करती है तो वे अपने जेहन में संभावित सर्वाधिक खतरनाक स्थितियों को रखती है और उनसे बचाव के लिए तैयारियों का बंदोबस्त करती है। शिंजो आबे जी की असामयिक मौत की घटना ने जापान की सुरक्षा संरचना की भारी चूक को रेखांकित करती है। शिंजो आबे जापान की समृद्ध राजनीतिक विरासत के हिस्सा रहे हैं। उनके नाना जापान के ख्यातिप्राप्त प्रधानमंत्री रहे हैं और उनके पिता जी जापान के विदेशमंत्री रहे हैं। उनके नाना नोबुसुके द्वितीय चीन-जापान युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान के रक्षा मंत्री थे और उन्ही की देखरेख में चीन, कोरिया तथा इंडो-चाइना क्षेत्र पर जापान का आधिकारिक कब्जा हुआ। साथ ही उनके आदेश से ही द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने अमेरिका पर आक्रमण किया था। शिंजो आबे स्वयं जापान के दो बार प्रधानमंत्री रहे हैं और उनका कार्यकाल सबसे लंबा रहा है। ऐसे कद्दावर नेता की सुरक्षा व्यवस्था का ऐसा खस्ताहाल चौकाने बाला है।
जापानी मीडिया के अनुसार शिंजो आबे का पहले से प्रश्नगत सार्वजनिक कार्यक्रम निर्धारित नही था, एकाएक यह कार्यक्रम बना। इस कार्यक्रम में 100 से भी कम लोग थे, जो लोग आबे साहब को जानते हैं उनको मालूम है कि उनके रैलियों में 7000-8000 से कम लोग कभी नहीं रहते थे। यह घटना तो भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी की श्रीपेरंबुदुर-हत्याकांड की याद दिलाता है। उनका भी आंध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम रैली के बाद तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदुर जाने का कोई कार्यक्रम पहले से तय नहीं था, अन्तिम समय में उन्हे दिल्ली से बताया गया कि उनको विशाखापत्तनम से सीधे श्रीपेरंबुदुर की सभा को संबोधित करने जाना है। दुनियां की तमाम महत्वपूर्ण व्यक्तियों की हत्या की घटनाओं में एक ही तरह का पैटर्न की पुनरावृति होती दिखती है कि लक्षित व्यक्ति को हत्यारा समूह अपने सुविधाजनक स्थान में खीच के ले आता है और वहां अपने हत्या के साजिश को अंजाम देता है। इस तरह के तमाम मामले सुरक्षा और खुफिया तंत्र की विफलता होती है।


आमतौर पर हत्या के पीछे की मूलभाव (मोटिफ) को जानने के लिए यह देखा जाता है कि जब किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति की हत्या होती है तो हत्या का शक किस पर जाता है और उस शक से फायदा किसको होता है। हत्यारा हमेशा हत्या की जांच को भटकाने के लिए तरह-तरह की नैरेटिव को सृजित करता है। इस मामले में शिंजो आबे जी का हत्यारा तेतसुआ यमगामी का कहना है कि उसको शिंजो आबे जी की नीतियों से विरोध था, इसी नाराजगी के कारण उसने उनकी हत्या की है। सोचने वाली बात है कि शिंजो आबे जी वर्ष- 2020 में प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया था, उसके बाद हत्यारा यमगामी को ढाई साल लग गया यह समझने में कि शिंजो आबे जी की नीतियाँ खराब थी। हत्यारा का यह कथन तार्किक बुद्धि से पड़े है।
शिंजो आबे जी द्वारा प्रतिपादित नीतियों के सामान्यतः दो पहलू हैं – एक आर्थिक पहलू और दूसरा सामरिक पहलू। साल-2008 के वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट से जापान भी अछूता नहीं था। शिंजो आबे जी की आर्थिक नीतियों ने जापान की आर्थिक स्थिति को वापस पटरी पर तो लाया ही, साथ ही आर्थिक विकास दर में अप्रत्याशित इजाफा भी किया। फलस्वरूप जापान के लोग उनसे बहुत खुश थे और उनकी लोकप्रियता अपने देश में आसमान छू रही थी। ऐसे में वे कौन लोग थे जिन्हे जापान की आर्थिक विकास से परेशानी थी, यह एक यक्ष प्रश्न है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी के समर्पण के बाद भी जापानी सेना अपने बलबूते अकेले मित्र देशों की सेना से लड़ रही थी और उसकी सेना के बेड़े में 50 लाख लोग थे। उसका चीन, कोरिया और इंडो-चाइना पर कब्जा था। जापान की सेना उस समय विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना थी।जापानी भूमि पर अमेरिकी एटम बम गिरने और उसके विध्वंसक परिणाम के फलस्वरूप जापान की हार के बाद मित्र देशों (एलाइड पावर्स) ने जापान की फौज का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया और उसकी जगह अमेरिका के नेतृत्व में जापान की सुरक्षा के लिए ‘मित्र देशों की सर्वोच्च कमांड’ (SCAP) की स्थापना की गई। शिंजो आबे जी द्वारा अपने प्रधानमंत्री के कार्यकाल में जापान की स्वतंत्र रक्षा और सामरिक नीति पर बल दिया गया जिसके तहत शिंजो आबे जी ने जापान को सामरिक शक्ति से संपन्न देश बनाने के लिए अपनी राष्ट्रीय सैन्य संगठन और न्यूक्लीयर शक्ति के विकास के लिए जोरदार पहल करते हुए जापान के संविधान में तदनुसार संशोधन करने के प्रयास में जुट गए। शिंजो आबे जी की इस सामरिक नीति को ‘शिंजो डॉक्टरिन’ के नाम से भी वैश्विक भू-राजनीति में जाना जाता है। इस नीति से चीन को परेशान होना स्वाभाविक है क्योंकि चीन की सीमा जापान की सीमा से लगती है। द्वितीय विश्वयुद्ध या उससे पूर्व चीन-जापान युद्ध में प्रबल जापानी सैन्य शक्ति की कहर से चीन भलीभांति परिचित है और वह कभी नहीं चाहेगा कि जापान फिर से प्रचंड सैन्यशक्ति संपन्न देश बने। प्रधानमंत्री शिंजो आबे द्वारा भारतीय प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा और विकास के लिए क्वॉड के गठन में अगुआई का मामला हो या मालाबार सैन्य एक्सरसाइज सहित अन्य वैश्विक सामरिक, आर्थिक एवं रणनीतिक उपक्रम चीन की चिन्ता का सबब बन गया। इसके साथ ही जब चीन के साथ डोकलाम में भारत की सीमा-विवाद चरम पर था, उस समय जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने खुलकर भारत का समर्थन किया था। इसके कारण चीन को जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे से नाराज होना लाजमी है। इस बदलते वैश्विक परिवेश में चीन की व्याकुलता और छटपटाहट का तांडव विश्वपटल पर यदाकदा सबके सामने आता रहता है।
आमतौर पर विश्व की शक्तिशाली देशों की सरकारों की कामकाज और नीतियां उन देशों की ‘डीप-स्टेट’ से बहुत हद तक प्रभावित होती है। यह डीप-स्टेट है क्या? किसी भी देश की राजनीतिक दिग्गजों, सुरक्षा तथा खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों, नौकरशाहों के प्रमुखों सहित शक्तिशाली उद्योगपतियों को डीप-स्टेट कहा जाता है, जो पीछे से उन देशों की सरकारों की नीतियों और कामकाजों को अपने अनुभवों और संपर्कों के कारण प्रभावित करते रहते हैं। भारत में विगत वर्षों से सीएए, किसान आंदोलन, लालकिला पर तिरंगा का अपमान,अग्निपथ आदि घटनाओं का मकसद भी विश्व की भारत विरोधी ऐसी ही शक्तियां द्वारा भारत में आंतरिक अस्थिरता पैदा करने का रहा है, इसमें भारत विरोधी देशों के डीप स्टेट की गंभीर भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। कोरोना महामारी के पीछे भी यही सोच थी कि भारत में विकसित देशों की भांति स्वास्थ्य सुविधायें तो उपलब्ध नहीं है, ऐसे में लोग भारत की सत्ता अधिष्ठान के विरोध में आंदोलित होंगे और सत्ता परिवर्तन सहज हो जायेगा। लेकिन भारत तो देवभूमि है, यहां के लोगों पर असीम दैवी कृपा है। ऐसे विकट समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भारत की केंद्र सरकार ने युद्धस्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं को सृजित किया, कोरोना वैक्सीन की खोज और उत्पादन शुरू किया, पीपीई किट का उत्पादन शुरू किया, चीन से प्रभावित विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत द्वारा निर्मित कोरोना के वैक्सीनो के मानवीय उपयोग के लिए प्रभावकारिता प्रमाणपत्र नही दे रहा था लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री के कद्दावर व्यक्तित्व के सामने विश्व स्वास्थ्य संगठन को घुटना टेकना पड़ा और भारतीय वैक्सीनों को मान्यता देना पड़ा। भारत अपने लोगों को तो मुफ्त में कोरोना वैक्सीन मुहैया कराया ही, साथ ही सौ से अधिक देशों के लोगों को इस महामारी से बचाने के लिए वैक्सीन बड़े पैमाने पर निर्यात भी किया और इसके अतिरिक्त पीपीई किट भी बड़ी संख्या में उन देशों को निर्यात किया। दुनिया के गरीब देशों को भारत बड़ी संख्या में निःशुल्क वैक्सीन और पीपीई किट निर्यात किया।अमेरिका तथा यूरोप के विकसित देशों के मुकाबले 140 करोड़ जनसंख्या वाले भारत में मृत्युदर बहुत ही कम रही, इन सब उपलब्धियों से भारत ने अपनी कुशल आपदा प्रबंधन की क्षमता का प्रदर्शन दुनियां के सामने किया है।
आजादी के बाद 20 वी सदी के 60 के दशक में जो भारत अपनी खाद्यान्न आवश्यकता को पूरा करने के लिए अमेरिका की पी.एल.-80 योजना के तहत अमेरिका से गेहूं खरीदता था, उस भारत से चावल,गेंहू और चीनी खरीदने की होड़ पूरी दुनियां के अनगिनत देशों में है। भारत उन देशों की खाद्यान मांग के अनुरूप बखूबी आपूर्ति भी कर रहा है। इससे भारत विरोधी खेमे में अवसाद उत्पन्न होना लाजमी है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे जी के बीच व्यक्तिगत घनिष्ठता और आत्मीयता थी। आज से नही जब मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तबसे उन दोनो नेताओं के बीच गहरा अपनापन था और उस समय भी मोदी जी शिंजो आबे जी से मिलने जापान जाया करते थे। भारत में बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट की 80% फंडिंग (वित्तपोषण) जापान से हो रही है, नोएडा एक्सप्रेसवे सरीखे तमाम घरेलू परियोजनायें इन दोनो दिग्गज नेताओं की व्यक्तिगत संबंध का प्रतिफल है। भारत को वित्तीय सहायता देने की बात हो या भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुलकर समर्थन करने का मसला हो या भारत को नैतिक समर्थन देने की बात हो – सभी स्तरों पर स्वर्गीय श्री शिंजो आबे जी ने खुलकर भारत का समर्थन किया। उनके बाद उनके नानाजी द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्थापित लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) जापान में वर्ष-1955 से सत्ता में है और शिंजो आबे उसके कद्दावर नेता रहे हैं। शिंजो आबे जी के बाद भी जापानी नेतृत्व के साथ भारत के अच्छे संबंध रहेंगे, फिर भी शिंजो आबे जी की कमी भारतीय जनमानस में महसूस की जाती रहेगी।
         “हजारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
         बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा”

प्रेमचन्द्र सिंह



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